अफ़ग़ानिस्तान में
शांति-स्थापना की दिशा में गतिविधियाँ जैसे-जैसे तेजी पकड़ रहीं हैं वैसे-वैसे इस
प्रक्रिया के अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। दिसम्बर में अमेरिकी मीडिया ने खबर दी थी कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने
पैंटागन से कहा है कि वे अप्रैल तक अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या 14,000 से
घटाकर 7,000 कर दें। बाद में हालांकि अमेरिका सरकार ने इस बात का खंडन भी किया, पर
बात कहीं न कहीं सच थी। अप्रैल गुजर चुका है, सेना की वापसी नहीं हुई है, पर
घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदल रहा है।
सबसे बड़ी घटना है सोमवार से शुरू हुआ लोया
जिरगा, यानी अफ़ग़ान नेतृत्व का महाधिवेशन। इसके समांतर अमेरिका-पाकिस्तान-तालिबान
की बातचीत चल रही है और साथ ही अमेरिका-चीन-रूस संवाद भी। कुछ समय पहले अमेरिकी
दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने कहा था, हमें उम्मीद है कि इस साल जुलाई में अफगान
राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही हम समझौता कर लेंगे। इसके पहले उन्होंने उम्मीद
जताई थी कि समझौता अप्रैल तक हो जाएगा। फिलहाल लगता नहीं कि जुलाई तक समझौता हो
पाएगा, पर कुछ न कुछ हो जरूर रहा है।
मॉस्को की त्रिपक्षीय वार्ता
पिछली 25 अप्रैल को मॉस्को में अमेरिका-चीन और
रूस के प्रतिनिधियों के बीच त्रिपक्षीय वार्ता के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य में
कहा गया कि तीनों देश इस बात पर सहमत हैं कि अफ़ग़ान-नेतृत्व में शुद्ध रूप से
अफ़ग़ान-केन्द्रित शांति-प्रक्रिया को समर्थन मिलना चाहिए। तीनों देश इस बात पर भी
सहमत हैं कि व्यवस्थित तरीके से विदेशी सेनाओं की वापसी हो। अभी तक
शांति-प्रक्रिया पर बातचीत अमेरिका और तालिबान के बीच चल रही थी। अब इस बातचीत का आधार
व्यापक हो गया है और इसमें अफ़ग़ानिस्तान सरकार की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो गई है।
इस त्रिपक्षीय-वार्ता का महत्व इस बात से भी
जाहिर है कि अमेरिकी दूत ने मॉस्को जाकर इसमें हिस्सा लिया और रूस और चीन को इस
प्रक्रिया में शामिल किया। इस वार्ता के एक दिन पहले यूरोपीय देशों को भी इस
प्रक्रिया से जोड़ा गया। यह आमराय एक मायने में बड़ी उपलब्धि है और 18 साल से चले
आ रहे संग्राम को रोकने में इसकी बड़ी भूमिका होगी।
तालिबान के वायदे
त्रिपक्षीय-वार्ता के बाद जारी बयान में कहा
गया है कि तालिबान ने दो वायदे किए हैं। ये हैं अल-कायदा से रिश्तों को तोड़ना और
इस्लामिक स्टेट के आतंकी गिरोह से लड़ना। तालिबान ने यह भरोसा भी दिलाया है कि
अफ़ग़ान ज़मीन का इस्तेमाल किसी अन्य देश के ख़िलाफ़ नहीं किया जाएगा और किसी
प्रकार की आतंकी-ट्रेनिंग उनके इलाके में नहीं होगी। बहरहाल अभी इस प्रकार की
सहमतियाँ तो हैं, पर इस बात पर सहमति नहीं है कि काबुल सरकार और उनके बीच सत्ता का
बँटवारा किस प्रकार का होगा।
