पुलवामा कांड के बाद से पाकिस्तान पर अपने उन कट्टरपंथी संगठनों के
खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव है, जो संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधित संगठनों की
सूची में शामिल हैं। पिछले महीने फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की बैठक
में भी पाकिस्तान से कहा गया था कि वह जल्द से जल्द कार्रवाई करे, वरना उसका नाम
काली सूची में डाल दिया जाएगा। इन दबावों के कारण सोमवार 4 मार्च को पाकिस्तान
सरकार ने उन सभी संगठनों की सम्पत्ति पर कब्जा करने की घोषणा की है, जिनके नाम
संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंध सूची में हैं। इसके बाद भारत ने संकेत दिए हैं कि इन
कदमों के मद्देनज़र हम फौजी कार्रवाई के इरादे को त्याग रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (प्रतिबंध और ज़ब्ती) आदेश, 2019
पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अधिनियम, 1948 के तहत है। इन संगठनों
से जुड़े सभी धर्मादा (दातव्य) संगठनों की सम्पदा भी सरकारी कब्जे में चली जाएगी। जैश
के चीफ मसूद अज़हर पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं, अभी यह स्पष्ट नहीं है। इसकी वजह
यह है कि संरा सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध परिषद के प्रस्ताव 1267 में उनका नाम
नहीं है। पाकिस्तान के विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने इस आदेश की जानकारी
पत्रकारों को देते हुए बताया कि यह आदेश संरा सुरक्षा परिषद और पेरिस स्थित
एफएटीएफ के निर्देशों के अनुरूप है।
जैश और आतंकवाद की निन्दा
गत 21 फरवरी को सुरक्षा परिषद ने अपने
प्रस्ताव में जैशे-मोहम्मद का नाम लेते हुए पुलवामा कांड की निन्दा की थी। सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी एवं 10 अस्थायी
सदस्यों ने सर्वसम्मति से इसे पास किया था। चीन ने इसकी भाषा को लेकर आपत्ति जताई
थी, पर उसे सफलता नहीं मिली। शायद वैश्विक नाराजगी के दबाव में चीन ने वीटो का
इस्तेमाल भी नहीं किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके पहले सुरक्षा परिषद ने
कश्मीरी आतंकवाद पर कभी कोई कड़ा बयान जारी नहीं किया।
संयुक्त राष्ट्र के पास आतंकवाद की कोई परिभाषा
नहीं है। और पाकिस्तान कश्मीरी हिंसा को स्वतंत्रता आंदोलन की संज्ञा देता है। इस
लिहाज से यह प्रस्ताव ऐतिहासिक है। दूसरी तरफ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा
परिषद में फिर से प्रस्ताव रखा है कि जैशे-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अज़हर को प्रस्ताव
1267 के अंतर्गत वैश्विक आतंकवादी घोषित किया जाए। परिषद की प्रतिबंध समिति इसपर
विचार कर रही है और सम्भवतः 13 मार्च को इसपर फैसला हो जाएगा। हालांकि चीन को लेकर
कई प्रकार के संदेह हैं, पर खबरें हैं कि शायद पाकिस्तान भी इस प्रस्ताव का विरोध
नहीं करेगा।
नेशनल एक्शन प्लान
दिसम्बर, 2015 में पेशावर के आर्मी पब्लिक
स्कूल पर हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान सरकार ने नेशनल एक्शन प्लान (एनएपी) के
नाम से एक कार्य योजना तैयार की थी। इसका उद्देश्य देश के पूर्वोत्तर में चल रही
आतंकी गतिविधियों पर काबू पाने के लिए समन्वित प्रयास करना है। इसके तहत देश-विदेश
में उपलब्ध सभी साधनों का इस्तेमाल करते हुए आतंकी गतिविधियों को रोका जाए। इस
सिलसिले में देश की संसद ने 21वाँ संविधान संशोधन भी किया था, जिसके तहत आतंकवाद
से जुड़े मामलों की सुनवाई का अधिकार वहाँ की फौजी अदालतों को दे दिया गया, ताकि
फैसला जल्दी हो सके।
इसी अधिकार के तहत भारत के कुलभूषण जाधव पर भी
मुकदमा फौजी अदालत में चलाया गया था। इस कानून को लेकर पाकिस्तान में प्रतिरोधी
स्वर भी उठे थे, पर देश की सर्वोच्च अदालत ने इसे संविधान सम्मत बताया था। बहरहाल
सोमवार 4 मार्च को पाकिस्तान के गृह मंत्रालय ने एनएपी को कड़ाई से लागू करने के
बारे में उच्चस्तरीय बैठक की। सरकार ने सभी सूबाई सरकारों से कहा है कि वे
प्रतिबंधित संगठनों के खिलाफ कार्रवाई में तेजी को सुनिश्चित करें।
बार-बार पाबंदियाँ?
