शनिवार, 17 नवंबर 2018

हिन्द महासागर की बदलती राजनीति


दो पड़ोसी देशों के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने भारत का ध्यान खींचा है। एक है मालदीव और दूसरा श्रीलंका। शनिवार को मालदीव में नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए। दक्षिण एशिया की राजनयिक पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण परिघटना है। सन 2011 के बाद से किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष की पहली मालदीव यात्रा है। दक्षेस देशों में मालदीव अकेला है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी सायास नहीं गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस देश ने भारत के खिलाफ जो माहौल बना रखा था उसके कारण रिश्ते लगातार बिगड़ते ही जा रहे थे। तोहमत भारत पर थी कि वह एक नन्हे से देश को संभाल नहीं पा रहा है। यह सब चीन और पाकिस्तान की शह पर था।

दूसरा देश श्रीलंका है, जो इन दिनों राजनीतिक अराजकता के घेरे में है। यह अराजकता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। वहाँ राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को बर्खास्त करके महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया है। संसद ने हालांकि राजपक्षे को नामंजूर कर दिया है, पर वे अपने पद पर जमे हैं। राजपक्षे चीन-परस्त माने जाते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे, जो भारत के खिलाफ जाते थे। मालदीव के साथ कड़वाहट की वजह वहाँ की अब्दुल्ला यामीन सरकार थी। इस सरकार पर लोकतांत्रिक मूल्यों मान्यताओं को तिलांजलि देने का आरोप था। मालदीव में जेहादी राजनीति का उभार हो रहा था, जिसे लेकर अमेरिका तक को चिंता है। इस साल मार्च में पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल कमर बाजवा के मालदीव दौरे ने इस संदेह को पुष्ट किया था कि वहाँ चीन-पाकिस्तान गठजोड़ से खिचड़ी पक रही है। इसके ठीक पहले फरवरी में विरोधियों की धर-पकड़ ने खतरनाक रूप अख्तियार कर लिया था। हस्तक्षेप करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी जेल में डाल दिया गया था।

बहरहाल सितम्बर में हुए चुनाव के बाद वहाँ सत्ता-परिवर्तन हुआ है। नए राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण में शामिल होना बदलती परिस्थिति पर भारत सांकेतिक टिप्पणी है। हाल के वर्षों में चीन ने हिन्द महासागर में नौसैनिक गतिविधियाँ बढ़ाई हैं, जिसमें मालदीव एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो रहा था। पिछले साल उसने उत्तरी अफ्रीका के देश जिबूती में अपना फौजी अड्डा स्थापित किया, तो भारत के कान खड़े हुए। मालदीव और श्रीलंका में खासतौर से सक्रियता बढ़ाई। गौर करने वाली बात है कि सन 2011 तक मालदीव में चीन का दूतावास भी नहीं था। अब उसका इस देश के साथ फ्री-ट्रेड का समझौता है। ऐसा समझौता भारत के साथ नहीं है, जबकि मालदीव के हर संकट में सबसे पहले भारत ही आगे आकर मदद करता रहा है। इस दौरान मालदीव में चीन ने इंफ्रास्ट्रक्चर की कई बड़ी योजनाएं हथिया लीं, भारतीय कम्पनियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया। अब यह देश चीन का करीब डेढ़ अरब डॉलर का कर्जदार है। 

मालदीव में ऐसा माहौल 2012 के बाद बना, जब भारत-समर्थक मोहम्मद नाशीद का तख्ता पलट कर नई सरकार आई। इस सरकार ने चीन और पाकिस्तान समर्थक नीतियों को अपनाया। सन 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग वहाँ की यात्रा पर आए। चीनी राष्ट्रपति का अपने इस नन्हे के साथ दोस्ताना ध्यान खींचने वाला था। मालदीव की भौगोलिक स्थिति उसे महत्वपूर्ण बनाती है। यह चीन की उस ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ योजना का हिस्सा है, जो भारत को घेरने के लिए बनाई गई है।

