मंगलवार, 3 सितंबर 2019

अमेज़न की आग: इंसानी नासमझी की दास्तान


अमेज़न के जंगलों में लगी आग ने संपूर्ण मानवजाति के नाम खतरे का संदेश भेजा है। यह आग केवल ब्राजील और उसके आसपास के देशों के लिए ही खतरे का संदेश लेकर नहीं आई है। संपूर्ण विश्व के लिए यह भारी चिंता की बात है।  ये जंगल दुनिया के पर्यावरण की रक्षा का काम करते हैं। इन जंगलों में लाखों किस्म की जैव और वनस्पति प्रजातियाँ हैं। अरबों-खरबों पेड़ यहां खड़े हैं। ये पेड़ दुनिया की कार्बन डाई ऑक्साइड को जज्ब करके ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे को कम करते हैं। दुनिया की 20 फीसदी ऑक्सीजन इन जंगलों से तैयार होती है। इसे पृथ्वी के फेफड़े की संज्ञा दी जाती है। समूचे दक्षिण अमेरिका की 50 फीसदी वर्ष इन जंगलों के सहारे है। अफसोस इस बात का है कि यह आग इंसान ने खुद लगाई है। उससे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि हमारे मीडिया का ध्यान अब भी इस तरफ नहीं गया है। 
जंगलों की इस आग की तरफ दुनिया का ध्यान तब गया, जब ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (आईएनईपी) ने जानकारी दी कि देश में जनवरी से अगस्त के बीच जंगलों में 75,336 आग की घटनाएं हुई हैं। अब ये घटनाएं 80,000 से ज्यादा हो चुकी हैं। आईएनईपी ने सन 2013 से ही उपग्रहों की मदद से जंगलों की आग का अध्ययन करना शुरू किया है। कई तरह के अनुमान हैं। पिछले एक दशक में ऐसी आग नहीं लगी से लेकर ऐसी आग कभी नहीं लगी तक।
यह आग इतनी जबर्दस्त है कि ब्राजील के शहरों में इन दिनों सूर्यास्त समय से कई घंटे पहले होने लगा है। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। आग बुझाने के लिए सेना बुलाई गई है और वायुसेना के विमान भी आकाश से पानी गिरा रहे हैं। फ्रांस में हो रहे जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में इस संकट पर खासतौर से विचार किया गया और इसके समाधान के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने की पेशकश की गई है।
पूरी दुनिया पर खतरा
आग सिर्फ ब्राजील के जंगलों में ही नहीं लगी है, बल्कि वेनेजुएला, बोलीविया, पेरू और पैराग्वे के जंगलों में भी लगी है। वेनेज़ुएला दूसरे नंबर पर है जहां आग की 2600 घटनाएं सामने आई हैंजबकि 1700 घटनाओं के साथ बोलीविया तीसरे नंबर पर है। ब्राजील में आग की घटनाओं का सबसे अधिक प्रभाव उत्तरी इलाक़ों में पड़ा है। घटनाओं में रोराइमा में 141%एक्रे में 138%रोंडोनिया में 115% और अमेज़ोनास में 81% वृद्धि हुई है, जबकि दक्षिण में मोटो ग्रोसो डूो सूल में आग की घटनाएं 114% बढ़ी हैं।

सोमवार, 26 अगस्त 2019

अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर विफल पाकिस्तान


पिछले 72 साल में पाकिस्तान की कोशिश या तो कश्मीर को फौजी ताकत से हासिल करने की रही है या फिर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की रही है। पिछले दो या तीन सप्ताह में स्थितियाँ बड़ी तेजी से बदली हैं। कहना मुश्किल है कि इस इलाके में शांति स्थापित होगी या हालात बिगड़ेंगे। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान की आंतरिक और बाहरी राजनीति किस दिशा में जाती है। पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तानी डीप स्टेट का रुख क्या रहता है।
विभाजन के दो महीने बाद अक्तूबर 1947 में फिर 1965, फिर 1971 और फिर 1999 में कम से कम चार ऐसे मौके आए, जिनमें पाकिस्तान ने बड़े स्तर पर फौजी कार्रवाई की। बीच का समय छद्म युद्ध और कश्मीर से जुड़ी डिप्लोमेसी में बीता है। हालांकि 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को लेकर भारत गया था, पर शीतयुद्ध के उस दौर में पाकिस्तान को पश्चिमी देशों का सहारा मिला। फिर भी समाधान नहीं हुआ।
चीनी ढाल का सहारा
इस वक्त पाकिस्तान एक तरफ चीन और दूसरी तरफ अमेरिका के सहारे अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को अमेरिका से झिड़कियाँ खाने को मिली हैं। इस वजह से उसने चीन का दामन थामा है। उसका सबसे बड़ा दोस्त या संरक्षक अब चीन है। अनुच्छेद 370 के सिलसिले में भारत सरकार के फैसले के बाद से पाकिस्तान ने राजनयिक गतिविधियों को तेजी से बढ़ाया और फिर से कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पूरी जान लगा दी। फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है, पर कहानी खत्म भी नहीं हुई है।

