तकरीबन एक महीने से फ्रांसीसी जनता बगावत पर उतारू है। पिछले
17 नवम्बर से राजधानी पेरिस सहित देश के शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। इसमें 1500
से ऊपर गिरफ्तारियाँ हुईं हैं। कम से कम तीन मौतों की खबरें भी है। आंदोलनकारी
जगह-जगह यातायात रोक रहे हैं। उन्होंने पुलिस पर हमले किए हैं और सार्वजनिक
सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया है। इस आंदोलन की शुरुआत ‘इको टैक्स’ यानी
पर्यावरण संरक्षण के लिए एक नए टैक्स के विरोध में हुई थी, पर इसने प्रशासन और
अर्थव्यवस्था के प्रति एक व्यापक असहमति का रूप ले लिया है। केवल टैक्स इसका कारण होता तो यह आंदोलन टैक्स वापसी के बाद खत्म हो
जाना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं है।
सोमवार
10 दिसम्बर को राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों, कर्मचारी
नेताओं और स्थानीय निकायों के पदाधिकारियों से लम्बी बातचीत की। वे आंदोलन की
हिंसक प्रवृत्ति को लेकर परेशान हैं। हालांकि उन्हें निकट भविष्य में चुनाव का
सामना नहीं करना है। अगले चुनाव 2022 में होंगे। संसद में उनके पास जबर्दस्त बहुमत
है, पर वे जिन आर्थिक सुधारों पर आगे बढ़ने के बारे में विचार कर रहे थे, उनमें
अड़ंगा लग रहा है। सड़कों पर आंदोलनकारी पथराव कर रहे हैं, दुकानों और रेस्त्रांओं
को लूट रहे हैं और कारों को जला रहे हैं। अब यह आंदोलन बगावत का रूप लेता जा रहा
है।
‘यलो जैकेट (ज़िले ज़ोन)’ या पीली कमीज आंदोलन नाम से प्रसिद्ध इस बगावत ने पूरे यूरोप को
हिला दिया है और फ्रांस के बाद अब यह इटली, बेल्जियम और हॉलैंड में भी फैल रहा है।
इसके पीछे कोई संगठन या विचारधारा भी दिखाई नहीं पड़ रही है, इसलिए अंदेशा इस बात
का भी है कि कोई चरमपंथी विचार इसे हाईजैक न कर ले। इसके अराजक स्वरूप को देखते
हुए शनिवार 8 दिसम्बर को अपने एक टीवी
संदेश में फ़्रांसीसी प्रधानमंत्री एडुअर्ड फिलिपे ने कहा कि शरारती तत्व इसपर
हावी होने की कोशिश कर रहे हैं।
बेल्जियम में भी प्रदर्शन
ब्रसेल्स से खबरें
मिल रहीं हैं कि वहाँ भी हजारों की तादाद में पीली जैकेट वालों ने सड़कों पर
प्रदर्शन किए हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया है। पुलिस ने उनके
खिलाफ वॉटर कैनन का प्रयोग किया है। वहाँ भी कई सौ लोगों की गिरफ्तारियाँ हुईं
हैं। जिस तरह से फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफे की माँग की जा रही है
उसी तरह अब बेल्जियम के प्रधानमंत्री चार्ल्स मिशेल का इस्तीफा माँगा जा रहा है।
नीदरलैंड्स के एम्स्टर्डम और रोटरडैम शहरों से भी आंदोलन की खबरें हैं। लगता है कि
असंतोष दूर तक फैलेगा।
फ्रांस में इस
आंदोलन के कारण कई शहरों में थिएटर बंद कर दिए गए हैं। फ़्रांस की फुटबॉल लीग के मैच स्थगित कर दिए गए। ईफेल टॉवर और दूसरे ऐतिहासिक स्थलों को भी बंद कर दिया गया। दिसम्बर
का महीना फ्रांस में पर्यटन का समय होता है। काफी पर्यटक इन दिनों पेरिस में आते
हैं। सरकार का कहना है कि पूरे देश में 90,000 सुरक्षा सैनिक तैनात किए गए हैं। आंदोलन
