रविवार, 2 दिसंबर 2018

पेट्रोलियम की गिरती कीमतें और वैश्विक-संवाद


यूरोप में ब्रेक्जिट-विमर्श अपने अंतिम दौर में है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध अब दूसरे दौर में प्रवेश करना चाहता है। भारत जैसे विकासशील देश इंतजार में कि उन्हें किस तरह से इसका लाभ मिले। इधर पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट का रुख अब भी जारी है। हर हफ्ते पाँच से सात फीसदी कीमतें कम हो रहीं है। पिछले साल अक्तूबर से अबतक कीमतें करीब एक तिहाई गिर चुकी हैं। पिछले हफ्ते अमेरिकी बेंचमार्क वेस्ट टेक्सास मध्यावधि वादा बाजार में रेट 50.42 डॉलर हो गए थे। तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक उत्पादन घटा रहा है और अमेरिका बढ़ा रहा है। ओपेक की कोशिश है कि कीमतें इतनी न गिर जाएं कि संभालना मुश्किल हो जाए।

सऊदी अरब पर अमेरिकी दबाव है कि कीमतों को बढ़ने न दिया जाए। दूसरी तरफ वह रूस के साथ मिलकर कीमतों को गिरने से रोकना चाहता है। अंदेशा इस बात का है कि पेट्रोलियम की माँग घटेगी। यानी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था फिर से मंदी तरफ बढ़ेगी। सऊदी अरब एक तरफ खाशोज्जी हत्याकांड के कारण विवादों से घिरा है, वहीं तेल की कीमतों और अपनी अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के प्रयासों में उसे एक के बाद एक झटके लग रहे हैं।


सऊदी अरब ही नहीं पेट्रोलियम-निर्यात पर आश्रित देशों के सामने एकबार फिर से संकट के बादल हैं। इनमें जर्मनी भी शामिल है। ओपेक देश इस हफ्ते 6 दिसम्बर को वियना में बैठकर विचार करने वाले हैं कि रणनीति क्या हो। इस हफ्ते ब्यूनस आयर्स में हुए जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में यह सबसे बड़ा मुद्दा था। ओपेक देशों और पेट्रोलियम उपभोक्ता देशों तरह के शासनाध्यक्ष-राष्ट्राध्यक्ष इस सम्मेलन में उपस्थित थे।

सऊदी अरब पर दबाव

कुछ महीने पहले तक बढ़ती कीमतों के दौर में ओपेक ने 2016 में उत्पादन के जो लक्ष्य निर्धारित किए थे, सऊदी अरब उनसे करीब 10 लाख बैरल प्रतिदिन ज्यादा उत्पादन कर रहा था। अब इतना उत्पादन कम करने से कीमतों में गिरावट शायद थम जाएगी, जिसपर डोनाल्ड ट्रम्प को भी आपत्ति नहीं होगी। पर उत्पादन में इससे भी ज्यादा कमी की गई, तो एक नया विवाद खड़ा होगा। डोनाल्ड ट्रम्प की दिलचस्पी मूलतः अमेरिकी तेल में है। हाल के वर्षों में अमेरिका ने शैल तेल (शेल-ऑयल) की तकनीक में महारत हासिल करके खनिज तेल का जो विकल्प तैयार किया है, उसमें उसे सफलता मिली है। इसकी वजह से दुनिया में तेल की कीमतें गिरी हैं और अमेरिका, जो तेल का आयात करता था, अब उसका निर्यात भी करने लगा है। यह पेट्रोलियम खास तरह की चट्टानों से निकाला जाता है यह परम्परागत क्रूड तेल (पेट्रोलियम) का विकल्प है। इसका उत्पादन अपेक्षाकृत महंगा है।

इस प्रकार के शैल (Shale) दुनिया में कई जगह पाए जाते हैं, पर अमेरिका में इनके बड़े भंडार हैं और अमेरिका ने इससे खनिज तेल बनाने की तकनीक में महारत हासिल कर ली है। वस्तुतः यह उसकी तकनीकी विजय है। टेक्सास के निकटवर्ती पर्मियन बेसिन में इन दिनों तेल की मारामार मची है। इतनी तेजी से यह उद्योग बढ़ रहा है कि पाइपलाइन कम पड़ रहीं हैं, कामगार नहीं मिल रहे हैं और सप्लाई पूरी नहीं हो पा रही है।

