शनिवार, 27 अप्रैल 2019

श्रीलंका में दाएश का हमला समूचे भारतीय-भूखंड के लिए सबक और चेतावनी


सीरिया में पिटाई के बाद लगता था कि इस्लामिक स्टेट कहीं न कहीं सिर उठाएगा। उसे अपनी उपस्थिति का एहसास कराना है। श्रीलंका में रविवार को हुई हिंसा की जिम्मेदारी लेकर उसने इस बात को साबित किया है। अभी तक दक्षिण एशिया उसके निशाने से बचा हुआ था। यों 2016 में बांग्लादेश की घटनाओं के बाद कहा गया था कि वहाँ इस्लामिक स्टेट जड़ें जमा रहा है। कश्मीर घाटी में अक्सर उसके काले झंडे नजर आते हैं। फिर भी इस्लामिक स्टेट के खतरे को बहुत गम्भीरता से नहीं देखा गया। श्रीलंका की हिंसा भारत के लिए ही नहीं दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए चेतावनी है।
श्रीलंका में तकरीबन दस साल से चली आ रही शांति जिस भयानक हत्याकांड से भंग हुई है, वह समूचे भारत-भूखंड के लिए खतरे की घंटी है। दुनिया की सबसे बहुरंगी-बहुल संस्कृति वाला समाज इसी इलाके में रहता है। करीब तीन दशक तक चले तमिल-गृहयुद्ध के बाद उम्मीद थी कि श्रीलंका के निवासी जातीय-साम्प्रदायिक आधारों पर अपने आपको बाँटने के बजाय सामूहिक सुख-समृद्धि के रास्ते तैयार करेंगे। इन कोशिशों को तोड़ने के प्रयास अब फिर शुरू हो गए हैं। बहरहाल श्रीलंका की प्रशासनिक-व्यवस्था ने इस हिंसा के बाद सम्भावित टकराव को रोकने में सफलता हासिल की है।

सूडान में फौजी शासकों पर जनता का भारी दबाव

सूडान में लोकतांत्रिक आंदोलन अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रहा है। पिछले कुछ महीनों से चल रहे आंदोलन के बाद 32 साल से कुर्सी पर जमे बैठे सूडान के स्वयंभू शासक उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़नी पड़ी है, पर उनके स्थान पर फौजी कौंसिल ने सत्ता हथिया ली है। देश की युवा आबादी आंदोलन की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सेना के साथ नागरिकों की लगातार बातचीत चल रही है। सेना ने तत्काल नागरिक शासन की उनकी मांग को मानने से इनकार कर दिया है, जिसके कारण पिछले रविवार को बातचीत एक मोड़ पर आकर ठहर गई है।

जनता के प्रतिनिधियों का कहना है कि सेना नागरिक परिषद को सत्ता सौंप दे। आंदोलनकारी सूडानी प्रोफेशनल्स एसोसिएशन (एसपीए) के प्रवक्ता मोहम्मद अल-अमीन ने सेना परिसर में जमा हजारों प्रदर्शनकारियों की भीड़ को बताया कि हम फौजी कौंसिल के साथ अपनी बातचीत स्थगित कर रहे हैं, पर हमारा धरना-प्रदर्शन जारी रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि हमारी लड़ाई खत्म नहीं हुई है, क्योंकि फौजी कौंसिल बशीर की बेदखल सरकार से कोई खास अलग नहीं है। फौजी अफसरों की दिलचस्पी लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने में नहीं है।

देश के नए फौजी शासक लेफ्टिनेंट जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान ने रविवार को सरकारी टेलीविजन पर कहा कि हम जनता के हाथों में सत्ता सौंपने को तैयार हैं, पर अराजकता के इस दौर में नहीं। अभी व्यवस्था को कायम होने देना चाहिए। हमें सत्ता को कोई मोह नहीं है, हम इससे चिपके नहीं रहेंगे। हम चाहते हैं कि आंदोलनकारी कोई ऐसा प्रस्ताव पेश करें, जिसे स्वीकार किया जा सके।

प्रदर्शनकारियों का कहना है कि सैनिक नेतृत्व की दरअसल हमारी बातों में दिलचस्पी है ही नहीं। इसमें शामिल लोग वही हैं, जो अब तक सत्ता में बैठे थे। वे नई व्यवस्था क्यों चाहेंगे? हमारे पास अब आंदोलन को तेज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। अमेरिका की उस सूची में सूडान का नाम भी है, जिसमें आतंकवादी देशों के नाम दर्ज हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि फौजी शासन हटे, तो इस सूची से सूडान का नाम हट सकता है। इस सिलसिले में बातचीत के लिए सूडानी नागरिकों का एक दल अमेरिका जाने वाला है। सूडान के इस आंदोलन को अमेरिकी मीडिया का समर्थन भी मिल रहा है।