इन तीन देशों ने तालिबान से यह जरूर कहा है कि
वे काबुल सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बैठकर बात करें। इसका बाद बीजिंग में तीन
देशों की अगली बैठक होगी। उस बैठक की तारीख और उसमें शामिल होने वालों के नामों की
घोषणा डिप्लोमैटिक चैनल पर विमर्श के बाद होगी।
इस त्रिपक्षीय वार्ता के पहले 20 अप्रैल को कतर
की राजधानी अमेरिकी प्रतिनिधि और तालिबान के बीच बातचीत होने वाली थी। वह वार्ता
तालिबान की आपत्ति के कारण स्थगित हो गई। तालिबान को अफ़ग़ान सरकार के प्रतिनिधि
मंडल को लेकर कुछ आपत्तियाँ थीं। बहरहाल 25 अप्रैल की वार्ता के बाद अब तालिबान पर
दबाव है कि वे काबुल सरकार के साथ बातचीत के तौर-तरीकों पर विचार करें। तीनों
देशों का दबाव है कि अब दोहा में अफ़ग़ानिस्तान के विभिन्न पक्षों के प्रतिनिधियों
के बीच बात हो।
लोया जिरगा का अधिवेशन
इस बातचीत के बाद पिछले सोमवार से काबुल में
परम्परागत कबायली लोया जिरगा शुरू हुआ है, जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। चार दिन के
इस महा-सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े तमाम मसलों पर बात चल रही है। लोया
जिरगा में आमंत्रित तीन हजार से ज्यादा लोगों को संबोधित करते हुए सोमवार को अफगानिस्तान
के राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा, 'हम
तालिबान के साथ वार्ताओं के लिए मुख्य बातों को स्पष्ट करना चाहते हैं। इसके लिए
हम आप सभी से स्पष्ट सलाह चाहते हैं।'
ग़नी ने इस बैठक के लिए तालिबान को भी आमंत्रित
किया था, लेकिन तालिबान ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। तालिबान ने एक
बयान में कहा, 'लोया जिरगा में होने वाले किसी फैसले या प्रस्ताव को कभी स्वीकार
नहीं किया जाएगा।' तालिबान ने रविवार को एक बयान में कहा यह एक सरकारी जिरगा है और
राष्ट्रीय भी नहीं है। सिर्फ काबुल की नाजायज सरकार का विस्तार करने के लिए है। तालिबान
के विरोध के कारण अमेरिका के साथ चल रही उसकी वार्ता में अफगान सरकार को शामिल
नहीं किया गया था। पर अब अमेरिका के अलावा चीन और रूस का भी दबाव है कि वे काबुल
सरकार के साथ बात करें।
तालिबान ही नहीं, देश के पूर्व राष्ट्रपति
हामिद करजई सहित कई जाने-माने राजनेताओं ने यह कहते हुए जिरगा का बहिष्कार किया है
कि यह चल रही शांति प्रक्रिया में बाधाएं पैदा करेगा। चूंकि उपस्थित लोग अफगान
सरकार की कार्यसूची के आधार पर शांति प्रयासों पर चर्चा करेंगे, इसलिए यह वार्ता
पर्याप्त खुली नहीं होगी। इसलिए इन राजनेता को डर है कि यह जिरगा केवल सरकारी-पक्ष
की बातें ही करेगा। हालांकि अफगान हाई पीस कौंसिल के एक सदस्य नजीब अमीन का कहना
है कि जिरगा अफगानिस्तान शांति-दृष्टिकोण पर चर्चा करेगा और उन सीमा रेखाओं को परिभाषित
करेगा, जिनकी भविष्य में जरूरत होगी। फिर भी कम से कम पांच प्रसिद्ध राजनेताओं ने
जिरगा का बहिष्कार किया है। दूसरी तरफ भारी संख्या में कबायली प्रतिनिधि इसमें शामिल
हुए हैं।
तालिबान क्या बदलेंगे?