सन 1973 के बाद अब पहली बार ऐसा हुआ है कि अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा खनिज-तेल उत्पादक देश बन गया है। पिछले एक दशक में अमेरिकी तेल उत्पादन दुगना हो गया है। अमेरिकी इनर्जी इनफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन (ईआईए) के अनुसार इस साल फरवरी में उसका तेल उत्पादन सऊदी अरब के तेल उत्पादन से ज्यादा हो गया था। इस साल जून और अगस्त में सकल उत्पादन एक करोड़ 10 लाख बैरल प्रतिदिन हो गया। सन 2017 में यह उत्पादन 94 लाख बैरल प्रतिदिन था। इसमें शैल-तेल का उत्पादन भी शामिल है। ईआईए का अनुमान है कि 2019 में भी तेल उत्पादन में रूस और सऊदी अरब से अमेरिका आगे रहेगा।  

अमेरिका भी प्रतियोगिता में

तेल के इस कारोबार में अमेरिका और ओपेक की प्रतियोगिता पिछले चार साल से चल रही है। सन 2014 के उत्तरार्ध में अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिरने लगीं थीं। ओपेक ने हाथ से निकलते बाजार में बने रहने के लिए कीमतें गिरानी शुरू कर दीं। इससे अमेरिकी कम्पनियों को झटका लगा। बहुत सी कम्पनियाँ बंद हुईं और काफी लोग बेरोजगार हो गए। इसके कारण अमेरिकी तेल उत्पादन गिर गया। अमेरिकी तकनीकी प्रयास फिर भी जारी रहे। अमेरिकी शेल कम्पनियों ने फिर से अपने उत्पादन को बढ़ाना शुरू किया और 2016 में कीमतें फिर से बढ़ने लगीं। अमेरिका में तेल के निर्यात पर 40 साल से पाबंदी लगी हुई थी। यह पाबंदी हटाई गई। तेल के ग्राहक खोजे गए। दक्षिण अमेरिकी देशों और यूरोप के अलावा भारत और चीन के साथ भी समझौते हुए, जहाँ तेल की खपत लगातार बढ़ रही है।

अमेरिका ने हाल में भारत समेत आठ देशों को ईरानी तेल खरीदने से छूट दी है, पर वस्तुतः अमेरिका, सऊदी अरब और ईरान के रिश्तों में तेल का कारोबार एक महत्वपूर्ण कारक है। भारत ने भी अमेरिकी तेल खरीदा। ईरानी बंदिशों के अंदेशे में यह खरीद बढ़ाई। जून में भारत ने अमेरिका से 3,47,000 बैरल प्रतिदिन खरीद रहा था। तेल की कीमतों में वृद्धि के कारण भारत और चीन दोनों की अर्थव्यवस्थाओं को चोट पहुँच रही थी। अमेरिकी शैल-तेल के कारण उन्हें राहत मिली है। पर ऐसा भी नहीं कि सऊदी अरब और रूस का महत्व खत्म हो गया है।

शैल-तेल से अमेरिका की जरूरतें पूरी नहीं होती हैं। उसके दशकों पुराने तेल-शोधक संयंत्रों में अब भी ओपेक का खनिज तेल आ रहा है। अलबत्ता अब वह विदेशी तल पर कम आश्रित है। पर ओपेक रणनीति का प्रभाव अमेरिका पर भी पड़ेगा। दूसरी तरफ अमेरिका की सभी शेल-कम्पनियाँ फायदे में नहीं हैं। उनमें से काफी घाटे में हैं। उन्हें फायदे में लाने के लिए भी ट्रम्प प्रशासन प्रयास कर रहा है। उसे उम्मीद है कि इस साल यह उद्योग फायदे में आ जाएगा। यह जटिल काम है।