देश के सूचना मंत्री फवद चौधरी ने भी इस सिलसिले में पत्रकारों को
जानकारी दी, पर कहा कि यह सब कितने समय में पूरा होगा, हम नहीं कह सकते। अब
कार्रवाई सेना करेगी। राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने अपनी 21 मार्च की बैठक में तय
किया था कि प्रतिबंधित संगठनों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी और जमात-उद-दावा तथा
फलाह-अ-इंसानियत (दोनों हाफिज सईद के लश्कर से जुड़े संगठन हैं) पर फिर से पाबंदी
लगाई जाएगी। पिछले दशक में इनपर कई बार पाबंदियाँ लगीं और खत्म हुईं हैं। लश्कर पर
सबसे पहले 2005 में पाबंदी लगाई गई थी। पाकिस्तानी हुक्मरां अनौपचारिक रूप से यह
भी जताते चलते हैं कि यह कार्रवाई भारत के दबाव में नहीं हो रही है। इसबार भी उनका
यही कहना है कि यह सब एफएटीएफ की काली सूची से बचने के लिए किया जा रहा है।
पाकिस्तान सरकार के इस कदम पर भारत में पहले से चिंता व्यक्त की जा
रही है। भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि ये संगठन कभी इस सूची में होते हैं
और कभी नहीं होते, पर व्यवहार में ये खुले आम सक्रिय रहते हैं। सरकारी मंत्री
हाफिज सईद के साथ फोटो खिंचाने में गर्व महसूस करते हैं। एक तरफ पाकिस्तानी मीडिया
की ये खबरें हैं, पर प्रतिबंधित संगठनों की 4 मार्च की अपडेटेड सूची में
जमात-उद-दावा और उसके सहयोगी संगठन का नाम प्रतिबंधित संगठनों के बजाय उन चार
संगठनों की सूची में था, जिनपर नजर रखी जाएगी। शायद मीडिया में यह बात उछलने पर 5
मार्च को इस सूची में बदलाव करके इन दोनों के नाम 69 और 70वें स्थान पर रख दिए गए।
पाकिस्तान सरकार ने लश्करे तैयबा पर प्रतिबंध लगाते हुए ऐसा ही एक
अध्यादेश फरवरी 2018 में जारी किया था, जिसे छह महीने बाद लैप्स होने दिया गया। अब
फिर से दबाव बना है, जिसके कारण इन संगठनों को फिर से इस सूची में दर्ज कर दिया
गया है। जिन संगठनों को अब वॉच लिस्ट में रखा गया है, उनका नाम जनवरी 2017 में भी
वॉच लिस्ट में था। हाल में 21 फरवरी को जब एफएटीएफ की बैठक पेरिस में चल रही थी, पाक
सरकार ने कहा कि जमात-उद-दावा और फलाह-ए-इंसानियत को बैन कर दिया गया है। उसके दो
हफ्ते बाद अब इन संगठनों को फिर से बैन करने की घोषणा की गई है। किसी स्तर पर
असमंजस जरूर लगता है। पाकिस्तानी अख़बार डेली टाइम्स ने 24 फरवरी को खबर दी कि इन
दोनों संगठनों ने अपने नाम बदल दिए हैं। अब इनके नाम हैं अल मदीना और ऐसार
फाउंडेशन। यानी कि वे दूसरे नाम से सक्रिय रहेंगे। पाकिस्तान में ऐसा होता रहता
है।
‘नॉन स्टेट’ या ‘स्टेट एक्टर?’