हालांकि प्रदर्शनकारियों में बहुत से नौजवान इस बात से खुश हैं कि फौजी शासक जनता को सत्ता सौंपने को तैयार हैं, पर उनके समझदार नेताओं का कहना है कि ये बातें समय काटने और भरमाने के लिए की जा रही हैं। सेना इस बात के लिए भी तैयार है कि किसी असैनिक को देश का प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जाए, पर वह सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी छोड़ने को तैयार नहीं है। आंदोलनकारी इस मामले में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की मदद लेने को तैयार भी नहीं हैं। इन दोनों देशों ने तीन अरब डॉलर की सहायता देने की पेशकश की है। इसपर आंदोलनकारियों ने कहा कि हमें सऊदी समर्थन नहीं चाहिए। आप अपना पैसा अपने पास रखें। अल जजीरा ने एक स्थानीय कारोबारी को उधृत किया है कि हम अपने देश का निर्माण अपने साधनों से कर लेंगे। हमें अच्छा नेतृत्व चाहिए विदेशी सहायता नहीं। जिस वक्त उमर अल-बशीर हमारे लोगों की हत्या कर रहा था, तब ये देश क्यों नहीं बोले?

इसके पहले सऊदी अरब और यूएई ने कहा था कि हम 50 करोड़ डॉलर सूडान के केन्द्रीय बैंक में जमा कर देंगे, जिससे सूडानी पौंड पर दबाव कम हो जाएगा और मुद्रा-विनिमय की दिक्कतें दूर हो जाएंगी। सहायता से जुड़ी शेष धनराशि भोजन, औषधियों, ईंधन वगैरह पर खर्च की जा सकती है। आंदोलनकारियों को लगता है कि यह सब फौजी शासन को बचाने की चाल है।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

ब्रेक्जिट के बहाने ब्रिटिश लोकतंत्र के धैर्य की परीक्षा

यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के अलगाव यानी ब्रेक्जिट का मसला करीब दो महीने की गहमागहमी के बाद 12 अप्रैल के बजाय 31 अक्तूबर, 2019 तक के लिए टल गया है। अलगाव होना तो 29 मार्च को ही था, पर उससे जुड़े समझौते को लेकर मतभेद इतने प्रबल थे कि वह समय पर नहीं हो पाया और यूरोपीय यूनियन ने उसे 12 अप्रैल तक बढ़ा दिया था। बहरहाल अब यदि 31 अक्तूबर के पहले ब्रिटिश किसी प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगी, तो अलगाव उससे पहले भी हो सकता है। ब्रसेल्स में 11 अप्रैल को यूरोपीय यूनियन के नेताओं की शिखर वार्ता के बाद इस मसले को छह महीने बढ़ाने का फैसला किया गया, ताकि ब्रिटिश संसद ठंडे दिमाग से कोई फैसला करे। सारा मामला करीब-करीब हाथ से निकल चुका था, पर कॉमन सभा ने अंतिम क्षणों में हस्तक्षेप करके इस अनिश्चय को फिलहाल रोक लिया है।

गत 4 अप्रैल को अंततः एक वोट के बहुमत से संसद ने यह फैसला किया कि ईयू के साथ हुई संधि के अनुच्छेद 50 को लागू करने की तारीख बढ़ाई जाए, ताकि बगैर किसी समझौते के ब्रेक्जिट की सम्भावना को टाला जा सके। इस पूरे मामले में टेरेसा मे की सरकार की फज़ीहत हुई, साथ ही संकटों से निपटने की ब्रिटिश लोकतंत्र की सामर्थ्य पर भी सवाल खड़े हुए हैं। इस मौके पर जरूरत इस बात की थी कि सत्तापक्ष और विपक्ष मिलकर रास्ते निकालते। इस दौरान संसद में तीन बार सरकार की हार हुई, बावजूद इसके कि वह विश्वासमत जीत चुकी थी।

सूडान और अल्जीरिया में सत्ता-परिवर्तन

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सूडान और अल्जीरिया में एक साथ हुए सत्ता-परिवर्तनों ने सन 2011 के बहार-ए-अरब यानी अरब स्प्रिंग की याद ताजा कर दी। संयोग से दोनों जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने जबर्दस्त भूमिका निभाई है। पहले अल्जीरिया के अब्देल अजीज बूतेफ़्लीका की छुट्टी हुई और उसके बाद सूडान के उमर अल-बशीर का पतन हुआ। इन दोनों देशों के अलावा हाल में ट्यूनीशिया और मोरक्को में भी आंदोलनों ने फिर से सिर उठाया है। सन 2001 की बहार-ए-अरब के पीछे ट्यूनीशिया के एक नौजवान के आत्मदाह की भूमिका थी, जिसकी खबर सोशल मीडिया पर कानो-कान पूरे मगरिब और मशरिक में फैल गई थी। इसबार ट्रिगर पॉइंट कोई एक घटना नहीं है, पर लम्बे अरसे से सत्ता हथियाए लोगों के प्रति जनता की बेचैनी का इज़हार यह जरूर है। इस अभियान को भी सोशल-मीडिया की क्रांति कहा जा रहा है।