वाशिंगटन के सेंटर फॉर ए न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी के विशेषज्ञ रॉबर्ट कैप्लान के अनुसार चीन सामुद्रिक शक्ति के रूप में उभरने के लिए इस वक्त अच्छी स्थिति में है। उसके उभार के बरक्स भारत को भी अपने सामुद्रिक हितों के बारे में सोचना पड़ा है। इतिहास में पहली बार दोनों देश हिन्द महासागर में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। नवम्बर 2011 में चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह बनाया था। उसी दौरान मालदीव में चीनी गतिविधियाँ शुरू हो गईं। उसने अपनी आर्थिक शक्ति के सहारे भारत के पड़ोसी देशों पर चारा फेंका। पर उसके अंतर्विरोध भी हैं। चीनी सहायता बहुत जल्द देश को कर्जदार बनाती है। पहले श्रीलंका में चीन समर्थक महिंदा राजपक्षे की सरकार गई और अब मालदीव में अब्दुल्ला यामीन की।

हिन्द महासागर की सुरक्षा के लिहाज से प्रधानमंत्री मोदी का इस हफ्ते का सिंगापुर दौरा भी महत्वपूर्ण है। इस साल यह उनकी दूसरी सिंगापुर यात्रा थी। इस यात्रा की दो बातें रक्षा और विदेश-नीति से जुड़ी हैं। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा के लिए चल रही चतुष्कोणीय सुरक्षा यानी क्वाड से जुड़ी चौथी बैठक भी गुरुवार 14 नवम्बर को सिंगापुर में हुई। इसमें भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के प्रतिनिधि शामिल हुए। बैठक में आसियान देशों की भूमिका और चतुष्कोणीय संवाद के महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा हुई।

करीब एक दशक की खामोशी के बाद यह चतुष्कोणीय-संवाद पिछले साल 11-12 नवम्बर को फिलीपींस की राजधानी मनीला में फिर से शुरू हुआ था। आसियान शिखर सम्मेलन के हाशिए पर इन चारों देशों के अधिकारियों ने प्रस्तावित गठजोड़ के सवालों पर विचार किया। चारों देश अभी वैचारिक सहमति की प्रक्रिया में हैं। भारत किसी फौजी गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहता, पर चीनी विस्तार को लेकर चिंता बरकरार है।

सिंगापुर में इस गुरुवार को हुए सम्मेलन के हाशिए में अमेरिका के उप राष्ट्रपति माइक पेंस और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से अलग से मुलाकात भी की। इसके पहले अक्तूबर में नरेन्द्र मोदी जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे के साथ मुलाकात करके आए हैं। माना जा रहा है कि जिबूती के अपने फौजी बेस में जापान हमारी सेनाओं को सुविधाएं देने जा रहा है। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चीनी तैयारी के बरक्स यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है।

सिंगापुर की चतुष्कोणीय वार्ता के बाद हालांकि भारत कि विदेश विभाग के वक्तव्य में श्रीलंका और मालदीव का जिक्र नहीं था, पर जापान और अमेरिकी प्रतिनिधियों के बयानों में कहा गया कि हमने मालदीव और श्रीलंका के हालात पर भी विचार किया। संयोग है कि जिस वक्त सिंगापुर में चतुष्कोणीय वार्ता चल रही थी, उसी वक्त भारत और सिंगापुर की नौसेनाएं अंडमान-निकोबार में सालाना युद्धाभ्यास सिम्बैक्स में संलग्न थीं। जिस सागर में यह युद्धाभ्यास हो रहा है, वहाँ से बड़ी संख्या में चीन के व्यावसायिक पोत और पेट्रोलियम टैंकर गुजरते हैं। 21 नवम्बर तक चलने वाला यह युद्धाभ्यास अपने 25वें साल में है। भारत इस समुद्री मार्ग के रक्षक के रूप में उभर रहा है।

हरिभूमि में प्रकाशित

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