बदलते वैश्विक-परिदृश्य में नई सरकार की चुनौतियाँ
अगले कुछ दिनों में देश की नई सरकार का गठन हो जाएगा। देश इक्कीसवीं
सदी के तीसरे दशक में प्रवेश करने वाला है। हमारे लोकतंत्र की विशेषता है कि उसमें
निरंतरता और परिवर्तन दोनों के रास्ते खुले हैं। विदेश-नीति ऐसा क्षेत्र है,
जिसमें निरंतरता और प्रवाह की जरूरत ज्यादा होती है। सन 1947 में स्वतंत्रता
प्राप्ति के काफी पहले हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने भावी विदेश-नीति के कुछ बुनियादी
सूत्रों को स्थिर किया था, जो किसी न किसी रूप में आज भी कायम हैं। इनमें सबसे
महत्वपूर्ण है असंलग्नता की नीति। हम किसी के पिछलग्गू देश नहीं हैं, और किसी से हमारा
स्थायी वैर भी नहीं है। अपने आकार, सांस्कृतिक वैभव और भौगोलिक महत्व के कारण हम
हमेशा दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में गिने गए।
सच यह है कि हम विदेश-नीति से जुड़े मसलों को
कॉज़्मेटिक्स या बाहरी दिखावे तक ही महत्व देते हैं। उसकी गहराई पर नहीं जाते। हाल
में हुए लोकसभा-चुनाव में पुलवामा से लेकर मसूद अज़हर का नाम कई बार लिया गया, पर
विदेश-नीति चुनाव का मुद्दा नहीं थी। इसकी बड़ी वजह यह है कि विदेश-नीति का आयाम हम
राष्ट्रीय-सुरक्षा के आगे नहीं देखते हैं। आर्थिक-विकास भी काफी हद तक विदेश-नीति
से जुड़ा है। गोकि हमारी अर्थ-व्यवस्था चीन की तरह निर्यातोन्मुखी नहीं है, फिर भी
बेरोजगारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवहन, आवास, विज्ञान और तकनीक जैसे तमाम मसलों का
विदेश-नीति से रिश्ता है।
भारत जैसे देशों के सामने सवाल है कि आर्थिक
विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? पिछले
डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी।
ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? सन 2015 का सहस्राब्दी लक्ष्यों के
पूरा होने का साल था। उन्नीसवीं सदी के अंत में संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले
दुनिया ने लोगों को दरिद्रता के अभिशाप से बाहर निकालने का संकल्प किया था। वह
संकल्प पूरा नहीं हो पाया। अब उसके लिए सन 2030 का लक्ष्य रखा गया है।