की शुरूआत 17 नवम्बर को हुई थी, जिसमें तीन लाख से ज्यादा लोगों ने देश के अलग-अलग
शहरों में जाम लगाए और रैलियाँ कीं। देखते ही देखते इस आंदोलन ने बगावत की शक्ल ले
ली। आंदोलनकारियों ने यातायात रोका, पेट्रोल डिपो घेरे और पुलिस पर हमले किए। कुछ
आंदोलनकारियों की मौत भी हुई।
आंदोलन उग्र होता
गया और 21 नवम्बर तक इस आंदोलन के कारण 585 नागरिकों के और 113 पुलिसकर्मियों के
घायल होने की खबरें आईं। आंदोलन फ्रांस तक ही सीमित नहीं था, बल्कि हिंद महासागर
में फ्रांस प्रशासित द्वीप रियूनियन में दंगे हुए। वहाँ तीन दिन के लिए स्कूल बंद
कर दिए गए। सेना तैनात करनी पड़ी। आंदोलन के कारण सरकार ने दबाव में आकर टैक्स में
वृद्धि वापस ले ली है। मध्य वर्ग का यह गुस्सा फ्रांस में ही नहीं है, यूरोप के
दूसरे देशों में भी है। ऐसे ही आंदोलन इटली, बेल्जियम और हॉलैंड में भी शुरु हुए
हैं।
यलो
जैकेट नाम क्यों?
अंग्रेजी में बर्र
या ततैया के लिए यलो जैकेट शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। इस आंदोलन से जुड़े
लोगों का व्यवहार बर्र जैसा है। पर केवल इसी वजह से इस आंदोलन को ‘यलो जैकेट’ नाम नहीं मिला। वस्तुतः सन 2008 से देश में मोटर-चालकों के लिए अपनी
गाड़ी में पीले रंग के चमकदार जैकेट रखना अनिवार्य कर दिया गया है, ताकि आपदा की
स्थिति में दूर से पहचाना जा सके। आंदोलन में शामिल लोग पीली जैकेट पहनते हैं। अब
यह जैकेट आंदोलन प्रतीक बन गया है। पचास के दशक से फ्रांस में मोटर वाहनों की खरीद
को बढ़ावा दिया गया। डीजल इंजनों के निर्माण पर सब्सिडी दी गई। कम्पनियों को
मोटर-वाहन खरीदने पर टैक्स में छूट दी गई। इस वजह से गाड़ियों की भरमार हो गई।
इससे देश में मोटर-वाहन उद्योग को बढ़ावा मिला। समृद्धि भी बढ़ी।
आंदोलन के पीछे
बुनियादी तौर पर अपनी व्यवस्था के प्रति रोष है। इनमें सबसे ज्यादा मध्यवर्ग के
गोरे लोग हैं, जो मानते हैं कि व्यवस्था ने उन्हें भुला दिया है। उनका कहना है कि
हम सबसे ज्यादा टैक्स भरते हैं, फिर भी हमसे ही सारी वसूली की जाती है। उन्हें
पूँजीवादी व्यवस्था से भी शिकायत है। संयोग से पिछले कुछ वर्षों में पेट्रोलियम की
कीमतें बढ़ीं और फ्रांस सरकार ने अपने खर्चे पूरे करने के लिए टैक्स बढ़ाए। जलवायु
परिवर्तन के मद्देनजर सन 2014 से सरकार ने जीवाश्म-आधारित तेल की खपत कम करने के
लिए भी पेट्रोलियम के उपभोग पर कार्बन टैक्स बढ़ा दिया। इतना ही नहीं सन 2019 में
और नए टैक्स लगाने की योजना है। इन सब बातों का मिला-जुला प्रभाव यह हुआ कि
नागरिकों के मन में नाराजगी बढ़ने लगी। यह महंगाई पिछले राष्ट्रपति फ्रांस्वा
ओलांद के समय में शुरू हो गई थी, पर नाराजगी पिछले महीने भड़की।
दबाव
में सरकार
राष्ट्रपति
मैक्रों आंदोलन का सामना करने के लिए अपनी सरकार की आपातकालीन बैठकें कर रहे हैं, उन्होंने
बढ़े हुए टैक्स को वापस लेने की घोषणा की है। वे आंदोलनकारियों से बात भी करना
चाहते हैं, पर दिक्कत यह है कि यह संगठित आंदोलन नहीं है और न कोई संगठन इसके पीछा
