शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी वापसी के मायने




अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अपने हजारों सैनिकों को वापस बुलाने की योजना बनाई है। अमेरिकी मीडिया ने अधिकारियों के हवाले से रिपोर्टों में बताया है कि महीने भर में 7,000 सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से वापस चले जाएंगे। वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार जल्द ही ह्वाइट हाउस के चीफ ऑफ स्टाफ का पद छोड़ने जा रहे जॉन केली और ह्वाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन सहित ट्रम्प के वरिष्ठ कैबिनेट अधिकारियों के विरोध के बावजूद इस पर विचार किया जा रहा है। इसके एक दिन पहले ट्रम्प ने सीरिया से सैनिकों को हटाने की घोषणा की थी। उनके इस फैसले से असहमत रक्षामंत्री जेम्स मैटिस और एक अन्य उच्च अधिकारी ब्रेट मैकगर्क ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इधर शनिवार 29 दिसम्बर को ह्वाइट हाउस ने कहा है कि राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के बाबत कोई फैसला नहीं किया है। 

भारतीय नज़रिए से महत्वपूर्ण हैं बांग्लादेश के चुनाव


http://epaper.navjivanindia.com//index.php?mod=1&pgnum=12&edcode=71&pagedate=2018-12-30&type=
इस साल नेपाल, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव में हुए चुनावों के बाद इस हफ्ते बांग्लादेश की संसद के चुनाव होने जा रहे हैं। मतदाता 30 दिसम्बर को 350 सदस्यों वाली 11वीं संसद के सदस्यों को चुनेंगे। इन सदस्यों में से 300 सीधे फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की पद्धति से चुने जाएंगे। 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, जिनका चुनाव पार्टियों को प्राप्त वोटों के अनुपात में किया जाएगा। बांग्लादेश हमारे उन पड़ोसी देशों में से एक है, जिनके साथ हमारे रिश्ते पिछले एक दशक से अच्छे चल रहे हैं। इसकी बड़ी वजह शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार है।

अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। दूसरी तरफ भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। इस वजह से दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

बांग्लादेश में संसदीय चुनाव


पड़ोसी देशों की राजनीति भारत के साथ उनके रिश्तों को काफी प्रभावित करती है। इस साल नेपाल, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव के चुनावों के बाद इस हफ्ते बांग्लादेश की संसद के चुनाव होने जा रहे हैं। बांग्लादेश हमारे उन पड़ोसी देशों में से एक है, जिनके साथ हमारे रिश्ते पिछले एक दशक से अच्छे चल रहे हैं। इसकी बड़ी वजह शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार है। शेख हसीना को अपने देश में कट्टरपंथी समूहों का सामना करना पड़ता है, जो स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान-परस्त भी हैं। इसलिए भारत के साथ उनके हित जुड़ते हैं। इस वजह से उनपर भारत के पिट्ठू होने का आरोप भी लगता है।

अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। दूसरी तरफ भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। इस वजह से दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे।

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

ओपेक ने तेल में गिरावट रोकी, पर कब तक?

दिसम्बर के पहले सप्ताह में ओपेक और उसके सहयोगी देशों के बीच हर रोज 12 लाख बैरल उत्पादन कम करने पर अंततः सहमति हो गई और इसके बाद तेल की कीमतों में गिरावट रुक गई है। शुक्रवार 7 दिसम्बर को इस समझौते की घोषणा हुई और उसी रोज तेल के वैश्विक बेंचमार्क ब्रेंट खनिज तेल की कीमतें 5.2 फीसदी बढ़कर 63.11 डॉलर प्रति बैरल हो गईं। ओपेक बैठक में यह फैसला होने के पहले गुरुवार की शाम और शुक्रवार की सुबह तक कीमतों में गिरावट का रुख था। पिछले अक्तूबर से अबतक वैश्विक तेल बाजार में कीमतों में 30 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। गुरुवार की शाम तक नहीं लग रहा था कि उत्पादन कम करने पर सहमति हो पाएगी।