गत 16 अगस्त को हुई सुरक्षा परिषद की एक बैठक में कोई औपचारिक प्रस्ताव जारी नहीं हुआ, पर पाकिस्तानी कोशिशें खत्म नहीं हुईं हैं। इस बैठक को भी पाकिस्तान अपनी उपलब्धि मानता है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय जगत में उसकी सुनवाई हुई है। बावजूद इसके कि बैठक में उपस्थित ज्यादातर देशों ने इसे दोनों देशों के बीच का मामला बताया है। यह बैठक अनौपचारिक थी और इसमें हुए विचार का कोई औपचारिक दस्तावेज जारी नहीं हुआ। यह पाकिस्तानी डिप्लोमेसी की पराजय थी। फिर भी इसमें कुछ बातें नई थीं।
यह बैठक चीनी पहल पर हुई थी। बैठक खत्म होने के बाद चीनी दूत ने अपनी प्रेस वार्ता में पाकिस्तान का पक्ष लेते हुए ऐसा जताने का प्रयास किया कि भारतीय कार्रवाई से विश्व समुदाय चिंतित है। यह चीन सरकार का अपना नजरिया है। चूंकि कोई दस्तावेज जारी नहीं हुआ, इसलिए ज्यादातर बातें बैठक में उपस्थिति राजनयिकों के हवाले से सामने आई हैं। इनमें से कुछ बातें भारत की नजर से महत्वपूर्ण हैं।
वैश्विक समीकरण
बैठक में अमेरिका और फ्रांस ने भारत का साथ दिया और कहा कि अनुच्छेद 370 भारत का आंतरिक मामला है, क्योंकि वह देश की सांविधानिक व्यवस्था से जुड़ा है। पर दो बातों पर गौर करें। पहले खबरें थीं कि ब्रिटेन ने इस बैठक में हुए विमर्श पर औपचारिक दस्तावेज जारी करने के चीनी सुझाव का समर्थन किया था। बाद में ब्रिटिश सरकार के सूत्रों ने स्पष्ट किया कि यह बात सही नहीं है। दूसरे रूसी दूत ने अपने ट्वीट में कुछ ऐसी बातें लिखीं, जिनसे संकेत मिलता है कि उसका परम्परागत रुख बदला है। रूस ने संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के तहत इस समस्या के समाधान का सुझाव दिया है। हालांकि रूस और भारत के रिश्ते बहुत गहरे हैं, पर एक नए शीतयुद्ध का आग़ाज़ हो रहा है। रूस और चीन करीब आ रहे हैं। रूस की दिलचस्पी अफगानिस्तान में भी है। यूरोप के कई देश आर्थिक कारणों से चीन के करीब जा रहे हैं।
पाकिस्तान के पास कोई विकल्प नहीं है। वह सोशल मीडिया पर उल्टी-सीधी खबरें परोसकर गलतफहमियाँ पैदा करना चाहता है। पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने अपने स्वतंत्रतादिवस संदेश में यह बात कही भी है। उनकी रणनीति में फिलहाल बदलाव की संभावना नहीं है। अफगानिस्तान में शांति-समझौते की संभावनाओं से वह उत्साहित है। सबको इंतजार इस बात का है कि जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंध हटने के बाद के किस प्रकार के हालात बनेंगे। खबरें हैं कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आतंकी दस्ते फिर से जमा हो रहे हैं। पाकिस्तान पर एफएटीएफ के प्रतिबंधों का साया है। वह आतंकी संगठनों को किस हद तक बढ़ावा दे पाएगा, इसे देखना होगा। जम्मू-कश्मीर में यदि अव्यवस्था हुई, तो पाकिस्तान इसका फायदा जरूर उठाएगा। भारत सरकार कश्मीरी नागरिकों के मनोबल को बनाए रखने में सफल होगी या नहीं, यह ज्यादा बड़ा सवाल है।
पाकिस्तानी हुकूमत
पाकिस्तान में इमरान खान के कार्यकाल का एक साल पूरा हो गया है। माना जाता है कि उन्हें वहाँ की सेना ने प्रधानमंत्री बनाया है। इस हफ्ते देश के सेनाध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया गया है। इमरान खान ने नवाज शरीफ के दौर में जनरल राहील शरीफ का कार्यकाल को बढ़ाए जाने का विरोध किया था। उस वक्त राहील शरीफ ने खुद ही अपना हाथ खींच लिया था। अब कहा जा रहा है कि सुरक्षा के हालात देखते हुए यह फैसला किया गया है। इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। बहुत से फौजी अफसरों की प्रोन्नति के दरवाजे बंद हो गए हैं। बहुत जरूरी है कि पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति पर नजरें रखी जाएं।
भारतीय दृष्टिकोण से कश्मीर बड़ा मसला है। यह मोदी सरकार की राजनीति की भी बड़ी परीक्षा है। क्या वह वैश्विक मंच पर कश्मीर से जुड़े सवालों का जवाब देने की स्थिति में है? क्या अब भारत और पाकिस्तान के बीच सीधी बातचीत होगी? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सन 1957 के बाद कश्मीर पर कोई विचार नहीं हुआ। सन 1971 के युद्ध के बाद एकबार कश्मीर का जिक्र हुआ, पर 1972 में शिमला समझौता होने के बाद कई साल तक पाकिस्तान ने चुप्पी रखी।
नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने अफ़ग़ान-जेहाद की आड़ में कश्मीर में हिंसा को बढ़ावा दिया और संरा महासभा में कश्मीर का जिक्र फिर से करना शुरू कर दिया। सन 1998 में दोनों देशों ने एटमी धमाके किए, लाहौर यात्रा भी हुई, करगिल हुआ, इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण हुआ, भारतीय संसद पर हमला हुआ और फिर आगरा शिखर सम्मेलन भी हुआ। सन 2003 में दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता हुआ, जिसके कारण माहौल एकदम से बदला।
बात क्यों नहीं होती?
सन 2004 में भारत में यूपीए सरकार बनने के बाद यह प्रक्रिया और आगे बढ़ी और लगता था कि दोनों देश शांति का कोई फॉर्मूला तैयार कर लेंगे। इसे मुशर्रफ-मनमोहन फॉर्मूला कहा गया, जिसमें अनौपचारिक रूप से इस बात पर सहमति बनने लगी थी कि कोई नई सीमा रेखा नहीं खिंचेगी। नियंत्रण रेखा अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा हो जाएगी। लोगों तथा सामग्रियों का नियंत्रण रेखा के आर-पार मुक्‍त आवागमन होगा। नियंत्रण रेखा पर सड़क मार्ग से आवागमन और व्यापार की शुरुआत भी हो गई।
यह शांति-प्रक्रिया आगे बढ़ती उसके पहले ही नवम्बर, 2008 में मुम्बई पर हमला हो गया। इसके बाद से किसी न किसी रूप में टकराव बढ़ता ही गया है। पाकिस्तान की आंतरिक सत्ता के दो केन्द्र होने की वजह से ऐसा हुआ। क्या इस वक्त सत्ता के दोनों केन्द्र एक पेज पर हैं?  इसका जवाब देना मुश्किल है। बुधवार 14 अगस्त को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने पाक अधिकृत कश्मीर की असेम्बली के एक विशेष अधिवेशन में कहा, कश्मीर को लेकर युद्ध हुआ, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय जिम्मेदार होगा।
इमरान ने कहा, हमने यूएन में याचिका डाली है। अंतरराष्ट्रीय अदालत में जाएंगेदुनिया के हर मंच पर जाएंगे। हमने दुनिया भर में मौजूद पाकिस्तानी और कश्मीरी समुदाय को इकट्ठा किया है। लंदन में कश्मीर के लिए ऐतिहासिक संख्या में लोग बाहर निकलेंगे। अगले महीने संयुक्त राष्ट्र महासभा में इतने लोग आपको दिखेंगे जितने पहले कभी नहीं देखे होंगे। सुरक्षा परिषद में भारतीय राजनयिकों ने फौरी तौर पर स्थिति को संभाल लिया है, पर वास्तविक विमर्श अब होगा।
अमेरिका की भूमिका
संरा सुरक्षा परिषद की बैठक के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों से टेलीफोन पर बात की है। अमेरिका फिलहाल अफगानिस्तान को लेकर व्यस्त है। इस वजह से वह पाकिस्तान को हाथ से निकलने नहीं देगा, पर इसका मतलब यह नहीं है कि वह भारत से दूरी बनाएगा। भारतीय राजनय के सामने अमेरिका और चीन के अंतर्विरोधों को सुलझाने की जिम्मेदारी भी है।
पाकिस्तान के कारण यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि चीन, भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन करेगा। दूसरी तरफ अमेरिका का दृष्टिकोण प्रत्यक्षतः भारत के पक्ष में है, पर दोनों देशों के सामरिक रिश्तों में इन दिनों ठहराव है। यह ठहराव शस्त्रास्त्र की खरीद के कारण है। अमेरिका ने रूस से हवाई रक्षा प्रणाली एस-400 की खरीद पर आपत्ति व्यक्त की है। भारत ने शस्त्रास्त्र की खरीद का दायरा बढ़ाया है। अब हम केवल रूस पर आश्रित नहीं हैं, पर वर्तमान सैन्य उपकरणों में से ज्यादातर रूसी हैं। उन्हें एकदम से बदला नहीं जा सकता।
अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति में भारत की केंद्रीय भूमिका है। चीनी उभार रोकने के लिए जापानऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ चतुष्कोणीय रक्षा सहयोग या क्वाड में भी भारत शामिल है। पर हम हाथ बचाकर चल रहे हैं। क्वाड के लक्ष्य अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। पिछले साल भारत और अमेरिका के बीच सैनिक समन्वय और सहयोग के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण ‘कम्युनिकेशंसकंपैटिबिलिटीसिक्योरिटी एग्रीमेंट (कोमकासा)’ हो जाने के बाद यह साफ हो गया था कि दोनों के रिश्ते काफी गहराई तक जा चुके हैं।
हाल में अमेरिका ने भारत को नेटो सहयोगी के स्तर का दर्जा देने का इरादा जाहिर किया था, पर अमेरिकी संसद ने उस दर्जे को अपेक्षित स्तर से कम ही रखा है। अब दोनों देशों के बीच बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका) की चर्चा है, जिसपर पिछले साल सितंबर में दोनों देशों के बीच हुई टू प्लस टू वार्ता में विचार हुआ था। यह समझौता दोनों देशों के सामरिक समझौतों की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।
अमेरिका के साथ सामरिक सहयोग और उसके अंतर्विरोध पाकिस्तान के संदर्भ में इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कश्मीर को लेकर वैश्विक संवाद में अमेरिका महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। भारत पूरी तरह अमेरिकी पाले में खड़ा होने से बचता है। यही द्वंद्व सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और ईरान के अंतर्विरोधों के रूप में प्रकट होता है। इसे भारतीय राजनय की सफलता कहा जाएगा कि सऊदी अरब और यूएई और यहाँ तक कि इस्लामिक देशों के संगठन ने भी कश्मीर के संदर्भ में ऐसा कोई बयान नहीं दिया, जिससे भारत विचलित हो।
सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव
कश्मीर में जनमत संग्रह को लेकर बहुत गलतफहमियाँ हैं। मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। यह अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता रहा हैपर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू कराने को लेकर वह संज़ीदा था तो तभी पाकिस्तानी सेना वापस क्यों नहीं चली गई?  प्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे यही करना था।
संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अपनी मियाद खो चुका है और महत्व भी। सुरक्षा परिषद दिसम्बर 1948 में ही मान चुकी थी कि पाकिस्तान की दिलचस्पी सेना हटाने में नहीं है तो इसे भारत पर भी लागू नहीं कराया जा सकता। दूसरे यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत दोनों पक्षों की सहमति से तैयार हुआ था। यह बाध्यकारी प्रस्ताव नहीं है। पाकिस्तान ने अब जो अनुरोध सुरक्षा परिषद से किया है, वह भी अनुच्छेद 35 के तहत है।
जून 1972 के शिमला समझौते की तार्किक परिणति थी कि पाकिस्तान को इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना बंद कर देना चाहिए था। शिमला में औपचारिक रूप से पाकिस्तान ने इस बात को मान लिया कि दोनों देश आपसी बातचीत से इस मामले को सुलझाएंगे। पाकिस्तानी नेताओं ने लम्बे अरसे तक इस सवाल को उठाना बंद रखापर पिछले एक दशक से उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना शुरू किया है।
समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसम्बर 2003 को परवेज़ मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित समाचार जारी कियाजिसमें उन्होंने कहा, ‘हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव कोकिनारे रख चुका है (लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है।’ यह बात आगरा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई 2001) के बाद की है।
अमित शाह की घोषणा
संसद में जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक पर चर्चा के दौरान गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी हमारा है और उसे हमें वापस लेना है। इसके पहले फरवरी 1994 में भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करकेकहा था कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग रहा हैऔर रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग करने के किसी भी प्रयास का विरोध किया जाएगा। पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए क्षेत्रों को खाली करे।
इस प्रस्ताव को पास कराने के पीछे एक उद्देश्य राष्ट्रीय आमराय बनाना था, वहीं अमेरिका सरकार की एक मुहिम को अस्वीकार करना था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कश्मीर को अलग स्वतंत्र देश बनाने की एक योजना बनाई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की 1994 की अमेरिका यात्रा के पहले ही भारतीय संसद का यह प्रस्ताव पास हो गया।
दूसरी तरफ व्यावहारिक सत्य यह भी है कि नियंत्रण रेखा पर आवागमन को स्वीकार करके एक प्रकार से भारत सरकार ने उधर के कश्मीर के अस्तित्व को स्वीकार करना शुरू कर दिया था। 13 अप्रैल 1956 को जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, “मैं मानता हूँ कि युद्ध विराम रेखा के पार का इलाका आपके पास रहे। हमारी इच्छा लड़ाई लड़कर उसे वापस लेने की नहीं है।
भारत की वर्तमान कश्मीर नीति में अभी और आक्रामकता देखने को मिलेगी। यही आक्रामकता नाभिकीय शस्त्रों से जुड़े नो फर्स्ट यूज़ सिद्धांत के साथ जुड़ी है। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का बयान अनायास नहीं आया है। सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान इस मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण से कुछ हासिल करने में सफल होगा? उसे चीनी समर्थन मिलने के बावजूद लगता नहीं कि उसे सफलता मिलेगी। चीन ने भी दोनों सीधी बातचीत से विवाद को सुलझाने का सुझाव दिया है।
पाकिस्तानी नेताओं के उन्मादी बयान अपने देश की जनता को भरमाने के लिए भी हैं। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने इस बात को अपने संपादकीय में स्वीकार किया है। अखबार ने लिखा है, दुनिया ने पाकिस्तान की गुहार पर वैसी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, जिसकी उम्मीद थी, बल्कि अमेरिका और यूएई ने तो भारत की इस बात को माना है कि यह उसका आंतरिक मामला है।
इमरान खान के उन्मादी भाषण के अलावा भी खबरें हैं कि पाकिस्तान ने स्कर्दू हवाई अड्डे पर उपकरणों को पहुँचाना शुरू कर दिया है। खबरें यह भी हैं कि उसने वहाँ अपने जेएफ-17 विमान तैनात किए हैं। अपनी पश्चिमी सीमा से सैनिकों को हटाकर पूर्वी सीमा पर लाना शुरू कर दिया है वगैरह। पर वास्तव में पाकिस्तान की स्थिति इस समय सैनिक कार्रवाई करने की नहीं है। सारा शोर-शराबा अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अपने देश की जनता का ध्यान खींचने के लिए है।