इस अभियान ने सूडान के तख्त पर 32 साल से जमे बैठे ताकतवर तानाशाह उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया है। इन्हीं अल-बशीर के नेतृत्व में सूडानी सेना ने इक्कीसवीं सदी के शुरू में दारफुर में भयावह नरमेध को अंजाम दिया था। उनकी उसी सेना को अब अपने मुखिया को गिरफ्तार करने पर मजबूर होना पड़ा। इलाके की युवा आबादी इन आंदोलनों की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सन 2011 के आंदोलनों ने इस इलाके के चार बड़े तानाशाहों का तख्ता पलटा था। तब पूरे इलाके में जनता के बीच अपनी व्यवस्था को लेकर बहस शुरू हुई थी, जिसकी तार्किक परिणति अब नजर आ रही है, गोकि यह भी एक चरण है।

मालदीव के संसदीय चुनावों में भी एमडीपी की भारी जीत

मालदीव के संसदीय चुनाव में मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) की भारी जीत से भारत ने संतोष की साँस ली है। मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहीम मोहम्मद सोलिह की सरकार के लिए भी यह खुशखबरी है, क्योंकि अब तमाम विधेयकों और नीति से जुड़े प्रस्तावों को संसद से मंजूरी मिलने में आसानी होगी। सितम्बर 2018 में हुए चुनाव में जीतने के बाद से राष्ट्रपति सोलिह का ध्यान देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने और चीनी कर्जे के दबाव से बाहर निकालने में है। भारत की दिलचस्पी हिन्द महासागर में अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाने में है। मालदीव में मित्र-प्रशासनिक व्यवस्था के आने से बेहतर और क्या हो सकता है।

पिछले साल हुए राष्ट्रपति पद के चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की पराजय के बाद भी अंदेशा इस बात का था कि कहीं संसदीय चुनाव में ऐसी स्थिति पैदा न हो जाए कि देश में राजनीतिक गतिरोध पैदा होने लगे। राष्ट्रपति पद के चुनाव में कई दलों ने मिलकर मोर्चा बनाकर अब्दुल्ला यामीन को पराजित किया था, पर इन दलों के बीच मतैक्य नहीं है और कुछ दलों की हमदर्दी अब्दुल्ला यामीन के साथ है। बहरहाल इस संसदीय चुनाव में यामीन खुद नहीं उतरे थे। उनकी पार्टी प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव ने अपने प्रत्याशी उतारे थे, पर उनकी भारी पराजय हुई। पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद को भारी जीत मिली।

बेल्ट एंड रोड: चीनी महत्वाकांक्षा के अंतर्विरोधों की कहानी

चीन का ‘बेल्ट एंड रोड’ कार्यक्रम एकबार फिर से खबरों में आने वाला है। इस महीने बीजिंग में ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ की दूसरी बैठक होने वाली है। फोरम की पिछली बैठक मई 2017 में हुई थी। पिछले दो साल में इस कार्यक्रम को लेकर दुनियाभर में अच्छी खासी बहस हुई है। अमेरिका समेत अनेक देशों को इसे लेकर शिकायतें हैं, पर भारत न केवल खुलकर इस कार्यक्रम का विरोध किया है, बल्कि पिछली बैठक का बहिष्कार भी किया। चीन उसके पहले और उसके बाद भी भारत को इस कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण देता रहा है। हालांकि भारत ने आगामी शिखर सम्मेलन के बारे में कुछ कहा नहीं है, पर सम्भावना यही है कि इसबार भी उसमें शामिल होगा नहीं।

भारत को इस कार्यक्रम को लेकर दो तरह की आपत्तियाँ हैं। पहली और बुनियादी आपत्ति इस बात पर है कि इस कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) जम्मू-कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके से होकर गुजरता है। हम जिस इलाके को अपना मानते हैं, उससे होकर गुजरने वाली किसी परियोजना का हिस्सा कैसे बन सकते हैं? दूसरा बड़ी आपत्ति इस कार्यक्रम की फंडिंग की लेकर है। भारत मानता है कि यह कार्यक्रम अनेक छोटे देशों को चीन का जबर्दस्त कर्जदार बना देगा। भारत की इस राय से दुनिया के तमाम विशेषज्ञ सहमत हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी इस बात को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है। हालांकि भारत वैश्विक-कनेक्टिविटी को बढ़ाने का समर्थक है, पर सम्प्रभुता का सवाल इस परियोजना में शामिल होने से पूरी तरह रोकता है।

ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा की जीत और यूरोप में महिला-शक्ति का उदय

पूर्वी यूरोप के छोटे से देश स्लोवाकिया ने पिछले 30 मार्च को एंटी-करप्शन प्रत्याशी ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा राष्ट्रपति के रूप में चुना है। वे देश की पहली महिला राष्ट्रपति हैं। स्लोवाकिया सभी तरफ़ से ज़मीन से घिरा देश है। इसका कुल क्षेत्रफल 49,035 वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में पोलैंड, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में चेक गणराज्य एवं ऑस्ट्रिया हैं। दान्यूब नदी इसकी राजधानी ब्रातिस्लावा से गुज़रती है और हंगरी के साथ स्लोवाकिया की सीमा बनाती है। देश का लगभग 30 फीसदी इलाका पहाड़ी है।

