शनिवार, 22 दिसंबर 2018

क़तर ने ओपेक का दामन छोड़ा


तेल कीमतों के साथ तेल-उत्पादन की राजनीति में भी बदलाव नजर आ रहा है। एक तरफ ओपेक के साथ रूस के रिश्ते बन रहे हैं, वहीं पश्चिम एशिया की राजनीति के अंतर्विरोध ओपेक में भी नजर आने लगे हैं। रूस की भूमिका बढ़ने के साथ-साथ ओपेक के छोटे सदस्य देशों को लगता है कि उनकी आवाज दबने लगी है। दिसम्बर को पहले हफ्ते में जब वियना में ओपेक की बैठक होने वाली थी, उसके पहले क़तर के ऊर्जा मंत्री साद अल-काबी ने घोषणा की कि आगामी जनवरी में क़तर ओपेक को छोड़ देगा। उन्होंने कहा कि इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं है। क़तर प्राकृतिक गैस की ओर अधिक ध्यान देना चाहता है। क़तर की अर्थव्यवस्था में तेल से ज्यादा गैस का महत्व है। इतनी ही नहीं रविवार 9 दिसम्बर को सऊदी अरब में हुई खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) की शिखर-बैठक में भी क़तर शामिल नहीं हुआ।

पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि इस अलहदगी के कारण स्पष्ट हैं। सऊदी अरब के साथ क़तर के रिश्तों में आया बिगाड़ इसके पीछे बड़ा कारण है। एक साल से ज्यादा लम्बे अरसे से सऊदी अरब ने क़तर की आर्थिक और डिप्लोमैटिक-नाकेबंदी कर रखी है। क़तर को लगता है कि ओपेक में सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी देशों की भूमिका बहुत ज्यादा है। ओपेक ने क़तर के अलग होने के फ़ैसले पर अपने आधिकारिक बयान में कहा कि यह संगठन को राजनीतिक तौर पर कमज़ोर करने की कोशिश है। क़तर और सऊदी अरब दोनों के रिश्ते अमेरिका के साथ अच्छे हैं। यह भी सच है कि सऊदी नाकेबंदी के बावजूद इन्हीं रिश्तों के कारण क़तर ने खुद को बचा रखा है। खाशोज्जी-हत्याकांड और अब तेल-उत्पादन में गिरावट के कारण अमेरिकी प्रशासन का एक तबका सऊदी सरकार से नाराज है। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प के व्यक्तिगत रूप से सऊदी शाही परिवार से रिश्ते अच्छे हैं, पर कहना मुश्किल है कि घटनाक्रम किस तरफ जाएगा। 


सन 1960 में ओपेक की स्थापना के साथ तेल के बाजार में दुनिया की सात बड़ी बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनियों का वर्चस्व टूटा था और इस संगठन के पाँच संस्थापक देशों की भूमिका बढ़ी थी। धीरे-धीरे इसके सदस्य देशों की संख्या 15 हो गई। क़तर के हट जाने के बाद यह संख्या 14 हो जाएगी। इसके पहले 2009 में इंडोनेशिया इस संगठन से हटा था, पर उसका कारण यह था कि वह तेल निर्यातक देश नहीं रहा था, बल्कि आयात करने लगा था। दुनिया का करीब 44 फीसदी तेल-उत्पादन इन देशों में होता है और करीब 81 फीसदी तेल-भंडार इन्हीं देशों में है। ओपेक की स्थापना के बाद से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इस संगठन की भूमिका महत्वपूर्ण होती चली गई। ओपेक अपने सदस्य देशों के लिए तेल उत्पादन के टार्गेट तय करता है, जिसके कारण कीमतें इतनी रहती हैं कि इसके सदस्य देशों के हित सुरक्षित रहें। अब एक तरफ अमेरिका तेल के बड़े उत्पादक देश के रूप में सामने आ रहा है और दूसरी तरफ रूस। ओपेक को इन दोनों के बीच की राजनीति के बीच संतुलन बैठाना होगा। क़तर का हटना तेल उत्पादन को प्रभावित नहीं करेगा, पर भविष्य की तेल-राजनीति को प्रभावित जरूर करेगा। 




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