शनिवार, 12 जनवरी 2019

ताइवान का चीन में विलय क्या कभी सम्भव होगा?

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चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को युद्ध के  लिए तैयार रहने को कहा है। शुक्रवार 4 जनवरी को सेंट्रल मिलिट्री कमीशन (सीएमसी) की पेइचिंग में हुई बैठक में उन्होंने कहा कि देश के सामने खतरे बढ़ रहे हैं। वे इस कमीशन के अध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया में ऐसे बदलाव हो रहे हैं जैसे पिछली एक सदी में भी नहीं हुए थे। रॉयटर्स के अनुसार चीन दक्षिण चीन सागर में पर नियंत्रण बढ़ाना चाहता है। इसके अलावा अमेरिका के साथ व्यापार के मुद्दों को लेकर और ताइवान के चीनी एकीकरण के मसलों को लेकर तनाव है।

इसके पहले 2 जनवरी को चीन ने ताइवान के देश-बंधुओं को सूचना पत्र की 40वीं वर्षगांठ मनाई थी। इस बैठक में चीनी राष्ट्रपति ने ताइवान के लोगों से कहा था कि उनका हर हाल में चीन के साथ 'एकीकरण' होकर रहेगा। भले ही इसके लिए हमें फौजी कार्रवाई करनी पड़े। उनके शब्दों में फौजी कार्रवाई शब्द काफी भारी हैं और उन्हें अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए खतरनाक संदेश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से ताइवान खुद को स्वतंत्र देश मानता है, पर वह औपचारिक रूप से अपनी स्वतंत्रता घोषित करने को अभी तक तैयार नहीं है, गोकि उसकी आंतरिक राजनीति का दबाव है कि हमें अपने आपको स्वतंत्र देश घोषित करना चाहिए। वह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य भी नहीं है और दुनिया के केवल 17 देशों के साथ ही उसके औपचारिक राजनयिक रिश्ते हैं। भारत भी उसे मान्यता नहीं देता। दूसरी तरफ उसके दुनिया के ज्यादातर देशों के साथ अनौपचारिक रिश्ते हैं। उसकी अर्थव्यवस्था एशिया के मानकों से बहुत ज्यादा विकसित है और उसकी तुलना जापान से ही की जा सकती है।
चीनी मनोकामना
चीन ने हाल में अपने आर्थिक रूपांतरण की 40 वीं वर्षगाँठ मनाई। 18 दिसम्बर 1978 को देंग श्याओपिंग के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने आर्थिक सुधारों को लागू करने का फैसला किया था। आर्थिक खुलेपन की इस शुरूआत के साथ यह चीन में हुई दूसरी क्रांति थी। इसके अगले महीने जनवरी 1979 में ताइवान की जनता से एकीकरण का प्रस्ताव किया। शी चिनफिंग ने अब ताइवान की खाड़ी के दोनों तटों के लोगों को पाँच-सूत्री सुझाव दिए हैं, ताकि वे चीनी-एकीकरण के रास्तों को खोजें। हांगकांग और मकाऊ क्रमशः 1997 और 1999 में एक देश, दो व्यवस्थाएं सिद्धांत के तहत वृहत्तर चीन का हिस्सा बन चुके हैं।
अब चीन की मनोकामना इनमें सबसे बड़े भूभाग ताइवान तो अपने साथ जोड़ने की है। इनके अलावा चीन ने समूचे दक्षिण चीन सागर पर अपना दावा किया है, जिसके कारण वियतनाम, फिलीपींस और मलेशिया की समुद्री सीमाएं छोटी हो जाती हैं। चीन ने 1948 में एक नक्शा जारी किया था जिसमें 'डॉटेड लाइंस' के मार्फत अपने अधीन इलाक़े को दिखाया था। सन 2016 में एक अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने इस दावे को खारिज कर दिया था, पर चीन ने उस न्यायाधिकरण के फैसले को मानने से इनकार कर दिया था।  
जनवरी के पहले हफ्ते में चीनी मीडिया में ताइवान के प्रकरण को जोर-शोर से उछाला गया था। इस सिलसिले में ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि ताइवान का मसला चीन का आंतरिक मसला है। पिछले 40 सालों में चीन ने खुद को बदलने के साथ विश्व को भी बदला है। उसकी मुख्य भूमि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बन चुकी है। उसके पास विश्व का सबसे बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार है, 120 से अधिक देशों व क्षेत्रों का वह सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। वैश्विक आर्थिक विकास में उसका योगदान 30 प्रतिशत से ज्यादा है।
ताइवान क्या स्वतंत्र देश है?