नजर आ रहा है। पर्यावरण मंत्री फ्रांस्वा दे रूगी ने आंदोलनकारियों के कुछ
प्रतिनिधियों से बातचीत की भी है, पर आंदोलन वापसी का माहौल बन नहीं रहा है। फ्रांस
में मध्य वर्ग के आंदोलनों का लम्बा इतिहास है।
फ्रांस
की राज्यक्रांति से लेकर बीसवीं सदी में चालीस और सत्तर के दशकों में इस किस्म के
आंदोलन होते रहे हैं। इस आंदोलन को सन 1968 के छात्र आंदोलनों के बाद देश का सबसे
बड़ा आंदोलन माना जा रहा है। पर्यवेक्षक अभी यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह आंदोलन
किसी बड़े आंदोलन की पृष्ठभूमि बनेगा या फौरी तौर पर उठी नाराजगी मात्र है, जो
थककर अपने आप खत्म हो जाएगा। हालांकि आंदोलनकारी जिन तौर-तरीकों को अपना रहे हैं,
वे श्रमिक संगठनों के आंदोलनों जैसे हैं। पर इस आंदोलन के पीछे कोई राजनीतिक संगठन
नहीं है।
आंदोलनकारियों
की माँगें भी स्पष्ट नहीं हैं। कुछ चाहते हैं कि टैक्स कम हों, कुछ चाहते हैं कि
अमीरों पर टैक्स लगें, कुछ चाहते हैं कि सार्वजनिक सुविधाएं बढ़ें, कुछ चाहते हैं
कि सरकार सामाजिक कल्याण के और काम हाथ में ले, कुछ चाहते हैं कि पूँजीवाद का
खात्मा हो। कुछ की माँग है कि राष्ट्रपति मजबूत हो, जबकि कुछ कहते हैं कि वर्तमान
राष्ट्रपति बहुत ताकतवर और सख्त है।
कई तरह की नाराज़गियाँ
लगता यह
है कि यह आंदोलन अलग-अलग किस्म की नाराज़गियों को एक साथ व्यक्त कर रहा है। बहरहाल
मोटे तौर पर दो अंतर्विरोधी बातें समझ में आ रहीं हैं। एक है फ्रांसीसी राज्य से
नाराज तबका। और दूसरा राज्य की भूमिका को बढ़ाने का समर्थक वर्ग। सरकारी दफ्तरों
और संस्थानों पर हमला करने वाले और हिंसक कार्रवाइयाँ करने वाले फ्रांसीसी राज्य
से नाराज हैं। वे मानते हैं कि हमारी सारी समस्याएं राज-व्यवस्था के कारण हैं। वे
राष्ट्रपति मैक्रों के तौर-तरीकों से भी नाराज हैं। राज-व्यवस्था के खिलाफ
नाराज़गी इस प्रकार व्यक्तिगत रूप से मैक्रों के प्रति नाराज़गी में बदल गई है।
इतना होने के बावजूद आंदोलनकारियों का एक वर्ग मानता है कि राज्य को बहुत कुछ करना
चाहिए।
आंदोलनकारियों
का यह तबका टैक्सों में कमी के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में डाकघरों जैसी सुविधाएं
बढ़ाने, नागरिकों की माली हालत सुधारने, सम्पत्ति कर कम करने, ग्रामीण
चिकित्सालयों में डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने की माँग कर रहा है। वे मानते हैं कि
राज्य उनकी समस्याओं का समाधान कर सकता है। पश्चिमी पूँजीवादी विचार जहाँ राज्य की
भूमिकाओं को कम करने का समर्थक है, वहीं दूसरे विश्व युद्ध के बाद से फ्रांसीसी राज्य
की भूमिका जीवन के हरेक क्षेत्र में बढ़ी है। नागरिकों की सब्सिडी कामना बढ़ी है।
दूसरी तरफ यूरोपीय संघ का दबाव है कि राज-व्यवस्था को अपने खर्च कम करने चाहिए। इस
तरह से फ्रांसीसी राज्य दोतरफा दबाव में है। ये आंदोलन इस अंतर्विरोध की कहानी भी
कह रहे हैं।
फ्रांस
का यह आंदोलन केवल पेरिस या दूसरे बड़े शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका
भौगोलिक आयाम बहुत बड़ा है। छोटे शहरों और कस्बों में आंदोलन ज्यादा व्यापक है।