रविवार, 11 अगस्त 2019

पाकिस्तान ने 15 अगस्त से मुँह क्यों मोड़ा?


भारत और पाकिस्तान अपने स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं। दोनों को स्वतंत्रता दिवस अलग-अलग तारीखों को मनाए जाते हैं। सवाल है कि भारत 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ, तो क्या पाकिस्तान उसके एक दिन पहले आजाद हो गया था? इसकी एक वजह यह बताई जाती है कि माउंटबेटन ने दिल्ली रवाना होने के पहले 14 अगस्त को ही मोहम्मद अली जिन्ना को शपथ दिला दी थी। दिल्ली का कार्यक्रम मध्यरात्रि से शुरू हुआ था।
शायद इस वजह से 14 अगस्त की तारीख को चुना गया, पर व्यावहारिक रूप से 14 अगस्त को पाकिस्तान बना ही नहीं था। दोनों ही देशों में स्वतंत्रता दिवस के पहले समारोह 15 अगस्त, 1947 को मनाए गए थे। सबसे बड़ी बात यह है कि स्वतंत्रता दिवस पर मोहम्मद अली जिन्ना ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा, स्वतंत्र और सम्प्रभुता सम्पन्न पाकिस्तान का जन्मदिन 15 अगस्त है।
14 अगस्त को पाकिस्तान जन्मा ही नहीं था, तो वह 14 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस क्यों मनाता है? 14 अगस्त, 1947 का दिन तो भारत पर ब्रिटिश शासन का आखिरी दिन था। वह दिन पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस कैसे हो सकता है? सच यह है कि पाकिस्तान ने अपना पहला स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त, 1947 को मनाया था और पहले कुछ साल लगातार 15 अगस्त को ही पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया। पाकिस्तानी स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगाँठ के मौके पर जुलाई 1948 में जारी डाक टिकटों में भी 15 अगस्त को स्वतंत्रता पाकिस्तानी दिवस बताया गया था। पहले चार-पाँच साल तक 15 अगस्त को ही पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता था।
अलग दिखाने की चाहत
अपने को भारत से अलग दिखाने की प्रवृत्ति के कारण पाकिस्तानी शासकों ने अपने स्वतंत्रता दिवस की तारीख बदली, जो इतिहास सम्मत नहीं है। पाकिस्तान के एक तबके की यह प्रवृत्ति सैकड़ों साल पीछे के इतिहास पर भी जाती है और पाकिस्तान के इतिहास को केवल इस्लामी इतिहास के रूप में ही पढ़ा जाता है। पाकिस्तान के अनेक लेखक और विचारक इस बात से सहमत नहीं हैं, पर एक कट्टरपंथी तबका भारत से अपने अलग दिखाने की कोशिश करता है। स्वतंत्रता दिवस को अलग साबित करना भी इसी प्रवृत्ति को दर्शाता है।