ओपेक की बैठक

ब्यूनस आयर्स की जी-20 बैठक के बाद अब 6 दिसम्बर की ओपेक बैठक का इंतजार है कि रणनीति क्या बन रही है। इस रणनीति का भारत जैसे देशों के लिए महत्व है। पिछले कुछ समय से हमारे यहाँ तेल की कीमतें बढ़ने का शोर नहीं है। वैश्विक तेल बाजार पर दबाव बनाने की कोशिश अमेरिका ने हमेशा की। अंतर्विरोधों के बावजूद पहले के मुकाबले आज वह बेहतर स्थिति में है। हालांकि उसका उत्पादन बढ़ा है, पर वह आयात भी करता है, पर उसे उम्मीद है कि 2020 में वह शुद्ध-निर्यातक बन जाएगा। क्या उसके बाद भी वह ओपेक पर कीमतें कम रखने का दबाव डालेगा? उसकी शेल-कम्पनियाँ भी नहीं चाहेंगी कि कीमतें बहुत ज्यादा गिरें।

तेल की कीमतों के साथ-साथ डॉलर की कीमत का मामला भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। हमारा ही नहीं सारी दुनिया का तेल-कारोबार आमतौर पर डॉलर में होता है। अमेरिका में ब्याज की दरें बढ़ने की उम्मीद से डॉलर की माँग बढ़ रही है और इस वक्त डॉलर अपने सबसे ऊँचे स्तर पर है। तेल की कीमतें गिरती जाएंगी, तो डॉलर की माँग भी कम होगी। अमेरिकी शेल-कम्पनियाँ भी अपने तेल की कीमत कम से कम इतनी रखना चाहेंगी, जिसमें उन्हें मुनाफा हो। इसलिए बाजार अभी एक जगह पर जाकर रुकेगा।

ब्यूनस आयर्स में ट्रम्प थे, व्लादिमीर पुतिन भी। चीन शी चिनफिंग थे और भारत के नरेंद्र मोदी भी। इनके साथ एमबीएस  के नाम से मशहूर सऊदी क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान की बातचीत वियना की वार्ता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए ब्यूनस आयर्स के हाशिए पर हुई बातचीत ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प इन दिनों वैश्वीकरण के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, पर व्यावहारिक अर्थ में अमेरिका केवल अपने हितों के संदर्भ में ही नहीं सोच सकता। अमेरिका ही नहीं, दुनिया के सभी देशों को किसी भी परिघटना के वैश्विक प्रभाव के बारे में सोचना पड़ेगा। बेहतर हो कि पेट्रोलियम के अधिकतम मूल्य-रेंज के बारे में बात करें।  

सितम्बर 2016 में चीन के हैंगजाऊ में व्लादिमीर पुतिन और सऊदी शाहजादे एमबीएस एक मुलाकात में उत्पादन घटाने का फैसला करके गिरती कीमतों को रोक लिया था। पर अब यह इतना आसान नहीं होगा। इधर पेट्रोल-डिप्लोमेसी के साथ खाशोज्जी की हत्या का प्रकरण भी एमबीएस के गले में पड़ा है। ट्रम्प के अनुसार सीआईए को कुछ जानकारियाँ मिली हैं, पर उसने कोई निष्कर्ष नहीं निकाला है। यानी कि शाहजादे को बचाने की अमेरिका कोशिश करता रहेगा। ट्रम्प को अपने देश के उपभोक्ताओं का भी ख्याल है। सस्ते पेट्रोलियम का असर टैक्स में कटौती जैसा होता है। भारत में चुनाव के पहले कीमतें कम हुईं है।