कैप्यूतोवा की विजय ने यूरोप की राजनीति में बढ़ती महिला-शक्ति को भी रेखांकित किया है। यूरोपीय संघ के 28 देशों में से उन्हें मिलाकर आठ देशों में राष्ट्र प्रमुख अब महिलाएं हैं। जर्मनी, ब्रिटेन, क्रोआसिया, एस्तोनिया, रोमानिया, माल्टा और लिथुआनिया के बाद अब स्लोवाकिया में भी राष्ट्रीय नेता महिला बनी हैं। इनके अलावा नॉर्वे, आइसलैंड, सर्बिया और जॉर्जिया जैसे गैर-ईयू देशों में भी महिला नेतृत्व है।

ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा का चुनाव जीतना देश में बदलाव की उम्मीदें लेकर आया है। भ्रष्टाचार से पीड़ित देश को उनसे काफी उम्मीदें हैं। पिछले साल एक पत्रकार की हत्या के बाद से पूरा देश भ्रष्टाचार और घूसखोरी को लेकर उद्विग्न चल रहा है। 45 वर्षीय कैप्यूतोवा ने सत्ताधारी वामपंथी स्मर-सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के मारोस सेफ्कोविच को परास्त किया है। सेफ्कोविच यूरोपीय आयोग के उपाध्यक्ष भी हैं। चुनाव हारने के बाद सेफ्कोविच ने घोषणा की कि मैंने ज़ुज़ाना कैप्यूतोवा के पास अपनी शुभकामनाओं के साथ फूलों का एक गुलदस्ता भेजा है। पहली महिला स्लोवाक राष्ट्रपति का यह हक बनता है।

ब्रेक्जिट की भैंस गई पानी में

कॉमन सभा में एक के बाद एक कोशिशों के बावजूद वह तरीका उभरकर नहीं आ रहा है, जिससे ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन का अलगाव ठीक-ठाक तरीके से हो सके। प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने ईयू की सहमति से जो समझौता (ब्रेक्जिट) तैयार किया था, उसे और उसके बाद उसमें सुधार की कोशिशों को संसद बार-बार अस्वीकार करती चली गई, तो आखिरी उम्मीद सोमवार 1 अप्रैल की बैठक में थी, जिसमें कम से कम चार प्रस्ताव ऐसे थे, जिनमें आगे की राह बताई गई थी। यह बैठक भी व्यर्थ हुई। चारों में से एक को भी संसद ने स्वीकार नहीं किया। इनमें कस्टम यूनियन और नॉर्वे जैसी व्यवस्था, ब्रिटेन को सिंगल मार्केट (एक बाज़ार) में बरक़रार रखने पर भी मतदान हुआ, लेकिन किसी भी विकल्प को स्वीकृति नहीं मिली। यह मतदान क़ानूनन बाध्यकारी नहीं था। किसी प्रस्ताव को बहुमत मिल भी जाता तो सरकार उसे मानने के लिए बाध्य नहीं होती, पर उससे रास्ता खुलता।

जिस विकल्प पर निकटतम सहमति बनी, वह यह था कि ब्रिटेन ईयू की कस्टम्स यूनियन में बना रहे। यह प्रस्ताव भी तीन वोट से पराजित हो गया। जिस प्रस्ताव को सबसे ज्यादा वोट मिले, वह था कि इन प्रस्तावों पर जनमत संग्रह करा लिया जाए, पर वह भी 292 के मुकाबले 280 वोटों से गिर गया। सरकार इन दोनों ही प्रस्तावों से असहमत थी। ईयू से हटने के बाद ईयू की कस्टम्स यूनियन में बने रहने का मतलब था व्यापारिक समझौते करने की स्वतंत्रता को खोना। दूसरे प्रस्ताव का मतलब था कि 2016 के इस वायदे से मुकरना कि जनमत संग्रह का फैसला लागू होगा।

नफरत और आतंक का एक नया चेहरा

न्यूज़ीलैंड को दुनिया के सबसे शांत देशों में एक माना जाता है। वहाँ पिछले 15 मार्च को क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के एक नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। दूसरी तरफ न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न और वहाँ की सरकार ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी के प्रति अपने समर्थन और एकजुटता का परिचय दिया उसकी दुनियाभर में तारीफ हो रही है। ऐसे वक्त में जब दुनिया को साम्प्रदायिक नफरतों की आँधियों ने घेर रखा है, उनके इस व्यवहार ने इस हत्याकांड से जन्मी पीड़ा को कुछ कम किया है। खासतौर से मुस्लिम समुदाय ने इस महिला की जबर्दस्त तारीफ की है।

जैसिंडा अर्डर्न के प्रति प्रतीक रूप में सम्मान व्यक्त करते हुए संयुक्त अरब अमीरात ने अपनी विश्व-प्रसिद्ध इमारत बुर्ज खलीफा में शुक्रवार की रात उनकी तस्वीर प्रदर्शित की, जिसमें हिजाब लगाए वे एक व्यक्ति को गले लगाती हुई दिखाई दे रही हैं। यूएई के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘आपने (पीड़‍ितों के प्रति) जिस तरह की एकजुटता प्रदर्शित की उसने दुनियाभर के 1.5 अरब मुसलमानों का दिल जीता है।