पाकिस्तानी पत्रकार हामिद मीर ने इस बीच एक रोचक जानकारी अपने ट्वीट
में दी है। उन्होंने लिखा है कि सरकार ने दिसम्बर, 2018 में फैसला किया है कि
सरकार जिन प्रतिबंधित संगठनों के मदरसों को अपने कब्जे में लेगी, उनके लोगों को
देश के अर्धसैनिक बलों में शामिल कर लिया जाएगा। यह काम फौरन इसलिए शुरू नहीं हुआ,
क्योंकि पैसा नहीं था। अब सरकार बजट में इसके लिए पैसे का इंतजाम कर रही है। यह
करीब-करीब वैसा ही जैसा नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के बाद माओवादी संगठनों के
लड़ाकों को नेपाल की सेना में भरती करने को लेकर हुआ था। इसका मतलब है कि
पाकिस्तान के ‘नॉन स्टेट एक्टर’ अब ‘स्टेट एक्टर’ हो जाएंगे।
नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने ‘नॉन-स्टेट
एक्टर’ यानी जेहादियों का सहारा लेना शुरू किया। 13 दिसंबर 2001-संसद पर हमला, 28
अक्टूबर 2005-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलूर
पर हमला, 29 अक्टूबर 2005-दिल्ली में सीरियल ब्लास्ट, 7
मार्च 2006- वाराणसी में हमला, 11 जुलाई 2006- मुंबई की लोकल ट्रेन में सीरियल
ब्लास्ट, अगस्त 2007-हैदराबाद के पार्क में धमाका और 26 नवंबर 2008 को मुम्बई
हमला। इनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लश्कर का हाथ था। लेकिन 26-11 मुंबई हमले
पर पाकिस्तान की तरफ़ से, आतंकवाद निरोधक अदालत में दायर की गई चार्जशीट
में भारतीय सबूतों का मज़ाक उड़ाते हुए हाफिज़ सईद का नाम तक नहीं लिखा गया। इसमें
लश्कर कमांडर ज़की उर रहमान लखवी का नाम दिया गया, पर
वह मुकदमा भी जस का तस है।
पेशावर में स्कूली बच्चों की हत्या के बाद सवाल
पैदा होता हुआ था कि क्या पाकिस्तान अब आतंकवादियों के खिलाफ कमर कस कर उतरेगा? वहाँ
की जनता कट्टरपंथियों को खारिज कर देगी? क्या उन्हें 26/11 के मुम्बई हमले और
इस हत्याकांड में समानता नज़र आएगी?
तमाम भावुक संदेशों और आँसू भरी
कहानियों के बाद भी लगता है कि पाकिस्तान सब कुछ भूल गया। तहरीके तालिबान के खिलाफ
सेना ने अभियान चलाया। उसमें काफी लोग मरे, पर आतंकवादी प्रतिष्ठान अपनी जगह कायम
है।
हमने ही उन्हें बनाया
पाकिस्तान कहता है कि हम आतंकवाद के शिकार है,
जबकि जनरल मुशर्रफ ने साफ कहा है कि हमारे ही लोग अब हमारे पीछे पड़े हैं। हमने
जिन्हें तैयार किया था, वही लोग मुल्क में दहशतगर्दी फैला रहे हैं। उन लोगों के
खिलाफ होगा जिन्हें व्यवस्था ने हथियारबंद किया, ट्रेनिंग
दी और खूंरेज़ी के लिए उकसाया। पेशावर कांड के बाद पाकिस्तानी अख़बार ‘डॉन’ ने
अपने सम्पादकीय में लिखा था, ‘ऐसी घटनाओं के बाद लड़ने की इच्छा तो पैदा होगी, पर
वह रणनीति सामने नहीं आएगी जो हमें चाहिए। ‘फाटा’ (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल
एरिया) में फौजी कार्रवाई और शहरों में आतंक-विरोधी ऑपरेशन तब तक मामूली
फायर-फाइटिंग से ज्यादा साबित नहीं होंगे, जब
तक उग्रवादियों की वैचारिक बुनियाद और उनकी सामाजिक पकड़ पर हमला न किया जाए।’
उस हत्याकांड के बाद पाकिस्तान के राजनेताओं की
प्रतिक्रियाएं रोचक थीं। अवामी नेशनल पार्टी के रहनुमा ग़ुलाम अहमद बिलौर ने कहा
था, ये ना यहूदियों और ना ही हिंदुओं ने, बल्कि
हमारे मुसलमान अफ़राद ने किया। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनेटर फ़रहत उल्ला
बाबर ने बीबीसी उर्दू से कहा, इस बात का हमें बरमला एतराफ़ करना पड़ेगा कि
पाकिस्तान का सब से बड़ा दुश्मन सरहद के उस पार नहीं, सरहद
के अंदर है। आप ही के मज़हब की पैरवी करता है, आप
ही के ख़ुदा और रसूल का नाम लेता है, आप ही की तरह है, हम