कारोबारी जंग

पेट्रोलियम की कीमतों से कम नहीं हैं अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध। ब्यूनस आयर्स में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग और डोनाल्ड ट्रम्प की मुलाकात भी हुई। असल बातें पता नहीं सामने आएंगी या नहीं, पर लगता नहीं कि दोनों देशों का कारोबारी –संग्राम निर्णायक मोड़ पर इतनी आसानी से पहुँचेगा। इस तरह की बातचीत से इतना जरूर होता है कि बाजार में घबराहट कम या ज्यादा हो जाती है। शेयर बाजारों में इसका असर दिखाई पड़ता है। ट्रम्प प्रशासन ने अबतक तीन दौर में चीनी माल पर टैक्स बढ़ाया है। चीन ने जवाब में 110 डॉलर के अमेरिकी माल पर ड्यूटी बढ़ाई है। ट्रम्प ने धमकी दी है कि विवादों का निपटारा नहीं हुआ, तो 500 अरब डॉलर से ज्यादा के चीनी माल पर ड्यूटी बढ़ा दी जाएगी। पर ट्रम्प की किसी बात पर फौरन भरोसा नहीं करना चाहिए। उन्होंने नवम्बर के पहले हफ्ते में राष्ट्रपति शी से एक फोन कॉल के बाद ट्वीट किया कि बात बढ़िया चल रही है। इतनी सी बात पर एशियाई कम्पनियों के शेयर उछल गए। इसके कुछ दिन बाद शी चिनफिंग ने वैश्वीकरण के संदर्भ में कहा कि हम चीनी बाजार दुनिया के लिए खोलेंगे। पर उन्होंने अमेरिका को छूट देने की कोई बात नहीं कही।

इधर 17 नवम्बर को पापुआ न्यू गिनी में हुए एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपेक) शिखर-सम्मेलन में दोनों देशों के बीच फिर कहासुनी हुई। वहाँ शी चिनफिंग ने कहा कि व्यापारिक-जंग से किसी को फायदा नहीं है। पर उन्होंने ट्रम्प की अमेरिका फर्स्ट पॉलिसी पर तंज कसते हुए कहा कि हम अहंकारी व संरक्षणवादी एजेंडा की निंदा करते हैं। इस सम्मेलन में ट्रम्प की जगह उपराष्ट्रपति माइक पेंस आए थे। उन्होंने जवाब में चीन को चेतावनी के अंदाज में कहा, एशिया का सुपर-पावर अगर अनुचित व्यापार प्रथा खत्म नहीं करेगा तो उसपर फिर प्रतिबंध लगेंगे। पेंस का लहजा काफी आक्रामक था। उन्होंने कहा, चीन ने हमसे वर्षों तक लाभ उठाया है, लेकिन वे दिन अब बीत गए हैं। हम चीनी माल पर अब दुगनी ड्यूटी लगाने को तैयार हैं।

भारत और चीन

इन अंतर्विरोधों का भारत के लिए क्या संदेश है? अमेरिकी दबाव से घबराकर चीन ने भारत से रिश्ते सुधारने शुरू किए हैं। दिल्ली में चीनी दूतावास के एक प्रवक्ता ने अक्तूबर में कहा था, चीन और भारत को व्यापारिक संरक्षणवाद से मुकाबले के लिए सहयोग करना चाहिए। चीन के साथ हमारे भी व्यापारिक-विवाद हैं। दोनों के बीच का व्यापार चीन के पक्ष में झुका है। पर लगता है कि अमेरिका के साथ रिश्ते खराब होने पर चीन ने हमारी तरफ ध्यान दिया है। अप्रैल में वुहान में हुए शिखर सम्मेलन के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में बदलाव आया है। भारत लम्बे अरसे से माँग कर रहा था कि भारतीय दवाओं के लिए चीन अपना बाजार खोले। इस साल मई में चीन ने कैंसर की दवाओं सहित कुल 28 दवाओं पर लगने वाली इम्पोर्ट ड्यूटी को हटा दिया है। इससे भारतीय दवा कंपनियों को फायदा होगा।

दोनों देश सीमा-विवादों को सुलझाने की दिशा में भी काम कर रहे हैं। पिछले हफ्ते शनिवार 24 नवम्बर को चीनी विदेशमंत्री वांग यी के साथ सीमा वार्ता के 21वें दौर में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल शामिल हुए। वुहान में नरेन्द्र मोदी और शी चिनफिंग के बीच पहली ‘अनौपचारिक शिखर बैठक’ के बाद दोनों देशों ने व्यापार अधिकारियों के बीच संवाद शुरू हुआ है। इसके बाद से भारत से चीन को चावल, चीनी और दवाओं के निर्यात में प्रगति हुई है। ब्यूनस आयर्स में हाशिए पर नरेंद्र मोदी और शी चिनफिंग की मुलाकात भी हुई है।

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