रविवार, 26 मई 2019

विदेश-नीति के चार आयाम


बदलते वैश्विक-परिदृश्य में नई सरकार की चुनौतियाँ
अगले कुछ दिनों में देश की नई सरकार का गठन हो जाएगा। देश इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में प्रवेश करने वाला है। हमारे लोकतंत्र की विशेषता है कि उसमें निरंतरता और परिवर्तन दोनों के रास्ते खुले हैं। विदेश-नीति ऐसा क्षेत्र है, जिसमें निरंतरता और प्रवाह की जरूरत ज्यादा होती है। सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के काफी पहले हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने भावी विदेश-नीति के कुछ बुनियादी सूत्रों को स्थिर किया था, जो किसी न किसी रूप में आज भी कायम हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है असंलग्नता की नीति। हम किसी के पिछलग्गू देश नहीं हैं, और किसी से हमारा स्थायी वैर भी नहीं है। अपने आकार, सांस्कृतिक वैभव और भौगोलिक महत्व के कारण हम हमेशा दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में गिने गए।
सच यह है कि हम विदेश-नीति से जुड़े मसलों को कॉज़्मेटिक्स या बाहरी दिखावे तक ही महत्व देते हैं। उसकी गहराई पर नहीं जाते। हाल में हुए लोकसभा-चुनाव में पुलवामा से लेकर मसूद अज़हर का नाम कई बार लिया गया, पर विदेश-नीति चुनाव का मुद्दा नहीं थी। इसकी बड़ी वजह यह है कि विदेश-नीति का आयाम हम राष्ट्रीय-सुरक्षा के आगे नहीं देखते हैं। आर्थिक-विकास भी काफी हद तक विदेश-नीति से जुड़ा है। गोकि हमारी अर्थ-व्यवस्था चीन की तरह निर्यातोन्मुखी नहीं है, फिर भी बेरोजगारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवहन, आवास, विज्ञान और तकनीक जैसे तमाम मसलों का विदेश-नीति से रिश्ता है।
भारत जैसे देशों के सामने सवाल है कि आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी। ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? सन 2015 का सहस्राब्दी लक्ष्यों के पूरा होने का साल था। उन्नीसवीं सदी के अंत में संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले दुनिया ने लोगों को दरिद्रता के अभिशाप से बाहर निकालने का संकल्प किया था। वह संकल्प पूरा नहीं हो पाया। अब उसके लिए सन 2030 का लक्ष्य रखा गया है।

सोमवार, 13 मई 2019

‘सायबर-युद्ध’ के द्वार पर खड़ी दुनिया


शनिवार 4 मई को इसराइली सेना ने गज़ा पट्टी में हमस के ठिकानों पर जबर्दस्त हमले किए। हाल के वर्षों में इतने बड़े हमले इसराइल ने पहली बार किए हैं। हालांकि लड़ाई ज्यादा नहीं बढ़ी, महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन इसराइली हमलों में दूसरे ठिकानों के अलावा हमस के सायबर केन्द्र को निशाना बनाया गया। हाल में हमस ने सायबर-स्पेस पर हमले बोले थे। सायबर-अटैक के खिलाफ जवाबी प्रहार का यह दूसरा उदाहरण है। इसके पहले अगस्त 2015 में अमेरिका ने ऐसे कारनामे को अंजाम दिया था। इस लिहाज से इसराइली हमला इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। अब हम सायबर-युद्ध के और करीब पहुँच गए हैं।


अभी तक हम मानकर चल रहे थे कि सायबर हमले केवल कम्प्यूटर सिस्टम्स को निशाना बनाते हैं। लक्ष्य होता है शत्रु की अर्थ-व्यवस्था तथा तकनीकी सिस्टम्स को ध्वस्त करना। आमतौर पर इसे भौतिक-युद्ध से फर्क अदृश्य-युद्ध का अंग माना जाता है। पर शनिवार 4 मई को इसराइली सेना ने गज़ा पट्टी में हमस के ठिकानों पर जबर्दस्त हमले किए। हाल के वर्षों में इतने बड़े हमले इसराइल ने पहली बार किए हैं और इनमें निशाना दूसरे ठिकानों के अलावा हमस के सायबर केन्द्र हैं। इन केन्द्रों से हाल में हमस ने इसराइल के सायबर-स्पेस पर हमले बोले थे। सायबर-वार के खिलाफ जवाबी प्रहार का यह दूसरा उदाहरण है। इसके पहले सन 2015 में अमेरिका ने ऐसे कारनामे को अंजाम दिया था।
मनुष्य जाति का अस्तित्व प्रकृति के साथ युद्ध करते-करते कायम हुआ है। मानवता का इतिहास, युद्धों का इतिहास है। युद्ध की तकनीक और उपकरण बदलते रहे हैं। तीन साल पहले नेटो ने घोषित किया था कि भविष्य की लड़ाइयों का मैदान सायबर स्पेस होगा। इस लिहाज से शनिवार को हुआ इसराइली हमला  इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। अब हम सायबर-युद्ध के और करीब पहुँच गए हैं। इसराइली रक्षा-विशेषज्ञों का दावा है कि हाल में हमस ने इसराइल पर सायबर हमला बोला था, जिसमें वे विफल रहे। इसके जवाब में हमने हमस के सायबर केन्द्र को तबाह कर दिया है।
इसराइल ने इस बात का ज्यादा विवरण नहीं दिया है कि हमस ने सायबर हमला कब और किस तरह से किया, पर यह साफ कहा कि यह सायबर हमला था, जिसका जवाब हमने हवाई हमले से किया। इसराइल के इस हमले में खुफिया एजेंसी शिन बेट भी शामिल थी, जिसे इसराइल की अदृश्य एजेंसी माना जाता है। अगस्त 2015 में अमेरिका ने ब्रिटिश नागरिक जुनैद हुसेन की हत्या के लिए सीरिया के रक्का में ड्रोन हमला किया था। जुनैद हुसेन इस्लामिक स्टेट का सायबर एक्सपर्ट था, जिसने अमेरिका सेना के कुछ भेद ऑनलाइन उजागर कर दिए थे। माना जाता है कि वह सायबर वॉर की शुरुआत थी। इसराइल और हमस के बीच लगातार चल रहे रॉकेट युद्ध के बीच के बीच इस परिघटना से भावी युद्धों के संकेत मिलने लगे हैं।

उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षण

अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच आए दिन नोकझोंक के क्रम में पिछले हफ्ते अचानक तल्खी आ गई। उत्तर कोरिया ने अपने सुप्रीमो किम जोंग की निगरानी में एक के बाद अनेक कम दूरी के मिसाइल पूरब की ओर दागे, जो समुद्र में जाकर गिरे। शनिवार 4 मई को किए गए इन परीक्षणों से हालांकि अमेरिका के ट्रम्प प्रशासन ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया है कि ये तो शॉर्ट रेंज मिसाइल हैं, इनसे हमें कोई खतरा नहीं है, पर इनसे उत्तर कोरिया के पड़ोसी परेशान हैं। इसका मतलब है कि अमेरिकी धमकियों के बावजूद उत्तर कोरिया अपनी मिसाइल तकनीक में उत्तरोत्तर सुधार कर रहा है। सुधार नहीं भी कर रहा है, तब भी अमेरिका को परेशान करने वाली कोई न कोई हरकत कर ही रहा है। उत्तरी कोरिया ने पिछले साल के शुरू में हुई एक सैनिक परेड में शॉर्ट रेंज बैलिस्टिक मिसाइलों और मल्टीपल रॉकेट लांचरों का प्रदर्शन किया था।

उत्तर कोरिया की सरकारी समाचार सेवा केसीएनए ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इस अभ्यास का उद्देश्य विदेशी आक्रमण की स्थिति में उत्तर कोरिया की तैयारियों को परखना था। इन परीक्षणों के साथ ही किम जोंग ने अपने सैनिकों से कहा है कि इस बात को दिमाग़ में रखें कि वास्तविक शांति और सुरक्षा की गारंटी सिर्फ़ ताक़तवर बल ही दे सकते हैं। खबरों के मुताबिक उत्तर कोरिया के होदो प्रायद्वीप से छोटी दूरी की मिसाइलें जापानी सागर में दागी गईं। पिछले महीने भी उत्तरी कोरिया ने एक गाइडेड मिसाइल का परीक्षण किया था।

शनिवार, 4 मई 2019

शांति के द्वार पर अफ़ग़ानिस्तान और लोया जिरगा


अफ़ग़ानिस्तान में शांति-स्थापना की दिशा में गतिविधियाँ जैसे-जैसे तेजी पकड़ रहीं हैं वैसे-वैसे इस प्रक्रिया के अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। दिसम्बर में अमेरिकी मीडिया ने खबर दी थी कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने पैंटागन से कहा है कि वे अप्रैल तक अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या 14,000 से घटाकर 7,000 कर दें। बाद में हालांकि अमेरिका सरकार ने इस बात का खंडन भी किया, पर बात कहीं न कहीं सच थी। अप्रैल गुजर चुका है, सेना की वापसी नहीं हुई है, पर घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदल रहा है।
सबसे बड़ी घटना है सोमवार से शुरू हुआ लोया जिरगा, यानी अफ़ग़ान नेतृत्व का महाधिवेशन। इसके समांतर अमेरिका-पाकिस्तान-तालिबान की बातचीत चल रही है और साथ ही अमेरिका-चीन-रूस संवाद भी। कुछ समय पहले अमेरिकी दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने कहा था, हमें उम्मीद है कि इस साल जुलाई में अफगान राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही हम समझौता कर लेंगे। इसके पहले उन्होंने उम्मीद जताई थी कि समझौता अप्रैल तक हो जाएगा। फिलहाल लगता नहीं कि जुलाई तक समझौता हो पाएगा, पर कुछ न कुछ हो जरूर रहा है।

