शनिवार, 24 नवंबर 2018

टेरेसा मे के सामने ब्रेक्जिट की चुनौती


फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पिछले हफ्ते पहले विश्व युद्ध की 100वीं वर्षगाँठ पर हुए एक समारोह में कहा, राष्ट्रवाद दुनिया के लिए खतरा है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति एक-दूसरे के विरोधी हैं। उन्होंने कहा, यह कहना कि मेरे हित सबसे आगे हैं दूसरे भाड़ में जाएं, इंसानियत की मूल अवधारणा के खिलाफ है। यूरोप और पश्चिम एशिया से पहले विश्व युद्ध के बादल पूरी तरह कभी छँटे नहीं हैं। हमें मिलकर काम करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन, गरीबी और असमानता के खिलाफ मिलकर लड़ाई लड़ें। मैक्रों सेंटरिस्ट और वृहत यूरोपवादी नेता हैं और वे जिस समारोह में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे, उसमें 60 देशों के राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे। इनमें डोनाल्ड ट्रम्प और व्लादिमीर पुतिन भी थे।

  राष्ट्रवाद, देशभक्ति और वैश्वीकरण के वात्याचक्र में दुनिया फिर घिरती जा रही है। मैक्रों के विचारों पर एक अलग बहस चल निकली है, पर पिछले हफ्ते ब्रिटेन से व्यवहारिक राजनीति से जुड़ी कुछ खबरें बाहर निकली हैं, जो इस बहस का हिस्सा बनेंगी या बन रहीं हैं। यह बहस है यूरोप के एकीकरण बनाम ब्रेक्जिट की। यूरोप का एकीकरण ब्रिटिश राजनीति में बहस का विषय है, खासतौर से सत्तारूढ़ गठबंधन की सबसे बड़ी कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर इस विषय को लेकर गहरे अंतर्विरोध है। दो साल पहले ब्रिटेन की जनता ने जनमत संग्रह में यूरोपीय यूनियन से अलग होने के पक्ष में फैसला किया था। इसे ब्रेक्जिट कहते हैं। अब जैसे-जैसे ब्रेक्जिट के दिन करीब आ रहे हैं, जटिलताएं बढ़ रही हैं। यूरोपीय यूनियन से अलग होने की शर्तों को लेकर विवाद है। 


प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने यूरोपीय संघ के साथ अलग होने के जिस समझौते की रूपरेखा बनाई है, उसे लेकर उनके सहयोगियों के बीच ही भारी मतभेद हैं। पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री ने इस समझौते की रूपरेखा को पेश किया, तो ये मतभेद खुलकर सामने आ गए। उनकी कैबिनेट के कुछ मंत्रियों ने इस्तीफे दे दिए और अब कोशिशें हो रहीं हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री पद से भी हटा दिया जाए। उनके कुछ सहयोगी चाहते हैं कि टेरेसा में ब्रसेल्स जाकर समझौते की शर्तों को फिर से परिभाषित करें, पर वे इसके लिए तैयार नहीं हैं और यूरोपीय संघ भी इसके लिए तैयार नजर नहीं आता है। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हो गई है। मुख्य विरोधी दल लेबर पार्टी के भीतर भी इस सवाल पर असहमतियाँ हैं। फिलहाल वे सत्तारूढ़ दल के भीतर के लतिहाव से खुश हैं। अलबत्ता उनकी इच्छा है कि एकबार फिर से देश में मध्यावधि चुनाव हो जाएं। उधर माँग यह भी उठ रही है कि हमें यूरोपीय संघ से हटने के फैसले को लेकर फिर से जनमत संग्रह करना चाहिए। दो साल पहले हुए फैसले के बाद काफी लोगों को पश्चाताप हुआ था। उन्हें लगता था कि हमने गलत फैसला कर लिया है।