इन गिरती कीमतों को थामने और फिर उन्हें बढ़ाने की कोशिशों में दो रुकावटें थीं। एक तो यह माना जा रहा था कि रूस बहुत कम कटौती करेगा। दूसरी रुकावट ईरान की तरफ से थी। ईरान अपना उत्पादन कम करने को तैयार नहीं था। अमेरिकी पाबंदियों के कारण वह पहले से संकट में है। तेल का उत्पादन कम करने से उसकी अर्थव्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा है। अब ओपेक सदस्य देशों ने जो डील किया है, उसके अनुसार ईरान अपना तेल उत्पादन कम नहीं करेगा। ईरान के अलावा ओपेक ने लीबिया, नाइजीरिया और वेनेजुएला को भी छूट दी है। तेल उत्पादन में कटौती करने से इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी संकट में आ जाएंगी। जनवरी के महीने से ओपेक देश अक्तूबर के उत्पादन के बरक्स आठ लाख बैरल का उत्पादन कम करेंगे और गैर-ओपेक देश चार लाख बैरल का। इस फैसले की समीक्षा अप्रैल में की जाएगी।

क़तर ने ओपेक का दामन छोड़ा


तेल कीमतों के साथ तेल-उत्पादन की राजनीति में भी बदलाव नजर आ रहा है। एक तरफ ओपेक के साथ रूस के रिश्ते बन रहे हैं, वहीं पश्चिम एशिया की राजनीति के अंतर्विरोध ओपेक में भी नजर आने लगे हैं। रूस की भूमिका बढ़ने के साथ-साथ ओपेक के छोटे सदस्य देशों को लगता है कि उनकी आवाज दबने लगी है। दिसम्बर को पहले हफ्ते में जब वियना में ओपेक की बैठक होने वाली थी, उसके पहले क़तर के ऊर्जा मंत्री साद अल-काबी ने घोषणा की कि आगामी जनवरी में क़तर ओपेक को छोड़ देगा। उन्होंने कहा कि इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं है। क़तर प्राकृतिक गैस की ओर अधिक ध्यान देना चाहता है। क़तर की अर्थव्यवस्था में तेल से ज्यादा गैस का महत्व है। इतनी ही नहीं रविवार 9 दिसम्बर को सऊदी अरब में हुई खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) की शिखर-बैठक में भी क़तर शामिल नहीं हुआ।

पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि इस अलहदगी के कारण स्पष्ट हैं। सऊदी अरब के साथ क़तर के रिश्तों में आया बिगाड़ इसके पीछे बड़ा कारण है। एक साल से ज्यादा लम्बे अरसे से सऊदी अरब ने क़तर की आर्थिक और डिप्लोमैटिक-नाकेबंदी कर रखी है। क़तर को लगता है कि ओपेक में सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी देशों की भूमिका बहुत ज्यादा है। ओपेक ने क़तर के अलग होने के फ़ैसले पर अपने आधिकारिक बयान में कहा कि यह संगठन को राजनीतिक तौर पर कमज़ोर करने की कोशिश है। क़तर और सऊदी अरब दोनों के रिश्ते अमेरिका के साथ अच्छे हैं। यह भी सच है कि सऊदी नाकेबंदी के बावजूद इन्हीं रिश्तों के कारण क़तर ने खुद को बचा रखा है। खाशोज्जी-हत्याकांड और अब तेल-उत्पादन में गिरावट के कारण अमेरिकी प्रशासन का एक तबका सऊदी सरकार से नाराज है। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प के व्यक्तिगत रूप से सऊदी शाही परिवार से रिश्ते अच्छे हैं, पर कहना मुश्किल है कि घटनाक्रम किस तरफ जाएगा। 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