मसूद अज़हर पर चीनी अड़ंगा हटने से हालात बदलेंगे

चीन ने मसूद अज़हर के मामले पर सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव पर लगाई अपनी आपत्ति हटा ली है। इसके बाद मसूद अज़हर अब घोषित आतंकवादी है। चीन-भारत रिश्तों के लिहाज से यह महत्वपूर्ण घटना है साथ ही पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों पर भी इसका असर पड़ेगा। इमरान खान की हाल की चीन यात्रा के दौरान शी चिनफिंग ने इस बात की उम्मीद जाहिर की कि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों में सुधार होगा। दक्षिण एशिया की प्रगति और विकास के लिए यह जरूरी भी है। दक्षिण एशिया के देशों के बीच सम्पर्क तबतक ठीक नहीं होगा, जबतक भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहतर नहीं होंगे। फरवरी में पुलवामा कांड के बाद चीन ने अपने उप विदेश मंत्री शुआनयू को पाकिस्तान भेजा था, ताकि तनाव बढ़ने न पाए। चीन को लेकर भारत में एक खास तरह की चिंता हमेशा रहती है। पकिस्तान के प्रति उसका झुकाव बी जाहिर है। क्या वह अपने इस झुकाव को कम करेगा? क्या वह संतुलन स्थापित करेगा? लोकसभा चुनाव के बाद ऐसे सवाल फिर से विमर्श का विषय बनेंगे।

इस बीच चीन ने अरबों डॉलर की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना से बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार आर्थिक गलियारे को हटा दिया है। बीसीआईएम को हटाए जाने के कारणों के बारे में तत्काल कुछ नहीं बताया गया है, लेकिन अप्रैल के अंतिम सप्ताह में आयोजित बेल्ट एंड रोड फोरम के दूसरे शिखर सम्मेलन में जारी सूची में जिन परियोजनाओं का जिक्र किया गया है, उनमें इस गलियारे का उल्लेख नहीं है। भारत ने बेल्ट एंड रोड के तहत बन रहे चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विरोध करते हुए इस कार्यक्रम से अपनी दूरी बना रखी है और इसके दूसरे सम्मेलन में भी उसने भाग नहीं लिया। अनुमान लगाया जा सकता है कि इस विरोध की खीझ में चीन ने बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार आर्थिक गलियारे (बीसीआईएम) को लिस्ट से बाहर कर दिया है।

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

श्रीलंका में दाएश का हमला समूचे भारतीय-भूखंड के लिए सबक और चेतावनी


सीरिया में पिटाई के बाद लगता था कि इस्लामिक स्टेट कहीं न कहीं सिर उठाएगा। उसे अपनी उपस्थिति का एहसास कराना है। श्रीलंका में रविवार को हुई हिंसा की जिम्मेदारी लेकर उसने इस बात को साबित किया है। अभी तक दक्षिण एशिया उसके निशाने से बचा हुआ था। यों 2016 में बांग्लादेश की घटनाओं के बाद कहा गया था कि वहाँ इस्लामिक स्टेट जड़ें जमा रहा है। कश्मीर घाटी में अक्सर उसके काले झंडे नजर आते हैं। फिर भी इस्लामिक स्टेट के खतरे को बहुत गम्भीरता से नहीं देखा गया। श्रीलंका की हिंसा भारत के लिए ही नहीं दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए चेतावनी है।
श्रीलंका में तकरीबन दस साल से चली आ रही शांति जिस भयानक हत्याकांड से भंग हुई है, वह समूचे भारत-भूखंड के लिए खतरे की घंटी है। दुनिया की सबसे बहुरंगी-बहुल संस्कृति वाला समाज इसी इलाके में रहता है। करीब तीन दशक तक चले तमिल-गृहयुद्ध के बाद उम्मीद थी कि श्रीलंका के निवासी जातीय-साम्प्रदायिक आधारों पर अपने आपको बाँटने के बजाय सामूहिक सुख-समृद्धि के रास्ते तैयार करेंगे। इन कोशिशों को तोड़ने के प्रयास अब फिर शुरू हो गए हैं। बहरहाल श्रीलंका की प्रशासनिक-व्यवस्था ने इस हिंसा के बाद सम्भावित टकराव को रोकने में सफलता हासिल की है।

सूडान में फौजी शासकों पर जनता का भारी दबाव

सूडान में लोकतांत्रिक आंदोलन अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रहा है। पिछले कुछ महीनों से चल रहे आंदोलन के बाद 32 साल से कुर्सी पर जमे बैठे सूडान के स्वयंभू शासक उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़नी पड़ी है, पर उनके स्थान पर फौजी कौंसिल ने सत्ता हथिया ली है। देश की युवा आबादी आंदोलन की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सेना के साथ नागरिकों की लगातार बातचीत चल रही है। सेना ने तत्काल नागरिक शासन की उनकी मांग को मानने से इनकार कर दिया है, जिसके कारण पिछले रविवार को बातचीत एक मोड़ पर आकर ठहर गई है।

जनता के प्रतिनिधियों का कहना है कि सेना नागरिक परिषद को सत्ता सौंप दे। आंदोलनकारी सूडानी प्रोफेशनल्स एसोसिएशन (एसपीए) के प्रवक्ता मोहम्मद अल-अमीन ने सेना परिसर में जमा हजारों प्रदर्शनकारियों की भीड़ को बताया कि हम फौजी कौंसिल के साथ अपनी बातचीत स्थगित कर रहे हैं, पर हमारा धरना-प्रदर्शन जारी रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी लड़ाई खत्म नहीं हुई है, क्योंकि फौजी कौंसिल बशीर की बेदखल सरकार से कोई खास अलग नहीं है। फौजी अफसरों की दिलचस्पी लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने में नहीं है।

देश के नए फौजी शासक लेफ्टिनेंट जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान ने रविवार को सरकारी टेलीविजन पर कहा कि हम जनता के हाथों में सत्ता सौंपने को तैयार हैं, पर अराजकता के इस दौर में नहीं। अभी व्यवस्था को कायम होने देना चाहिए। हमें सत्ता को कोई मोह नहीं है, हम इससे चिपके नहीं रहेंगे। हम चाहते हैं कि आंदोलनकारी कोई ऐसा प्रस्ताव पेश करें, जिसे स्वीकार किया जा सके।

प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सैनिक नेतृत्व की दरअसल हमारी बातों में दिलचस्पी है ही नहीं। इसमें शामिल लोग वही हैं, जो अब तक सत्ता में बैठे थे। वे नई व्यवस्था क्यों चाहेंगे? हमारे पास अब आंदोलन को तेज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अमेरिका की उस सूची में सूडान का नाम भी है, जिसमें आतंकवादी देशों के नाम दर्ज हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि फौजी शासन हटे, तो इस सूची से सूडान का नाम हट सकता है। इस सिलसिले में बातचीत के लिए सूडानी नागरिकों का एक दल अमेरिका जाने वाला है। सूडान के इस आंदोलन को अमेरिकी मीडिया का समर्थन भी मिल रहा है।

हालांकि प्रदर्शनकारियों में बहुत से नौजवान इस बात से खुश हैं कि फौजी शासक जनता को सत्ता सौंपने को तैयार हैं, पर उनके समझदार नेताओं का कहना है कि ये बातें समय काटने और भरमाने के लिए की जा रही हैं। सेना इस बात के लिए भी तैयार है कि किसी असैनिक को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जाए, पर वह सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी छोड़ने को तैयार नहीं है। आंदोलनकारी इस मामले में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की मदद लेने को तैयार भी नहीं हैं। इन दोनों देशों ने तीन अरब डॉलर की सहायता देने की पेशकश की है। इसपर आंदोलनकारियों ने कहा कि हमें सऊदी समर्थन नहीं चाहिए। आप अपना पैसा अपने पास रखें। अल जजीरा ने एक स्थानीय कारोबारी को उधृत किया है कि हम अपने देश का निर्माण अपने साधनों से कर लेंगे। हमें अच्छा नेतृत्व चाहिए विदेशी सहायता नहीं। जिस वक्त उमर अल-बशीर हमारे लोगों की हत्या कर रहा था, तब ये देश क्यों नहीं बोले?