हालांकि चीन मानता है कि ताइवान उसका टूटा हुआ हिस्सा है, पर ताइवान उसके लिए तैयार नहीं है। हांगकांग और मकाऊ के साथ एकीकरण में दिक्कतें पेश नहीं आईं थीं, पर ताइवान को जोड़ना इतना आसान भी नहीं है। शी चिनफिंग के भाषण के एक दिन पहले 2 जनवरी को ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने कहा, हम चीन की शर्तों पर एकीकरण के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। चीन को 2.3 करोड़ लोगों की स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए। चीन सरकार एक चीन नीति को बहुत महत्व देती है। जो देश इसे स्वीकार नहीं करता उससे राजनयिक सम्बन्ध नहीं रखती। उसने धमकी दे रखी है कि यदि यह देश औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा करेगा, तो हम फौजी कार्रवाई करेंगे। भारत भी एक चीन नीति को स्वीकार करता है।
ताइवान का आधिकारिक नाम है रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (आरओसी) । यह नाम सन 1912 से यह मेनलैंड चीन के लिए इस्तेमाल होता रहा है। यह 1950 तक सर्वमान्य था। पर आज मेनलैंड चीन का नाम पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) है, जो 1949 के बाद रखा गया। पहले यह फॉरमूसा नाम से प्रसिद्ध था और 17वीं सदी से पहले चीन से अलग था। 17वीं सदी में डच और स्पेनिश उपनिवेशों की स्थापना के बाद यहाँ चीन से हान लोगों का बड़े स्तर पर आगमन हुआ।
सन 1683 में चीन के अंतिम चिंग राजवंश ने इस द्वीप पर कब्जा कर लिया। उन्होंने चीन-जापान युद्ध के बाद 1895 में इसे जापान से जोड़ दिया। उधर चीन में 1912 में चीनी गणराज्य की स्थापना हो गई, पर ताइवान, जापान के अधीन रहा। सन 1945 में जापान के समर्पण के बाद यह चीनी गणराज्य के हाथों में चला गया। उन दिनों चीन में राष्ट्रवादी पार्टी कुओमिंतांग और कम्युनिस्टों के बीच युद्ध चल रहा था। सन 1949 में माओ-जे-दुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने च्यांग काई शेक के नेतृत्व वाली कुओमिंतांग पार्टी की सरकार को परास्त कर दिया। माओ के पास नौसेना नहीं थी, इसलिए वे समुद्र पार करके ताइवान पर कब्जा नहीं कर सके। ताइवान तथा कुछ द्वीप कुओमिंतांग के कब्जे में ही रहे।
वह बचा कैसे रहा?
काफी समय तक दुनिया ने साम्यवादी चीन को मान्यता नहीं दी। पश्चिमी देशों ने ताइवान को ही चीन माना। संयुक्त राष्ट्र के जन्मदाता देशों में वह शामिल था। सन 1971 तक साम्यवादी चीन के स्थान पर वह संरा का सदस्य था। साठ के दशक में इस देश ने बड़ी तेजी से आर्थिक और तकनीकी विकास किया। अस्सी और नब्बे के दशक में कुओमिंतांग के अधीन एक दलीय सैनिक तानाशाही की जगह यहाँ बहुदलीय प्रणाली ने ले ली। यह देश इलाके के सबसे समृद्ध और शिक्षित देशों में गिना जाता है। सन 1971 के बाद से यह संयुक्त राष्ट्र का सदस्य नहीं है। देश की आंतरिक राजनीति में भी चीन में शामिल हों या नहीं हों, इस आधार पर राजनीतिक दल बने हैं।
ताइवान के ज्यादातर लोग चीन के साथ एकीकरण के विरोधी हैं, फिर भी कुछ समर्थक भी हैं। विरोध के पीछे कई तरह के कारण हैं। कुछ को लगता है कि ताइवान का लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, मानवाधिकार नहीं बचेंगे, ताइवानी राष्ट्रवाद समाप्त हो जाएगा, उनके जापान के प्रति हमदर्दी वाली भावनाओं का दमन कर दिया जाएगा। वे चाहते हैं कि या तो यथास्थिति बनी रहे या फिर देश खुद को स्वतंत्र घोषित कर दे। आरओसी (ताइवान) के संविधान में कहा गया है कि मेनलैंड चीन भी उसका हिस्सा है, पर व्यावहारिक रूप से उसका अस्तित्व ताइवान तक सीमित है।