सब की तरह है और वो हमारे अंदर है। शिद्दतपसंदों का नज़रिया और बयानिया बदकिस्मती
से रियासत की सतह पर सही तरीक़े से चैलेंज नहीं हुआ। शिद्दतपसंदों ने पाकिस्तानी
सियासत में दाख़िल होने के रास्ते बना लिए हैं।
राज-व्यवस्था का डबल गेम
पाकिस्तानी राज-व्यवस्था डबल गेम खेलती रही है।
यह डबल गेम 9/11 के बाद से शुरू हुआ, जब परवेज मुशर्रफ ने अमेरिकी नाराज़गी
से बचने के लिए पाकिस्तान को औपचारिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शामिल कर
लिया। जनरल ज़िया-उल-हक इस भस्मासुर के लिए सैद्धांतिक ज़मीन तैयार कर गए थे। देश
के पश्चिमी सीमा प्रांत की स्वात घाटी सरकार के नियंत्रण के बाहर है, पर
सरकारी संरक्षण प्राप्त जेहादी राजधानी लाहौर के पास मुरीद्के में है। लश्करे
तैयबा का मुख्यालय। सन 1990 में जब लश्कर का जन्म हो रहा था नवाज़ शरीफ
प्रधानमंत्री बन गए थे। और उन्होंने लश्कर को हर तरह की मदद दी। वे खुद उसके
मुख्यालय में गए। सन 2007 में लाल मस्जिद पर कार्रवाई का खामियाजा परवेज़ मुशर्रफ
को भुगतना पड़ा। उन्हें ही नहीं उस से जुड़े मसलों के कारण सन 2012 में सुप्रीम
कोर्ट ने प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी को पद से हटने को मजबूर कर दिया। भारत के
साथ रिश्तों को सुधारने की पहल करने वाले नवाज शरीफ को भी कमोबेश उसी तरह से हटाया
गया। फिर भी अब यदि इमरान खान बातचीत की पेशकश कर रहे हैं, तो उसका स्वागत होना चाहिए।
पाकिस्तानी व्यवस्था के अंतर्विरोधों की झलक तत्कालीन
प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार सरताज अजीज के बयान में मिलती है जो उन्होंने 2015
में बीबीसी उर्दू को दिया था। उन्होंने कहा कि हम उन शिद्दतपसंदों को क्यों निशाना
बनाएं जो पाकिस्तान की सलामती के लिए ख़तरा नहीं हैं? जो
अमेरिका के दुश्मन हैं वो ख़्वामख़्वाह हमारे दुश्मन कैसे हो गए?
आधुनिकता से टकराव
पाकिस्तान की तार्किक परिणति क्या है और वह किस
रास्ते पर जाएगा, यह वक्त बताएगा। लश्करे तैयबा, जैशे
मोहम्मद, तहरीके तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे थे वैसे ही हैं। दाऊद
इब्राहीम, हाफिज़ सईद और
मौलाना मसूद अज़हर को हम उस तरह पकड़कर नहीं ला पाएंगे जैसे बिन लादेन को
अमेरिकी फौजी मारकर वापस आ गए। ओसामा बिन लादेन का सुराग देने वाले डॉक्टर को
पाकिस्तानी न्याय-व्यवस्था ने सज़ा दी। लादेन की मौत के बाद लाहौर में हुई नमाज़
का नेतृत्व हाफिज़ सईद ने किया था। मुम्बई पर हमले के सिलसिले में उनके संगठन का
हाथ होने के साफ सबूतों के बावजूद पाकिस्तानी अदालतों ने उनपर कोई कार्रवाई नहीं
होने दी।
रिश्तों में सुधार के लिए जरूरी है कि सरहद के
दोनों तरफ की कट्टरपंथी प्रवृत्तियों पर लगाम लगे। भारत की राजनीति में कट्टरपंथी
दबाव बढ़ रहा है। पाकिस्तान में भी एक छोटा सा मध्यवर्ग देश को आधुनिकता के रास्ते
पर ले जाना चाहता है। पर काफी बड़े भाग पर लिबरल लोगों की बातों का कोई असर नहीं
है। कुछ साल पहले जब मलाला युसुफज़ई को नोबेल पुरस्कार मिला, तब मुख्यधारा के
अखबारों में तारीफ के साथ विरोध के स्वर भी मुखर हुए थे। सोशल मीडिया पर अपमानजनक
और व्यंग्यात्मक लहजे वाली टिप्पणियां भी देखने को मिली थीं।'पाकिस्तान
ऑब्ज़र्वर' के संपादक तारिक़ खटाक़ ने एक इंटरव्यू में कहा
था, "यह एक राजनीतिक फ़ैसला है और एक साजिश
है।" पश्चिमी लोकतंत्र पाकिस्तान के मिज़ाज से मेल खाता भी है या नहीं, इसकी
परीक्षा भविष्य करेगा।
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