इसके पहले सऊदी अरब और यूएई ने कहा था कि हम 50 करोड़ डॉलर सूडान के केन्द्रीय बैंक में जमा कर देंगे, जिससे सूडानी पौंड पर दबाव कम हो जाएगा और मुद्रा-विनिमय की दिक्कतें दूर हो जाएंगी। सहायता से जुड़ी शेष धनराशि भोजन, औषधियों, ईंधन वगैरह पर खर्च की जा सकती है। आंदोलनकारियों को लगता है कि यह सब फौजी शासन को बचाने की चाल है।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

ब्रेक्जिट के बहाने ब्रिटिश लोकतंत्र के धैर्य की परीक्षा

यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के अलगाव यानी ब्रेक्जिट का मसला करीब दो महीने की गहमागहमी के बाद 12 अप्रैल के बजाय 31 अक्तूबर, 2019 तक के लिए टल गया है। अलगाव होना तो 29 मार्च को ही था, पर उससे जुड़े समझौते को लेकर मतभेद इतने प्रबल थे कि वह समय पर नहीं हो पाया और यूरोपीय यूनियन ने उसे 12 अप्रैल तक बढ़ा दिया था। बहरहाल अब यदि 31 अक्तूबर के पहले ब्रिटिश किसी प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगी, तो अलगाव उससे पहले भी हो सकता है। ब्रसेल्स में 11 अप्रैल को यूरोपीय यूनियन के नेताओं की शिखर वार्ता के बाद इस मसले को छह महीने बढ़ाने का फैसला किया गया, ताकि ब्रिटिश संसद ठंडे दिमाग से कोई फैसला करे। सारा मामला करीब-करीब हाथ से निकल चुका था, पर कॉमन सभा ने अंतिम क्षणों में हस्तक्षेप करके इस अनिश्चय को फिलहाल रोक लिया है।

गत 4 अप्रैल को अंततः एक वोट के बहुमत से संसद ने यह फैसला किया कि ईयू के साथ हुई संधि के अनुच्छेद 50 को लागू करने की तारीख बढ़ाई जाए, ताकि बगैर किसी समझौते के ब्रेक्जिट की सम्भावना को टाला जा सके। इस पूरे मामले में टेरेसा मे की सरकार की फज़ीहत हुई, साथ ही संकटों से निपटने की ब्रिटिश लोकतंत्र की सामर्थ्य पर भी सवाल खड़े हुए हैं। इस मौके पर जरूरत इस बात की थी कि सत्तापक्ष और विपक्ष मिलकर रास्ते निकालते। इस दौरान संसद में तीन बार सरकार की हार हुई, बावजूद इसके कि वह विश्वासमत जीत चुकी थी।

सूडान और अल्जीरिया में सत्ता-परिवर्तन

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सूडान और अल्जीरिया में एक साथ हुए सत्ता-परिवर्तनों ने सन 2011 के बहार-ए-अरब यानी अरब स्प्रिंग की याद ताजा कर दी। संयोग से दोनों जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने जबर्दस्त भूमिका निभाई है। पहले अल्जीरिया के अब्देल अजीज बूतेफ़्लीका की छुट्टी हुई और उसके बाद सूडान के उमर अल-बशीर का पतन हुआ। इन दोनों देशों के अलावा हाल में ट्यूनीशिया और मोरक्को में भी आंदोलनों ने फिर से सिर उठाया है। सन 2001 की बहार-ए-अरब के पीछे ट्यूनीशिया के एक नौजवान के आत्मदाह की भूमिका थी, जिसकी खबर सोशल मीडिया पर कानो-कान पूरे मगरिब और मशरिक में फैल गई थी। इसबार ट्रिगर पॉइंट कोई एक घटना नहीं है, पर लम्बे अरसे से सत्ता हथियाए लोगों के प्रति जनता की बेचैनी का इज़हार यह जरूर है। इस अभियान को भी सोशल-मीडिया की क्रांति कहा जा रहा है।

इस अभियान ने सूडान के तख्त पर 32 साल से जमे बैठे ताकतवर तानाशाह उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया है। इन्हीं अल-बशीर के नेतृत्व में सूडानी सेना ने इक्कीसवीं सदी के शुरू में दारफुर में भयावह नरमेध को अंजाम दिया था। उनकी उसी सेना को अब अपने मुखिया को गिरफ्तार करने पर मजबूर होना पड़ा। इलाके की युवा आबादी इन आंदोलनों की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सन 2011 के आंदोलनों ने इस इलाके के चार बड़े तानाशाहों का तख्ता पलटा था। तब पूरे इलाके में जनता के बीच अपनी व्यवस्था को लेकर बहस शुरू हुई थी, जिसकी तार्किक परिणति अब नजर आ रही है, गोकि यह भी एक चरण है।

मालदीव के संसदीय चुनावों में भी एमडीपी की भारी जीत

मालदीव के संसदीय चुनाव में मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) की भारी जीत से भारत ने संतोष की साँस ली है। मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहीम मोहम्मद सोलिह की सरकार के लिए भी यह खुशखबरी है, क्योंकि अब तमाम विधेयकों और नीति से जुड़े प्रस्तावों को संसद से मंजूरी मिलने में आसानी होगी। सितम्बर 2018 में हुए चुनाव में जीतने के बाद से राष्ट्रपति सोलिह का ध्यान देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने और चीनी कर्जे के दबाव से बाहर निकालने में है। भारत की दिलचस्पी हिन्द महासागर में अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाने में है। मालदीव में मित्र-प्रशासनिक व्यवस्था के आने से बेहतर और क्या हो सकता है।

पिछले साल हुए राष्ट्रपति पद के चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की पराजय के बाद भी अंदेशा इस बात का था कि कहीं संसदीय चुनाव में ऐसी स्थिति पैदा न हो जाए कि देश में राजनीतिक गतिरोध पैदा होने लगे। राष्ट्रपति पद के चुनाव में कई दलों ने मिलकर मोर्चा बनाकर अब्दुल्ला यामीन को पराजित किया था, पर इन दलों के बीच मतैक्य नहीं है और कुछ दलों की हमदर्दी अब्दुल्ला यामीन के साथ है। बहरहाल इस संसदीय चुनाव में यामीन खुद नहीं उतरे थे। उनकी पार्टी प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव ने अपने प्रत्याशी उतारे थे, पर उनकी भारी पराजय हुई। पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद को भारी जीत मिली।

बेल्ट एंड रोड: चीनी महत्वाकांक्षा के अंतर्विरोधों की कहानी

चीन का ‘बेल्ट एंड रोड’ कार्यक्रम एकबार फिर से खबरों में आने वाला है। इस महीने बीजिंग में ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ की दूसरी बैठक होने वाली है। फोरम की पिछली बैठक मई 2017 में हुई थी। पिछले दो साल में इस कार्यक्रम को लेकर दुनियाभर में अच्छी खासी बहस हुई है। अमेरिका समेत अनेक देशों को इसे लेकर शिकायतें हैं, पर भारत न केवल खुलकर इस कार्यक्रम का विरोध किया है, बल्कि पिछली बैठक का बहिष्कार भी किया। चीन उसके पहले और उसके बाद भी भारत को इस कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण देता रहा है। हालांकि भारत ने आगामी शिखर सम्मेलन के बारे में कुछ कहा नहीं है, पर सम्भावना यही है कि इसबार भी उसमें शामिल होगा नहीं।