वर्तमान व्यवस्था के अनुसार ब्रिटेन 29 मार्च, 2019 को यूरोपीय संघ से हट जाएगा। पर यह विलगाव तुरत नहीं हो जाएगा। टेरेसा में जो समझौता लेकर आई हैं उसके अनुसार दिसम्बर, 2020 तक एक संधिकाल होगा। इस दौरान तमाम विषयों की बारीकियों पर फैसले होते जाएंगे। इनमें व्यापार एक बड़ा मसला है। दोनों पक्षों ने फिलहाल व्यापक सिद्धांतों को तय कर लिया है। अभी इन सिद्धांतों को लेकर ही अंतर्विरोधी बातें हवा में हैं। एक तरफ कहा जा रहा है कि ब्रेक्जिट के बाद भी ईयू के नागरिक ब्रिटेन में बस सकेंगे, काम कर सकेंगे और रिटायर होने के बाद भी रह सकेंगे। और ब्रिटिश नागरिकों को भी यही अधिकार ईयू के देशों में होगा। जबकि ब्रेक्जिट समर्थ कहते हैं कि नौकरी की बात छोड़िए, आवाजाही की आजादी भी खत्म हो जाएगी। ईयू के 27 देशों में पूँजी, माल, सेवाओं और व्यक्तियों के आवागमन इन चार बातों की पूरी स्वतंत्रता है। ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन इन 27 देशों को यह स्वतंत्रता नहीं देगा। कई तरह की बातें हवा में हैं। एक सेमी ब्रेक्जिट का सुझाव है, जिसके अनुसार ईयू से अलग होने के बाद ब्रिटेन ईयू की कुछ शर्तें मानता रहेगा। बाहर रहकर उसके साथ बना रहेगा, जिससे आर्थिक हितों, रोजगार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ब्रिटेन से बाहर जाने से बचाया जा सकेगा।

टेरेसा में भी शायद इस रिश्ते को पूरी तरह तोड़ना नहीं चाहतीं। उनका कहना है कि बगैर सोचे-समझे ब्रेक्जिट नहीं हो पाएगा। इससे अराजकता फैल जाएगी। इसलिए समझौता होना चाहिए। यों भी यूरोपीय संघ के साथ किसी न किसी किस्म के रिश्ते रहेंगे। उन्हें तय होना चाहिए। यूरोपीय संघ इस समझौते को अगले दिनों में स्वीकार कर लेगा। सवाल है कि ब्रिटिश संसद इसे मानेगी या नहीं। वहाँ इसपर दिसम्बर के पहले पखवाड़े में मतदान होगा। टेरेसा में मानती हैं कि वे संसद को यह समझाने में कामयाब होंगी कि समझौते को स्वीकार कर लेना चाहिए। पर यह इतना सरल लगता नहीं है। ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहिए या नहीं, इसे लेकर लम्बे अरसे से बहस चली आ रही है और यह निर्णायक बहस नहीं है। कुछ लोगों को लगता है कि ईयू के साथ जुड़ने का नुकसान ही हुआ है, जबकि कुछ का कहना है कि ब्रेक्जिट हुए बगैर ही उसके अंदेशे में ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ गई है।

राजनीतिक दृष्टि से सन 1997 से 2010 तक के लेबर शासन के दौरान ब्रिटेन और यूरोपीय संघ का एक-दूसरे पर आश्रय बढ़ा था। मास्ट्रिख्ट संधि के बाद सन 1993 में यूरोपीय संघ बनने के पहले यूरोपीय समुदाय अलग-अलग क्षेत्रों में एकीकरण की प्रक्रिया चला रहा था। जब 2010 में डेविड केमरन के नेतृत्व में कंजर्वेटिव पार्टी फिर से सत्ता में आई, तब यूरोपीय संघ से अलग होने की माँग फिर से उठने लगी। केमरन को इस माँग की अव्यावहारिकता का अंदाज था। जब 2015 में वे फिर से चुनकर आए तो यह बात फिर उठी। इसे एक नया मोड़ देने या टालने के इरादे से उन्होंने इस विषय पर जनमत संग्रह कराने का फैसला कर लिया। सन 2016 की गर्मियों में जनमत संग्रह हो गया और मामूली अंतर से यूरोपीय संघ से अलग होने यानी ब्रेक्जिट का फैसला हो गया। इस फैसले के होते ही केमरन ने इस्तीफा दे दिया और उसके बाद टेरेसा में प्रधानमंत्री बनीं। अब फिर से संसद भंग होने का अंदेशा पैदा होने लगा है।




  
















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