यूरोप में फैला फ्रांस से निकला ‘पीली कुर्ती’ आंदोलन


तकरीबन एक महीने से फ्रांसीसी जनता बगावत पर उतारू है। पिछले 17 नवम्बर से राजधानी पेरिस सहित देश के शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। इसमें 1500 से ऊपर गिरफ्तारियाँ हुईं हैं। कम से कम तीन मौतों की खबरें भी है। आंदोलनकारी जगह-जगह यातायात रोक रहे हैं। उन्होंने पुलिस पर हमले किए हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया है। इस आंदोलन की शुरुआत इको टैक्स यानी पर्यावरण संरक्षण के लिए एक नए टैक्स के विरोध में हुई थी, पर इसने प्रशासन और अर्थव्यवस्था के प्रति एक व्यापक असहमति का रूप ले लिया है। केवल टैक्स इसका कारण होता तो यह आंदोलन टैक्स वापसी के बाद खत्म हो जाना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं है।

चीन-अमेरिका कारोबारी-जंग में फौरी विराम



ब्यूनस आयर्स में हुआ जी-20 शिखर सम्मेलन भविष्य के लिए कुछ महत्वपूर्ण छोड़कर गया है। सम्मेलन के हाशिए पर हुई वार्ताओं के कारण अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध में फिलहाल कुछ समय के लिए विराम लगा है। दूसरी तरह अमेरिका वैश्वीकरण के रास्ते को छोड़कर अपने राष्ट्रीय हितों की ओर उन्मुख हुआ है। उसकी दिलचस्पी पर्यावरण संरक्षण, शरणार्थियों तथा रोजगार की तलाश में प्रवास पर निकलने वालों को अपने यहाँ जगह देने में नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का इस्तेमाल वह अपने लिए करने पर जोर दे रहा है।

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

खाड़ी-देशों से सुधर रहे हैं इस्रायल के रिश्ते


इस्रायल के चैनल-2 ने खबर दी है कि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने बहरीन के साथ राजनयिक रिश्ते स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्होंने यह बात कनाडा के राष्ट्रपति इदरीस डैबी की यरूशलम यात्रा के दौरान कही। एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा, हमने पाया है कि कुछ अरब देशों का इस्रायल के बारे में विचार बदल रहा है। नेतन्याहू अचानक 25 अक्तूबर को ओमान के दौरे पर गए और वहाँ उन्होंने राजधानी मस्कट के पास के शहर सीब के शाही महल में सुल्तान सैयद कबूस से मुलाकात की। पिछले 22 साल में किसी इस्रायली शासनाध्यक्ष का अरब देश में यह पहला दौरा था।

इस्रायल के केवल दो अरब देशों के साथ राजनयिक सम्बंध हैं। ये हैं मिस्र और जॉर्डन। अब नेतन्याहू ने इशारा किया है कि उनके रिश्ते खाड़ी के देशों के साथ सुधर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मैं कुछ और अरब देशों में जाऊँगा। जल्द ही बहरीन जाने वाला हूँ। इतना ही नहीं बहरीन ने इस्रायल के वित्तमंत्री एली कोहेन को अप्रैल में होने वाले एक सम्मेलन में शामिल होने का निमंत्रण दिया है। तीन दिन का यह सम्मेलन विश्व बैंक ने आयोजित किया है। बहरीन के साथ इस्रायल के राजनयिक सम्बंध स्थापित करने पर बात भी चल रही है।

अक्तूबर में नेतन्याहू के ओमान दौरे के कुछ दिन बाद नवम्बर में इस्रायली परिवहन और इंटेलिजेंस मंत्री यिसरायल काट्ज ने ओमान में एक परिवहन सम्मेलन में शिरकत की। पिछले कुछ दिनों में इस्रायल की तरफ से और कुछ अरब देशों की तरफ से लगातार ऐसे संकेत मिल रहे हैं, जिनसे लगता है कि इनके रिश्ते सुधरने जा रहे हैं। ओमान के साथ इस्रायल के राजनयिक रिश्ते नहीं हैं, पर नेतन्याहू का वहाँ जाना बता रहा है कि इस यात्रा के पीछे पहले से अंदरूनी तौर पर विचार-विमर्श किया गया है। ओमान इस इलाके में प्रभावशाली देश है। लगता है कि पृष्ठभूमि में कुछ चल रहा है।