वेनेजुएला में टकराव की निर्णायक घड़ी


लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में बगावती नेता ख़ुआन गोइदो के समर्थन में आंदोलन बढ़ता चला जा रहा है। देश में महंगाई का बोलबाला है और सड़कों पर ब्लैक आउट चल रहा है, क्योंकि बिजली नहीं है। पिछले रविवार को गोइदो के आह्वान पर देशभर से लोग राजधानी काराकस पहुँचे और राष्ट्रपति निकोलस माडुरो के खिलाफ प्रदर्शन किया। जरूरत की चीजें कम पड़ती जा रहीं हैं और आर्थिक संकट चरम पर है। दवाओं का भीषण अभाव पैदा हो गया है।
उधर अमेरिका के नेतृत्व में 56 देशों ने संसद के नेता ख़ुआन गोइदो को राष्ट्रपति के रूप में मान्यता देकर माडुरो सरकार के खिलाफ अभियान छेड़ रखा है। सत्ता से जुड़ी ज्यादातर संस्थाएं राष्ट्रपति निकोलस माडुरो के पीछे खड़ी हैं और सेना भी उनके साथ है। अलबत्ता सेना के भीतर से भी नाराजगी के स्वर सुनाई पड़ने लगे हैं। कहना मुश्किल है कि किस वक्त विस्फोट हो जाए। जनता का काफी बड़ा तबका अंतरिम राष्ट्रपति के रूप में ख़ुआन गोइदो के पीछे खड़ा होने लगा है।  

सीरिया में इस्लामिक स्टेट की हार के बावजूद सवाल ही सवाल हैं


सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खात्मे का एलान अब सिर्फ औपचारिकता है। पूर्वी सीरिया का अलबाग़ूज़ क़स्बा आइसिस उर्फ आईएस या दाएश का आख़िरी ठिकाना था, जिसपर अब पश्चिमी देशों की सेनाओं का कब्ज़ा हो गया है या हो जाएगा। इस्लामिक स्टेट के सैनिकों और नेताओं ने या तो समर्पण कर दिया है या भाग निकले हैं। बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं। एक तरफ सीरिया में इस्लामिक स्टेट की पराजय की खबरें हैं, वहीं अफगानिस्तान और उत्तरी अफ्रीका में उनके सक्रिय होने के समाचार भी है। चुनौती उस व्यवस्था को कायम करने की है जिसमें इस गिरोह की वापसी फिर से न होने पाए।
अफ़ग़ानिस्तान में गुरुवार 7 मार्च को इस्लामी एकता पार्टी के नेता अब्दुल अली मज़ारी की बरसी के मौक़े पर आयोजित एक सभा में दाएश ने हमला किया। सभा में देश के मुख्य कार्याधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला सहित कई राजनीतिक हस्तियां शामिल थीं। शोक सभा स्थल के पास सिलसिलेवार बम धमाकों के कारण बरसी का कार्यक्रम अधूरा छोड़ दिया गया था। इसमें कम से कम 11 लोग मरे और 95 के घायल होने की खबरें हैं। ऐसी खबरें पश्चिम एशिया के कई इलाकों से मिल रहीं हैं।
मित्र देशों की असहमति
उधर पश्चिमी देशों में इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि पूर्वी सीरिया की सुरक्षा अब कैसे की जाएगी। अमेरिका ने अपने आठ मित्र देशों से कहा था कि वे शुक्रवार 8 मार्च तक इस बात की जानकारी दे दें कि कितनी जिम्मेदारी निभाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। इन देशों में ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी सबसे प्रमुख हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दिसम्बर में कहा था कि हमारी सेनाएं अब सीरिया से हट जाएंगी। इस घोषणा की अमेरिका के भीतर आलोचना हुई और सेना की फौरी वापसी रुक गई। अब अमेरिका कोशिश कर रहा है कि मित्र देशों के साथ मिलकर कोई व्यवस्था बने। इस व्यवस्था में यूरोप के मित्र देशों के अलावा कुर्दों के नेतृत्व में गठित सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ (एसडीएफ) तथा तुर्की की भूमिका होगी। इसमें भी अड़चन है। तुर्की की नजर में एसडीएफ भी आतंकवादी संगठन है।

आतंकी संगठनों पर नकेल डालने में क्या कामयाब होगा पाकिस्तान?