भारत को इस कार्यक्रम को लेकर दो तरह की आपत्तियाँ हैं। पहली और बुनियादी आपत्ति इस बात पर है कि इस कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) जम्मू-कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके से होकर गुजरता है। हम जिस इलाके को अपना मानते हैं, उससे होकर गुजरने वाली किसी परियोजना का हिस्सा कैसे बन सकते हैं? दूसरा बड़ी आपत्ति इस कार्यक्रम की फंडिंग की लेकर है। भारत मानता है कि यह कार्यक्रम अनेक छोटे देशों को चीन का जबर्दस्त कर्जदार बना देगा। भारत की इस राय से दुनिया के तमाम विशेषज्ञ सहमत हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी इस बात को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है। हालांकि भारत वैश्विक-कनेक्टिविटी को बढ़ाने का समर्थक है, पर सम्प्रभुता का सवाल इस परियोजना में शामिल होने से पूरी तरह रोकता है।

ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा की जीत और यूरोप में महिला-शक्ति का उदय

पूर्वी यूरोप के छोटे से देश स्लोवाकिया ने पिछले 30 मार्च को एंटी-करप्शन प्रत्याशी ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा राष्ट्रपति के रूप में चुना है। वे देश की पहली महिला राष्ट्रपति हैं। स्लोवाकिया सभी तरफ़ से ज़मीन से घिरा देश है। इसका कुल क्षेत्रफल 49,035 वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में पोलैंड, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में चेक गणराज्य एवं ऑस्ट्रिया हैं। दान्यूब नदी इसकी राजधानी ब्रातिस्लावा से गुज़रती है और हंगरी के साथ स्लोवाकिया की सीमा बनाती है। देश का लगभग 30 फीसदी इलाका पहाड़ी है।

कैप्यूतोवा की विजय ने यूरोप की राजनीति में बढ़ती महिला-शक्ति को भी रेखांकित किया है। यूरोपीय संघ के 28 देशों में से उन्हें मिलाकर आठ देशों में राष्ट्र प्रमुख अब महिलाएं हैं। जर्मनी, ब्रिटेन, क्रोआसिया, एस्तोनिया, रोमानिया, माल्टा और लिथुआनिया के बाद अब स्लोवाकिया में भी राष्ट्रीय नेता महिला बनी हैं। इनके अलावा नॉर्वे, आइसलैंड, सर्बिया और जॉर्जिया जैसे गैर-ईयू देशों में भी महिला नेतृत्व है।

ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा का चुनाव जीतना देश में बदलाव की उम्मीदें लेकर आया है। भ्रष्टाचार से पीड़ित देश को उनसे काफी उम्मीदें हैं। पिछले साल एक पत्रकार की हत्या के बाद से पूरा देश भ्रष्टाचार और घूसखोरी को लेकर उद्विग्न चल रहा है। 45 वर्षीय कैप्यूतोवा ने सत्ताधारी वामपंथी स्मर-सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के मारोस सेफ्कोविच को परास्त किया है। सेफ्कोविच यूरोपीय आयोग के उपाध्यक्ष भी हैं। चुनाव हारने के बाद सेफ्कोविच ने घोषणा की कि मैंने ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा के पास अपनी शुभकामनाओं के साथ फूलों का एक गुलदस्ता भेजा है। पहली महिला स्लोवाक राष्ट्रपति का यह हक बनता है।

ब्रेक्जिट की भैंस गई पानी में

कॉमन सभा में एक के बाद एक कोशिशों के बावजूद वह तरीका उभरकर नहीं आ रहा है, जिससे ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन का अलगाव ठीक-ठाक तरीके से हो सके। प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने ईयू की सहमति से जो समझौता (ब्रेक्जिट) तैयार किया था, उसे और उसके बाद उसमें सुधार की कोशिशों को संसद बार-बार अस्वीकार करती चली गई, तो आखिरी उम्मीद सोमवार 1 अप्रैल की बैठक में थी, जिसमें कम से कम चार प्रस्ताव ऐसे थे, जिनमें आगे की राह बताई गई थी। यह बैठक भी व्यर्थ हुई। चारों में से एक को भी संसद ने स्वीकार नहीं किया। इनमें कस्टम यूनियन और नॉर्वे जैसी व्यवस्था, ब्रिटेन को सिंगल मार्केट (एक बाज़ार) में बरक़रार रखने पर भी मतदान हुआ, लेकिन किसी भी विकल्प को स्वीकृति नहीं मिली। यह मतदान क़ानूनन बाध्यकारी नहीं था। किसी प्रस्ताव को बहुमत मिल भी जाता तो सरकार उसे मानने के लिए बाध्य नहीं होती, पर उससे रास्ता खुलता।

जिस विकल्प पर निकटतम सहमति बनी, वह यह था कि ब्रिटेन ईयू की कस्टम्स यूनियन में बना रहे। यह प्रस्ताव भी तीन वोट से पराजित हो गया। जिस प्रस्ताव को सबसे ज्यादा वोट मिले, वह था कि इन प्रस्तावों पर जनमत संग्रह करा लिया जाए, पर वह भी 292 के मुकाबले 280 वोटों से गिर गया। सरकार इन दोनों ही प्रस्तावों से असहमत थी। ईयू से हटने के बाद ईयू की कस्टम्स यूनियन में बने रहने का मतलब था व्यापारिक समझौते करने की स्वतंत्रता को खोना। दूसरे प्रस्ताव का मतलब था कि 2016 के इस वायदे से मुकरना कि जनमत संग्रह का फैसला लागू होगा।

नफरत और आतंक का एक नया चेहरा

न्यूज़ीलैंड को दुनिया के सबसे शांत देशों में एक माना जाता है। वहाँ पिछले 15 मार्च को क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के एक नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। दूसरी तरफ न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न और वहाँ की सरकार ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी के प्रति अपने समर्थन और एकजुटता का परिचय दिया उसकी दुनियाभर में तारीफ हो रही है। ऐसे वक्त में जब दुनिया को साम्प्रदायिक नफरतों की आँधियों ने घेर रखा है, उनके इस व्यवहार ने इस हत्याकांड से जन्मी पीड़ा को कुछ कम किया है। खासतौर से मुस्लिम समुदाय ने इस महिला की जबर्दस्त तारीफ की है।

जैसिंडा अर्डर्न के प्रति प्रतीक रूप में सम्मान व्यक्त करते हुए संयुक्त अरब अमीरात ने अपनी विश्व-प्रसिद्ध इमारत बुर्ज खलीफा में शुक्रवार की रात उनकी तस्वीर प्रदर्शित की, जिसमें हिजाब लगाए वे एक व्यक्ति को गले लगाती हुई दिखाई दे रही हैं। यूएई के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘आपने (पीड़‍ितों के प्रति) जिस तरह की एकजुटता प्रदर्शित की उसने दुनियाभर के 1.5 अरब मुसलमानों का दिल जीता है।

वेनेजुएला में टकराव की निर्णायक घड़ी


लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में बगावती नेता ख़ुआन गोइदो के समर्थन में आंदोलन बढ़ता चला जा रहा है। देश में महंगाई का बोलबाला है और सड़कों पर ब्लैक आउट चल रहा है, क्योंकि बिजली नहीं है। पिछले रविवार को गोइदो के आह्वान पर देशभर से लोग राजधानी काराकस पहुँचे और राष्ट्रपति निकोलस माडुरो के खिलाफ प्रदर्शन किया। जरूरत की चीजें कम पड़ती जा रहीं हैं और आर्थिक संकट चरम पर है। दवाओं का भीषण अभाव पैदा हो गया है।
उधर अमेरिका के नेतृत्व में 56 देशों ने संसद के नेता ख़ुआन गोइदो को राष्ट्रपति के रूप में मान्यता देकर माडुरो सरकार के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। सत्ता से जुड़ी ज्यादातर संस्थाएं राष्ट्रपति निकोलस माडुरो के पीछे खड़ी हैं और सेना भी उनके साथ है। अलबत्ता सेना के भीतर से भी नाराजगी के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। कहना मुश्किल है कि किस वक्त विस्फोट हो जाए। जनता का काफी बड़ा तबका अंतरिम राष्ट्रपति के रूप में ख़ुआन गोइदो के पीछे खड़ा होने लगा है।  