रविवार, 2 दिसंबर 2018

पेट्रोलियम की गिरती कीमतें और वैश्विक-संवाद


यूरोप में ब्रेक्जिट-विमर्श अपने अंतिम दौर में है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध अब दूसरे दौर में प्रवेश करना चाहता है। भारत जैसे विकासशील देश इंतजार में कि उन्हें किस तरह से इसका लाभ मिले। इधर पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट का रुख अब भी जारी है। हर हफ्ते पाँच से सात फीसदी कीमतें कम हो रहीं है। पिछले साल अक्तूबर से अबतक कीमतें करीब एक तिहाई गिर चुकी हैं। पिछले हफ्ते अमेरिकी बेंचमार्क वेस्ट टेक्सास मध्यावधि वादा बाजार में रेट 50.42 डॉलर हो गए थे। तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक उत्पादन घटा रहा है और अमेरिका बढ़ा रहा है। ओपेक की कोशिश है कि कीमतें इतनी न गिर जाएं कि संभालना मुश्किल हो जाए।

सऊदी अरब पर अमेरिकी दबाव है कि कीमतों को बढ़ने न दिया जाए। दूसरी तरफ वह रूस के साथ मिलकर कीमतों को गिरने से रोकना चाहता है। अंदेशा इस बात का है कि पेट्रोलियम की माँग घटेगी। यानी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था फिर से मंदी तरफ बढ़ेगी। सऊदी अरब एक तरफ खाशोज्जी हत्याकांड के कारण विवादों से घिरा है, वहीं तेल की कीमतों और अपनी अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के प्रयासों में उसे एक के बाद एक झटके लग रहे हैं।

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

ब्रेक्जिट का अंतिम दौर, इधर कुआँ, उधर खाई


यूरोपीय संघ के सदस्यों ने रविवार 25 नवम्बर को ब्रेक्जिट समझौते को मंजूरी दे दी। करीब 20 महीने के विचार-विमर्श के बाद हुए इस समझौते को ईयू के 27 नेताओं ने इस संक्षिप्त बैठक में स्वीकार कर लिया। बेशक यह समझौता ईयू ने स्वीकार कर लिया है, पर ब्रिटिश संसद से इसकी पुष्टि अब सबसे बड़ा काम है। युनाइटेड किंगडम की संसद इस प्रस्ताव पर 5 दिसम्बर से विचार-विमर्श शुरू करेगी और 11 को वोट से फैसला करेगी। लेबर, लिबरल-डेमोक्रेटिक, स्कॉटिश नेशनल पार्टी (एसएनपी), डेमोक्रेटिक यूनियनिस्ट पार्टी (डीयूपी) और टेरेसा में की अपनी कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों ने पहले से घोषणा कर दी है कि हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

कंजर्वेटिव पार्टी के ऐसे सांसदों की संख्या ही 70-80 बताई जा रहा है। इनमें से काफी ऐसे हैं, जो टेरेसा में को प्रधानमंत्री पद से हटाना चाहते हैं। ऐसा है तो यह प्रस्ताव संसद से पास नहीं हो पाएगा। उधर ईयू के नेताओं ने आगाह कर दिया है कि यदि इसे संसद स्वीकार नहीं करेगी, तो हम किसी नए समझौते की पेशकश नहीं करेंगे। टेरेसा में ने भी कहा है कि कोई दूसरा समझौता नहीं। हालत यह है ईयू छोड़ने का समर्थन करने वाले भी नाराज हैं और जो ईयू में रहना चाहते हैं, उन्हें लग रहा है कि आखिरकार यह प्रस्ताव संसद से खारिज होगा, जो ब्रेक्जिट भी अंततः खारिज हो जाएगा। कुछ को लगता है कि बगैर समझौते के हटना अच्छा है, क्योंकि न तो पैसा देना पड़ेगा और न कोई जिम्मेदारी होगी। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि उस स्थिति में जो अराजकता पैदा होगी, उसके आर्थिक निहितार्थ हैं।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...