इसका उदाहरण है हिन्द महासागर के द्वीप रियूनियन में पैदा हुई बगावत की स्थिति।
इसकी एक वजह यह भी है कि फ्रांस में शहरी इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर तरीके
से विकसित हुआ है। सरकारी खर्चों में कटौती के कारण सबसे ज्यादा कस्बाई और देहाती
इलाके प्रभावित हुए हैं। पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि का विरोध करने वालों में
बड़ी तादाद उन लोगों की है, जो दूर-दराज से अपने वाहनों पर आते हैं। इसकी वजह यह
है कि उन्हें सार्वजनिक परिवहन उपलब्ध नहीं है। खर्चों में कटौती के चक्कर में
सरकार डीजल पर से सब्सिडी वापस ले रही है। फ्रांस में 61 फीसदी लोगों के पास डीजल
कारें हैं। सरकार ने लम्बे समय तक डीजल वाहनों को प्रोत्साहन दिया। अब सब्सिडी
वापस होने के कारण ट्रक चालक और किसान भी परेशान हैं।
फॉरगॉटन ह्वाइट मिडिल
‘ह्वाइट
मिडिल क्लास या फ्रांस की फॉरगॉटन मिडिल क्लास’
गुस्से में है। उन्हें लगता है कि हम भारी टैक्स और सामाजिक सुरक्षा-शुल्क भरते
हैं, पर बदले में पाते बहुत कम हैं। उन्हें सरकारी पेंशन और बेरोजगारी बीमा-राशि
मिलता है। पर उन्हें लगता है कि देश के गरीबों को बेहतर सुविधाएं मिलतीं हैं। वे
अमेरिकी व्यवस्था से अपनी तुलना करते हैं। फ्रांस में 30,675 से 82,237 डॉलर तक की
सालाना आय वाले को 30 फीसदी टैक्स देना होता है, जबकि अमेरिका में 30,675 डॉलर की आय
वाला 12 फीसदी और 82,237 डॉलर पाने वाला भी 22 फीसदी टैक्स भरता है।
ज़ाहिर
है कि बात डीजल की कीमतों से शुरू होकर ज्यादा बड़े मसलों तक जा रही है। देश का
मध्य और उच्च मध्य वर्ग भी कह रहा है कि हमें तो निचोड़ लिया गया है। वस्तुतः यह
नाराजगी सरकोज़ी के दौर में भी थी और ओलांद के वक्त में भी, पर अब यह मुखर हो रही
है। इस आंदोलन को ट्रेड यूनियन या इसी प्रकार के दूसरे संगठन नहीं चला रहे हैं,
जिससे यह भी लगता है कि जनता की दिलचस्पी इन संगठनों में भी नहीं है। फ्रांस के
इतिहास में यह एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है।
कुछ
पर्यवेक्षकों को लगता है कि फ्रांस के दक्षिणपंथी इसका फायदा उठाएंगे। देश की
दक्षिणपंथी नेता मैरीन ल पेन की पार्टी नेशनल रैली पार्टी ने पीली जैकेट आंदोलन का
समर्थन किया है। इस पार्टी का पहले नाम नेशनल फ्रंट था। अलबत्ता अभी यह संगठन
आंदोलन की अगली कतार में शामिल नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि देश में संगठित आंदोलन
नहीं हुए हैं। पिछले दिनों जब मैक्रों ने श्रमिक कानूनों में बदलाव की पेशकश की और
कम्पनियों के ‘हायर एंड फायर’ अधिकार बढ़ा दिए थे,
तब मई के महीने में हजारों श्रमिकों ने पेरिस में प्रदर्शन किए थे। उसी दौरान
सरकारी रेल कम्पनी के स्वरूप में बदलाव के विरोध में देश के रेल कर्मचारी हड़ताल
पर गए थे। अब मैक्रों अगले साल पेंशन प्रणाली में सुधार की योजना लेकर आए हैं। इन
बातों का विरोध हो रहा है, पर पीली जैकेट आंदोलन इन सबसे अलग है।
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