दिसम्बर के पहले सप्ताह में ओपेक और उसके सहयोगी देशों के बीच हर रोज 12
लाख बैरल उत्पादन कम करने पर अंततः सहमति हो गई और इसके बाद तेल की कीमतों में
गिरावट रुक गई है। शुक्रवार 7 दिसम्बर
को इस समझौते की घोषणा हुई और उसी रोज तेल के वैश्विक बेंचमार्क ब्रेंट खनिज तेल
की कीमतें 5.2 फीसदी बढ़कर 63.11 डॉलर प्रति बैरल हो गईं। ओपेक बैठक में यह फैसला
होने के पहले गुरुवार की शाम और शुक्रवार की सुबह तक कीमतों में गिरावट का रुख था।
पिछले अक्तूबर से अबतक वैश्विक तेल बाजार में कीमतों में 30 फीसदी की गिरावट आ
चुकी है। गुरुवार की शाम तक नहीं लग रहा था कि उत्पादन कम करने पर सहमति हो पाएगी।
इन गिरती कीमतों को थामने और फिर उन्हें बढ़ाने की कोशिशों में दो रुकावटें
थीं। एक तो यह माना जा रहा था कि रूस बहुत कम कटौती करेगा। दूसरी रुकावट ईरान की
तरफ से थी। ईरान अपना उत्पादन कम करने को तैयार नहीं था। अमेरिकी पाबंदियों के कारण
वह पहले से संकट में है। तेल का उत्पादन कम करने से उसकी अर्थव्यवस्था बिगड़ने का
अंदेशा है। अब ओपेक सदस्य देशों ने जो डील किया है, उसके अनुसार ईरान अपना तेल
उत्पादन कम नहीं करेगा। ईरान के अलावा ओपेक ने लीबिया, नाइजीरिया और वेनेजुएला को
भी छूट दी है। तेल उत्पादन में कटौती करने से इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी संकट
में आ जाएंगी। जनवरी के महीने से ओपेक देश अक्तूबर के उत्पादन के बरक्स आठ लाख
बैरल का उत्पादन कम करेंगे और गैर-ओपेक देश चार लाख बैरल का। इस फैसले की समीक्षा
अप्रैल में की जाएगी।
तेल भंडार फिर भी बढ़ेगा?
बाजार पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षकों का कहना है कि ओपेक के इस फैसले के
बावजूद तेल के वैश्विक स्टॉक में वृद्धि होती रहेगी। इससे फिलहाल वह असंतुलन कम होगा, जो पैदा हो
गया था। देखना होगा कि अमेरिका इस फैसले पर क्या कदम उठाता है, क्योंकि राष्ट्रपति
डोनाल्ड ट्रम्प ने उत्पादन कम न करने की हिदायत दी थी। इस संदर्भ में जब सऊदी अरब
के खालिद-अल-फलीह से पूछा गया कि इस फैसले से आपके देश के अमेरिका के साथ रिश्ते
खराब तो नहीं होंगे, उन्होंने कहा यदि वैश्विक तेल की सप्लाई में कमी आएगी, तो हम
उत्पादन बढ़ा देंगे। हम तेल उत्पादकों से उतनी कीमत वसूल नहीं करेंगे कि वे दे न
पाएं। उन्होंने यह भी कहा कि हाल में अमेरिका तेल का सबसे बड़ा सप्लायर बन गया है।
इस फैसले से उसकी कम्पनियाँ भी राहत की साँस लेंगी।
पहले तेल उत्पादन में 10 लाख बैरल की कटौती की बाती थी। अब जो फैसला हुआ
है, उसमें पूर्व निर्धारित दस लाख के मुकाबले दो लाख बैरल ज्यादा की कटौती की जा
रही है। हालांकि नवम्बर के आखिरी हफ्ते में अमेरिकी तेल भंडार में 73 लाख बैरल की
कमी आई थी, जिसके कारण वैश्विक तेल-भंडार में लगातार तेजी से हो रही वृद्धि थमी। बावजूद
इस कमी के तेल की कीमतों में गिरावट थम नहीं रही थी। अब देखना होगा कि दाम बढ़े,
तो कहाँ तक जाएंगे।
रूस का महत्व बढ़ा
इस खेल में रूस के शामिल होने का निहितार्थ भी समझना होगा। यह भी कि सऊदी
अरब और अमेरिका के रिश्ते किस रास्ते पर जाएंगे। तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के निर्धारण में रूस की
भूमिका भी बढ़ रही है। अभी तक ओपेक देश अमेरिकी दबाव में काम कर रहे थे। रूस और
दूसरे तेल उत्पादक देश उनके साथ नहीं आते, तो वे उत्पादन कम करके कीमतों की गिरावट
रोक नहीं सकते थे। यानी तेल के बाजार की राजनीतिक ताकत में रूस की हिस्सेदारी भी
बढ़ी है। तेल में ही नहीं रूस ने सऊदी अरब के साथ हथियारों की बिक्री के समझौते भी
किए हैं। क्या अमेरिका को यह बात अच्छी लगेगी?
सऊदी अरब को पश्चिम एशिया में अमेरिका का पिट्ठू देश माना जाता है। तेल की
कीमतों के मामले में क्या वह अमेरिकी हितों के खिलाफ जा सकता है? तेल की कीमतों में
उतार-चढ़ाव काफी हद तक अमेरिकी नीतियों के कारण भी आता है। वर्तमान संकट ईरान पर
लगी पाबंदियों और फिर उन पाबंदियों पर छूट देने की घोषणाओं के कारण पैदा हुआ है। सवाल
है कि अमेरिकी नीतियों की यह ऊँच-नीच कब तक चलेगी?
अमेरिकी
दुविधा
पश्चिम एशिया की
राजनीतिक के अंतर्विरोध भी इसमें बाधा बनेंगे। क्या अमेरिका इन अंतर्विरोधों को
सुलझा पाएगा? भारत और
चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की दिलचस्पी भी इन पहेलियों को सुलझाने में है,
क्योंकि इस बड़े तेल खरीदार ये दो देश ही हैं। उधर सऊदी अरब तेल के कारोबार के
विकल्प खोज रहा है, जिसके लिए उसके क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने विज़न-2030 तैयार किया है। पर प्रिंस
खुद खाशोज्जी की हत्या के प्रकरण में विवाद का विषय बन गए हैं। अमेरिका की संसद और
खुफिया एजेंसी सीआईए उनकी तरफ उंगलियाँ उठा रही है, पर राष्ट्रपति ट्रम्प मुँह
फेरे बैठे हैं। सवाल है कि कब तक?
संडे नवजीवन में प्रकाशित
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