सांविधानिक व्यवस्था
वर्तमान संविधान 25 दिसम्बर 1947 को पास हुआ था, जो आरओसी का पाँचवाँ संविधान है। उस वक्त इस सत्ता प्रतिष्ठान का मेनलैंड चीन पर औपचारिक नियंत्रण था। पर 7 दिसम्बर 1949 के बाद से आरओसी के स्वतंत्र क्षेत्र में ताइवान, पेंघु, छिमॉय, मात्सु, प्रातास और ताइपिंग द्वीप ही हैं। यानी कि कम्युनिस्ट चीन या पीआरसी पराधीन क्षेत्र है। सन 1948 से 1987 तक आरओसी मार्शल लॉ के अधीन रहा, इस वजह से यह संविधान प्रभावी नहीं था। उसके बाद से राजनीतिक और सांविधानिक व्यवस्था में कई तरह के सुधार किए गए हैं, क्योंकि देश का आकार छोटा हो गया है।
सन 2005 में राष्ट्रीय संसद का चुनाव इसी उद्देश्य से किया गया था कि वह बड़े स्तर पर सांविधानिक सुधार करे। उस संसद ने शासन के पाँच अंगों (युआन) की व्यवस्था बनाई है। उस संसद ने स्वयं को समाप्त करने का फैसला किया और भविष्य में सांविधानिक संशोधनों का अधिकार विधायिका (युआन) को दे दिए। देश में दो साल के कार्यकाल वाले राष्ट्रपति का सीधे चुनाव होता है और विधायी युआन (यानी कानून बनाने वाली संसद) का चार साल के लिए। दोनों के अधिकार-क्षेत्र का पूरी तरह पृथक्करण है। उसके राजनीतिक दलों में से कुछ (पैन ब्लू गठबंधन) चाहते हैं कि चीन के साथ एकीकरण होना चाहिए। कुछ चाहते हैं कि ताइवान स्वयं को स्वतंत्र देश घोषित करे। चीन के साथ एकीकरण के इच्छुक राजनीतिक दल फिलहाल बातचीत को आगे बढ़ाने और पूँजी निवेश वगैरह के नियमों में बदलाव की इच्छा रखते हैं।
चीनी एकीकरण
कम्युनिस्ट क्रांति के बाद से ही चीन ने ताइवान को वापस जीतने की हर कोशिश की है। चीनी-एकीकरण वाक्यांश का इस्तेमाल सत्तर के दशक से हो रहा है, जिसका सीधा मतलब है ताइवान मसले का समाधान। चीन को पता था कि यह समाधान तभी सम्भव है, जब अमेरिका और जापान इसके लिए तैयार हों। सन 1979 में चीन ने दोनों दिशाओं में काम शुरू किया। चीनी जन-कांग्रेस ने ताइवान के देश-बंधुओं को सूचना पत्र पास किया। सन 1981 में जन कांग्रेस की स्थायी समिति ने ताइवान के साथ रिश्तों के संदर्भ में चीनी नीति के रूप में नौ नीतियाँ घोषित कीं। तबसे हरेक राष्ट्रीय कांग्रेस में हांगकांग और मकाऊ के संदर्भ में एक देश, दो व्यवस्थाएं कार्यक्रम को दोहराया जाने लगा। यह काम 1999 में पूरा हो गया।
ताइवान के संदर्भ में चीनी-एकीकरण शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रस्ताव की चालीसवीं वर्षगाँठ पर चीनी राष्ट्रपति ने अपेक्षाकृत कठोर शब्दों में यह कहने का प्रयास किया है कि हम इसे भूले नहीं हैं। बहरहाल एकीकरण यदि कभी हुआ भा तो वह शांतिपूर्ण तरीके से ही हो सकेगा। इसके लिए ताइवान की जनता की राय भी लेनी होगी। बगैर उसकी सहमति के इतना बड़ा काम सम्भव नहीं होगा। पर जिस तरह से दुनिया में व्यवस्था को खोलने के प्रयास हो रहे हैं, उन्हें देखते कहा जा सकता है कि विलय के बगैर भी इन्हें जोड़ना सम्भव होगा। इक्कीसवीं सदी में राजनीतिक सीमाएं टूटने का काम भी सम्भव है। हालांकि चीन ने फौजी कार्रवाई का उल्लेख किया है, पर आज के दौर में लगता नहीं कि फौजी कार्रवाइयाँ राजनीतिक सीमाओं को गढ़ने में मददगार होंगी।  












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