सीरिया में इस्लामिक स्टेट की हार के बावजूद सवाल ही सवाल हैं


सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खात्मे का एलान अब सिर्फ औपचारिकता है। पूर्वी सीरिया का अलबाग़ूज़ क़स्बा आइसिस उर्फ आईएस या दाएश का आख़िरी ठिकाना था, जिसपर अब पश्चिमी देशों की सेनाओं का कब्ज़ा हो गया है या हो जाएगा। इस्लामिक स्टेट के सैनिकों और नेताओं ने या तो समर्पण कर दिया है या भाग निकले हैं। बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं। एक तरफ सीरिया में इस्लामिक स्टेट की पराजय की खबरें हैं, वहीं अफगानिस्तान और उत्तरी अफ्रीका में उनके सक्रिय होने के समाचार भी है। चुनौती उस व्यवस्था को कायम करने की है जिसमें इस गिरोह की वापसी फिर से न होने पाए।
अफ़ग़ानिस्तान में गुरुवार 7 मार्च को इस्लामी एकता पार्टी के नेता अब्दुल अली मज़ारी की बरसी के मौक़े पर आयोजित एक सभा में दाएश ने हमला किया। सभा में देश के मुख्य कार्याधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला सहित कई राजनीतिक हस्तियां शामिल थीं। शोक सभा स्थल के पास सिलसिलेवार बम धमाकों के कारण बरसी का कार्यक्रम अधूरा छोड़ दिया गया था। इसमें कम से कम 11 लोग मरे और 95 के घायल होने की खबरें हैं। ऐसी खबरें पश्चिम एशिया के कई इलाकों से मिल रहीं हैं।
मित्र देशों की असहमति
उधर पश्चिमी देशों में इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि पूर्वी सीरिया की सुरक्षा अब कैसे की जाएगी। अमेरिका ने अपने आठ मित्र देशों से कहा था कि वे शुक्रवार 8 मार्च तक इस बात की जानकारी दे दें कि कितनी जिम्मेदारी निभाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। इन देशों में ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी सबसे प्रमुख हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दिसम्बर में कहा था कि हमारी सेनाएं अब सीरिया से हट जाएंगी। इस घोषणा की अमेरिका के भीतर आलोचना हुई और सेना की फौरी वापसी रुक गई। अब अमेरिका कोशिश कर रहा है कि मित्र देशों के साथ मिलकर कोई व्यवस्था बने। इस व्यवस्था में यूरोप के मित्र देशों के अलावा कुर्दों के नेतृत्व में गठित सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ (एसडीएफ) तथा तुर्की की भूमिका होगी। इसमें भी अड़चन है। तुर्की की नजर में एसडीएफ भी आतंकवादी संगठन है।

आतंकी संगठनों पर नकेल डालने में क्या कामयाब होगा पाकिस्तान?


पुलवामा कांड के बाद से पाकिस्तान पर अपने उन कट्टरपंथी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव है, जो संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधित संगठनों की सूची में शामिल हैं। पिछले महीने फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की बैठक में भी पाकिस्तान से कहा गया था कि वह जल्द से जल्द कार्रवाई करे, वरना उसका नाम काली सूची में डाल दिया जाएगा। इन दबावों के कारण सोमवार 4 मार्च को पाकिस्तान सरकार ने उन सभी संगठनों की सम्पत्ति पर कब्जा करने की घोषणा की है, जिनके नाम संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंध सूची में हैं। इसके बाद भारत ने संकेत दिए हैं कि इन कदमों के मद्देनज़र हम फौजी कार्रवाई के इरादे को त्याग रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (प्रतिबंध और ज़ब्ती) आदेश, 2019 पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अधिनियम, 1948 के तहत है। इन संगठनों से जुड़े सभी धर्मादा (दातव्य) संगठनों की सम्पदा भी सरकारी कब्जे में चली जाएगी। जैश के चीफ मसूद अज़हर पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं, अभी यह स्पष्ट नहीं है। इसकी वजह यह है कि संरा सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध परिषद के प्रस्ताव 1267 में उनका नाम नहीं है। पाकिस्तान के विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने इस आदेश की जानकारी पत्रकारों को देते हुए बताया कि यह आदेश संरा सुरक्षा परिषद और पेरिस स्थित एफएटीएफ के निर्देशों के अनुरूप है।

नाइजीरिया में धीरे-धीरे जड़ें जमाता लोकतंत्र

कई तरह के विवादों के बीच नाइजीरिया के आम चुनाव हो गए और मुहम्मदु बुहारी फिर से देश के राष्ट्रपति चुने गए हैं। इस बार के चुनाव में भी धाँधली की शिकायतें हैं, पर संतोष इस बात का है कि दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के इस देश में लोकतंत्र धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा है। मुहम्मदु बुहारी ने पूर्व उपराष्ट्रपति अतीकु अबूबकर को पराजित किया। बुहारी की पार्टी ऑल प्रोग्रेसिव कांग्रेस को एक करोड़ 52 लाख वोट मिले और अतीकु की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को एक करोड़ 13 लाख। देश के कुल आठ करोड़ वोटरों में से करीब दो करोड़ 65 लाख लोगों ने ही मतदान में हिस्सा लिया। यह संख्या एक नए विकासशील लोकतंत्र के लिए उत्साहवर्धक नहीं है। दूसरे विकासशील देशों की तरह नाइजीरिया में मतदान के दौरान धांधली की शिकायतें हैं। पर मतदान प्रतिशत कम रहने की क्या वजह हो सकती है? क्या लोगों को मतदान से रोका गया? हारे हुए प्रत्याशी का कहना है कि सेना के अत्यधिक इस्तेमाल से ऐसा हुआ। कुछ पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि मतदाताओं की दिलचस्पी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं है।

ये चुनाव पिछली 16 फरवरी को ही हो जाते, पर अचानक उन्हें स्थगित कर दिया गया। उसका कारण जो भी रहा हो, पर पिछले हफ्ते कई स्थानों पर अज्ञात बंदूकधारियों के हमलों में 66 लोगों की मृत्यु होने के बाद लगता है कि सरकार को किसी किस्म का अंदेशा पहले से था। राष्ट्रीय चुनाव आयोग की तैयारियाँ ठीक नहीं थीं। इस वजह से आयोग ने मतदान के कुछ घंटे पहले चुनाव टालने का फैसला किया। यों तो आयोग ने इसकी कई वजहें गिनाई थीं। इनमें तोड़फोड़, हिंसा, खराब मौसम और लॉजिस्टिक्स से जुड़ी दिक्कतें शामिल थीं, पर वास्तव में आयोग की अपनी तैयारियाँ अधूरी थीं।

सऊदी शहज़ादे की यात्रा और एशिया का बदलता सीन


परम्पराओं को तोड़कर शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान का स्वागत करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हवाई अड्डे जाना हाल में सुर्खियों में था। पर सऊदी अरब का ज़िक्र पिछले दिनों कुछ और बातों के लिए भी हुआ। सऊदी अरब का आधुनिकीकरण, उसकी विदेश-नीति और अर्थ-व्यवस्था में बदलाव अब दुनिया की दिलचस्पी के नए विषय हैं। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या का प्रसंग सामने आने के कारण कुछ समय के लिए उसके आधुनिकीकरण की खबरें पीछे चली गईं थीं। हाल में एशिया के तीन महत्वपूर्ण देशों में एमबीएस यानी क्राउन प्रिंस के दौरे के बाद सऊदी अरब फिर से खबरों में है।
माना जा रहा है कि सऊदी अरब की दिलचस्पी एशिया के पुनर्जागरण में  है और भविष्य के पूँजी निवेश और कारोबार के लिए वह अपने नए साझीदारों को खोज रहा है। साथ ही वह अपने नए चेहरे को दुनिया के सामने पेश करना चाहता है। नवीनतम समाचार यह है कि सऊदी अरब ने पहली बार एक महिला को अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया है। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या के बाद अमेरिका के साथ उसके रिश्तों में खलिश आ गई है, शायद उसे दुरुस्त करने और सऊदी अरब को नई रोशनी में दुनिया के सामने पेश करने के इरादे से यह फैसला किया गया है। दिसम्बर में अमेरिकी सीनेट ने खाशोज्जी की हत्या के सिलसिले में क्राउन प्रिंस की भर्त्सना की थी।
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