पुलवामा कांड के बाद से पाकिस्तान पर अपने उन कट्टरपंथी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव है, जो संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधित संगठनों की सूची में शामिल हैं। पिछले महीने फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की बैठक में भी पाकिस्तान से कहा गया था कि वह जल्द से जल्द कार्रवाई करे, वरना उसका नाम काली सूची में डाल दिया जाएगा। इन दबावों के कारण सोमवार 4 मार्च को पाकिस्तान सरकार ने उन सभी संगठनों की सम्पत्ति पर कब्जा करने की घोषणा की है, जिनके नाम संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंध सूची में हैं। इसके बाद भारत ने संकेत दिए हैं कि इन कदमों के मद्देनज़र हम फौजी कार्रवाई के इरादे को त्याग रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (प्रतिबंध और ज़ब्ती) आदेश, 2019 पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अधिनियम, 1948 के तहत है। इन संगठनों से जुड़े सभी धर्मादा (दातव्य) संगठनों की सम्पदा भी सरकारी कब्जे में चली जाएगी। जैश के चीफ मसूद अज़हर पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं, अभी यह स्पष्ट नहीं है। इसकी वजह यह है कि संरा सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध परिषद के प्रस्ताव 1267 में उनका नाम नहीं है। पाकिस्तान के विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने इस आदेश की जानकारी पत्रकारों को देते हुए बताया कि यह आदेश संरा सुरक्षा परिषद और पेरिस स्थित एफएटीएफ के निर्देशों के अनुरूप है।

नाइजीरिया में धीरे-धीरे जड़ें जमाता लोकतंत्र

कई तरह के विवादों के बीच नाइजीरिया के आम चुनाव हो गए और मुहम्मदु बुहारी फिर से देश के राष्ट्रपति चुने गए हैं। इस बार के चुनाव में भी धाँधली की शिकायतें हैं, पर संतोष इस बात का है कि दक्षिण पश्चिम अफ्रीका के इस देश में लोकतंत्र धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा है। मुहम्मदु बुहारी ने पूर्व उपराष्ट्रपति अतीकु अबूबकर को पराजित किया। बुहारी की पार्टी ऑल प्रोग्रेसिव कांग्रेस को एक करोड़ 52 लाख वोट मिले और अतीकु की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को एक करोड़ 13 लाख। देश के कुल आठ करोड़ वोटरों में से करीब दो करोड़ 65 लाख लोगों ने ही मतदान में हिस्सा लिया। यह संख्या एक नए विकासशील लोकतंत्र के लिए उत्साहवर्धक नहीं है। दूसरे विकासशील देशों की तरह नाइजीरिया में मतदान के दौरान धांधली की शिकायतें हैं। पर मतदान प्रतिशत कम रहने की क्या वजह हो सकती है? क्या लोगों को मतदान से रोका गया? हारे हुए प्रत्याशी का कहना है कि सेना के अत्यधिक इस्तेमाल से ऐसा हुआ। कुछ पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि मतदाताओं की दिलचस्पी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं है।

ये चुनाव पिछली 16 फरवरी को ही हो जाते, पर अचानक उन्हें स्थगित कर दिया गया। उसका कारण जो भी रहा हो, पर पिछले हफ्ते कई स्थानों पर अज्ञात बंदूकधारियों के हमलों में 66 लोगों की मृत्यु होने के बाद लगता है कि सरकार को किसी किस्म का अंदेशा पहले से था। राष्ट्रीय चुनाव आयोग की तैयारियाँ ठीक नहीं थीं। इस वजह से आयोग ने मतदान के कुछ घंटे पहले चुनाव टालने का फैसला किया। यों तो आयोग ने इसकी कई वजहें गिनाई थीं। इनमें तोड़फोड़, हिंसा, खराब मौसम और लॉजिस्टिक्स से जुड़ी दिक्कतें शामिल थीं, पर वास्तव में आयोग की अपनी तैयारियाँ अधूरी थीं।

सऊदी शहज़ादे की यात्रा और एशिया का बदलता सीन


परम्पराओं को तोड़कर शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान का स्वागत करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हवाई अड्डे जाना हाल में सुर्खियों में था। पर सऊदी अरब का ज़िक्र पिछले दिनों कुछ और बातों के लिए भी हुआ। सऊदी अरब का आधुनिकीकरण, उसकी विदेश-नीति और अर्थ-व्यवस्था में बदलाव अब दुनिया की दिलचस्पी के नए विषय हैं। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या का प्रसंग सामने आने के कारण कुछ समय के लिए उसके आधुनिकीकरण की खबरें पीछे चली गईं थीं। हाल में एशिया के तीन महत्वपूर्ण देशों में एमबीएस यानी क्राउन प्रिंस के दौरे के बाद सऊदी अरब फिर से खबरों में है।
माना जा रहा है कि सऊदी अरब की दिलचस्पी एशिया के पुनर्जागरण में  है और भविष्य के पूँजी निवेश और कारोबार के लिए वह अपने नए साझीदारों को खोज रहा है। साथ ही वह अपने नए चेहरे को दुनिया के सामने पेश करना चाहता है। नवीनतम समाचार यह है कि सऊदी अरब ने पहली बार एक महिला को अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया है। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या के बाद अमेरिका के साथ उसके रिश्तों में खलिश आ गई है, शायद उसे दुरुस्त करने और सऊदी अरब को नई रोशनी में दुनिया के सामने पेश करने के इरादे से यह फैसला किया गया है। दिसम्बर में अमेरिकी सीनेट ने खाशोज्जी की हत्या के सिलसिले में क्राउन प्रिंस की भर्त्सना की थी।

ब्रेक्जिट पर फैसले की आखिरी घड़ी, साँसत में ब्रिटेन

ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से अलग होने में अब एक महीने से कम का समय बचा है और अभी तक तय नहीं है कि यह विलगाव कैसे होगा। धीरे-धीरे लगने लगा है कि देश एक और जनमत संग्रह की ओर बढ़ रहा है। प्रमुख विरोधी दल लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन ने कहा है कि अब इस विषय पर एक और जनमत संग्रह होना चाहिए। उनका कहना है कि यदि हमारे बताए तरीके से अलगाव नहीं हुआ तो हम दूसरे जनमत संग्रह की माँग करेंगे।

उधर प्रधानमंत्री टेरेसा मे ने वायदा किया है कि 12 मार्च तक संसद में इस विषय पर एकबार फिर से मतदान कराने का प्रयास किया जाएगा। खबरें यह भी है कि वे ब्रेक्जिट की तारीख 29 मार्च से खिसका कर आगे बढ़ाने का प्रयास भी कर रही हैं, ताकि बगैर किसी समझौते के ब्रेक्जिट के हालात न बनें। अंदेशा इस बात का है कि ऐसा हुआ तो बड़ी संख्या में मंत्री सरकार से इस्तीफा दे देंगे। जो हालात बन गए हैं, उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि ब्रेक्जिट अब सामान्य तरीके से हो पाएगा।

इस मामले को लेकर एक और जनमत संग्रह की बातें काफी पहले से हो रही हैं। ज्यादातर लोगों को समझ में आ रहा है कि देश की जनता को एकबार फिर से सोचने का मौका दिया जाए कि ब्रिटेन का अलग होना ठीक है भी या नहीं और ठीक है, तो क्या वैसे समझौते के साथ होना चाहिए, जो टेरेसा में ने ईयू के साथ किया है? जेरेमी कोर्बिन ने इस बात का समर्थन करके इस सम्भावना को और ताकत दे दी है।

अमेरिका-चीन व्यापार वार्ता का निर्णायक दौर


पिछले साल के अंत में ब्यूनस आयर्स में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के हाशिए पर हुई वार्ताओं के कारण अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध में फिलहाल कुछ समय के लिए विराम लग गया था। तब ह्वाइट हाउस ने घोषणा की थी कि यदि 90 दिन के भीतर दोनों पक्ष किसी समझौते पर नहीं पहुँचे, तो चीनी माल पर जो टैरिफ अभी 10 फीसदी है, वह 25 फीसदी हो जाएगा। अमेरिका के अल्टीमेटम का समय पूरा हो रहा है और इन दिनों दोनों देशों के बीच वॉशिंगटन में व्यापार वार्ता फिर शुरू हो गई है। अमेरिका चाहता है कि 1 मार्च से नया समझौता लागू हो और जो भी हो लम्बे समय के लिए हो।

चीन के साथ ही नहीं, इन दिनों ट्रम्प प्रशासन दुनिया के सभी देशों के साथ अपने कारोबारी रिश्तों को पुनर्परिभाषित करने के काम में लगा हुआ है। यानी कि दुनिया की करीब 40 फीसदी अर्थ-व्यवस्था इस नई परिभाषा के दायरे में आने वाली है। रविवार 17 फरवरी को राष्ट्रपति ट्रम्प के पास अमेरिका के वाणिज्य विभाग ने एक प्रस्ताव भेजा है कि देश में ऑटो-आयात को रोका जाए। यह कदम राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर होगा। यदि यह कदम उठाया गया, तो इसका विपरीत प्रभाव अमेरिका के मित्र देशों पर ही पड़ेगा। इनमें यूरोपीय देशों के अलावा जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। सरकार ने अभी इसके बारे में विस्तार से विवरण नहीं दिया है और न यह बताया है कि उसकी रणनीति क्या होगी। जो भी होगा, उसका फैसला मई के मध्य तक करना होगा।

‘ट्विटर-क्रांति’ बनाम ‘ट्विटर-भ्रांति’ और भारत में नकेल डालने की कोशिशें


यों तो समूचा सोशल मीडिया दुधारी तलवार साबित हुआ है, पर इन दिनों भारत में ट्विटर की चर्चा ज्यादा है। बुनियादी वजह राजनीतिक है। लोकसभा चुनाव करीब हैं और हर रंगत की राजनीति अपने चरम पर है। पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सोशल मीडिया की भूमिका पहली बार बड़े स्तर पर उजागर हुई थी। सन 2013 के अप्रैल महीने में पहले राहुल गांधी के सीआईआई के भाषण और उसके बाद नरेन्द्र मोदी की फिक्की-वार्ता के बाद अचानक अनेक ऐसे हैंडल सामने आए, जिनका रुझान राजनीतिक था। इनमें से ज्यादातर मजाकिया हैंडल थे। उन्हीं दिनों एक रपट थी कि देश के 160 लोकसभा क्षेत्रों में फेसबुक के इतनी बड़ी संख्या में यूज़र हैं और वे परिणामों पर असर डाल सकते हैं।

नया शीत-युद्ध या शांति से पहले का तूफान?

सोवियत संघ के विघटन के बाद नब्बे के दशक में ऐसा लगा था कि शीत-युद्ध खत्म हो गया है, पर हाल की घटनाएं इशारा कर रही हैं कि यह एक नए रूप में फिर से शुरू हो गया है। दुनिया अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँची है। उसे कुछ और झटकों की जरूरत है। सीरिया, ईरान, अफगानिस्तान और वेनेजुएला की घटनाओं और अमेरिका-चीन कारोबारी टकराव की बारीकियों पर जाएं, तो जाहिर होगा कि सबके पीछे वही सब है, जो शीत-युद्ध के दौरान होता रहा था। अब अमेरिका और रूस के बीच इंटरमीडिएट रेंज (आईएनएफ़) न्यूक्लियर फ़ोर्स संधि टूट रही है। पहले अमेरिका ने और फिर रूस ने इस संधि को स्थगित करने की घोषणा कर दी है। सन 1987 में हुई इस संधि ने अटलांटिक महासागर के आर-पार के इलाकों में शांति और सुरक्षा का माहौल बनाया था, जो अब खत्म होने लगा है।

पिछले साल 20 अक्तूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने घोषणा की कि हम इस संधि से हाथ खींच रहे हैं। और अब व्लादिमीर पुतिन ने भी इसी आशय की घोषणा की है। अमेरिका का कहना है कि रूस तो इस संधि का लम्बे अर्से से उल्लंघन करता आया है और इक्कीसवीं सदी में वह कुछ ऐसी मिसाइलों का विकास कर रहा है, जो इस संधि के खिलाफ हैं। इस संधि के तहत दोनों देशों ने 500 से 5,500 किलोमीटर तक की दूरी तक मार करने वाली ऐसी मिसाइलों को त्यागने का फैसला किया था, जिन्हें जमीन से छोड़ा जाता है। इसके बाद दोनों देशों ने करीब 2600 मिसाइलों को नष्ट कर दिया। इस एक कदम से यूरोप में शांति और सुरक्षा का माहौल बन गया।

पूरे दक्षिण एशिया के लिए उम्मीदें जगाती है अफगान शांति-वार्ता

हाल में अफगानिस्तान में शांति-स्थापना के प्रयासों और अमेरिकी सेना की वापसी से जुड़ी खबरों के बीच 9 फरवरी के ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने एक विस्तृत समाचार प्रकाशित किया है कि अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान में तालिबान ठिकानों पर जबर्दस्त हमला बोला है। माना जा रहा है कि सन 2014 के बाद से यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है। इन हमलों का उद्देश्य है तालिबान के साथ चल रही शांति-वार्ता में पकड़ अमेरिका के हाथ में रखना। तालिबान को यह भ्रम न रहे कि वे जीत रहे हैं, इसलिए अमेरिका मैदान छोड़कर भाग रहा है। हाल में राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने सालाना ‘स्टेट ऑफ द यूनियन’ भाषण में कहा था कि हम अफगानिस्तान से अपनी सेना हटाने पर विचार कर रहे हैं।

अमेरिका के ताजा हमलों की मार तालिबानी वार्ताकारों के स्वरों में भी सुनाई पड़ रही है। इस वार्ता का संचालन कर रहे अमेरिकी दूत ज़लमय खलीलज़ाद ने हाल में कहा है कि तालिबानियों ने अतीत के अनुभवों से काफी सीख ली है। वे अब अछूत देश बनकर नहीं रहना चाहते। वे यह भी जानते हैं कि इस लड़ाई का सैनिक समाधान सम्भव नहीं है। अफगानिस्तान-अभियान के वर्तमान अमेरिकी सैनिक कमांडर जनरल ऑस्टिन एस मिलर का उद्देश्य तालिबानी ग्रुपों को ज्यादा से ज्यादा तकलीफ पहुँचाना है, ताकि सीधे अमेरिका से बात करने के लिए उनपर दबाव बने।

अफगान सेना की क्षति

पिछले महीने राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा था कि उन्होंने सन 2014 में जब से कार्यभार सँभाला है, हमारी सेना के 45,000 सैनिक इस लड़ाई में मारे जा चुके हैं। यह संख्या काफी बड़ी है और अब तक बताई जा रही संख्याओं से कहीं ज्यादा है। अफगानिस्तान में सामान्यतः वसंत के बाद लड़ाई तेज हो जाती है और गर्मियों में जबर्दस्त तरीके से होती है। पिछले साल अगस्त में तालिबान ने गज़नी सूबे पर काफी समय तक अपना कब्जा बनाए रखा था। पर इस बार सर्दियों में ही हमले बोलने के पीछे अमेरिकी रणनीति है कि तालिबान सेना को गर्मियों भर इस नुकसान को पूरा करने में ही लगाए रखा जाए।

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