समूची शांति-प्रक्रिया
इस उम्मीद के सहारे चल रही है कि तालिबान की दिलचस्पी सत्ता हासिल करने में है।
उन्हें काबुल-सरकार के साथ-साथ देश की प्रशासनिक-राजनीतिक व्यवस्था में शामिल कर
लिया जाए, तो वे खुश हो जाएंगे। क्या वास्तव में ऐसा है? क्या तालिबान बदल
जाएंगे? क्या तालिबान अपनी
कट्टरपंथी धार्मिक समझ से बाहर निकल आएगा? सवाल यह भी है कि इसमें पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी? क्या वह तालिबान की
कट्टरपंथी प्रवृत्तियों को रोक पाएगा, जो उसकी ही देन हैं? इधर पाकिस्तानी
प्रधानमंत्री इमरान कान ने तालिबानियों से अनुरोध किया है कि वे सरकारी सेनाओं पर
हमले रोक दें। क्या तालिबानी उनकी बात सुनेंगे? तालिबान की दिलचस्पी
सत्ता में भागीदारी तक सीमित है या एकछत्र राज करने में है? हो सकता है कि तालिबान के बारे में दुनिया के
सारे अनुमान गलत साबित हों। इस प्रकार की शांति-वार्ताएं अंततः धोखा साबित हों।
अमेरिकी प्रतिनिधि जलमय खलीलज़ाद ने कहा है
कि तालिबान को मानकर चलना चाहिए कि वे अब उन तौर-तरीकों पर नहीं चल पाएंगे, जो
उन्होंने 2001 से पहले तक अपनाए थे। खलीलज़ाद का यह भी कहना है कि उनके साथ बातचीत
में तालिबान प्रतिनिधियों ने माना है कि सन 1996 से 2001 के बीच में उनकी सरकार ने
तमाम गलतियाँ कीं। यह भी सच है कि आज का तालिबान सन 2001 का तालिबान नहीं है। उसके
नेतृत्व पर बहुत से नए लोग आ गए हैं। पिछले 18 साल की लड़ाई में उनका भी कई तरह की
सच्चाइयों से सामना हुआ है। फिर समूचा तालिबान एक विचार और शैली पर काम नहीं करता।
उसके भीतर अत्यंत क्रूर तत्व हैं, तो समझदार लोग भी हैं। पता नहीं उनके भीतर की
बहस का स्तर क्या है, पर सच यह है कि वे देश में कई जगहों पर लगातार हमले कर रहे
हैं और इन दिनों यह टकराव काफी तेज हुआ है।
मॉस्को की त्रिपक्षीय वार्ता में कहा गया है
कि तालिबान अल-कायदा से रिश्ते तोड़ने और इस्लामिक स्टेट से लड़ने को तैयार हैं।
यह लड़ाई तो नेतृत्व का संघर्ष है। इसके पीछे के कारण विचारधारा में आए बदलाव से
नहीं जुड़े हैं। तालिबान रणनीतिकारों को लग रहा है कि अमेरिका भागना चाहता है,
इसलिए उससे छोटे-मोटे वायदे करके पहले उसे बाहर निकालो। बाद में हम सत्ता पर पूरा
कब्जा कर ही लेंगे। बहरहाल ये सब अटकलें हैं। काबुल सरकार के अंदेशे अपनी जगह हैं
और तालिबानियों के अपनी जगह। फिर इसमें पाकिस्तान और आसपास के दूसरे इस्लामी देशों
की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। तीसरे इस इलाके में लम्बे समय से चली आ रही अशांति से
व्यथित लोगों के मन में शांति और विकास के सपने भी पनपे हैं। पर सवाल है कि
तालिबान की इच्छा एक पार्टी के रूप में शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया में
हिस्सा लेने तक सीमित है या उनके मन में भविष्य का कोई और नक्शा है? मदरसों की शिक्षा से लैस
तालिबानी लड़ाके क्या पश्चिमी लोकतांत्रिक मुहावरों के अभ्यस्त हो सकेंगे?
क्या है लोया जिरगा?
अफ़ग़ानिस्तान और
पाकिस्तान के पश्तून इलाकों में पश्तूनवाली नाम से एक अलिखित विधान चलता है, जिसका
सभी कबीले आदर करते हैं। कबायली
परिषद को लोया जिरगा नाम से जाना जाता है। यह नियमों की एक व्यवस्था है। तालिबान
के शासन के दौरान पश्तूनवाली के साथ-साथ शरिया कानून भी लागू किए गए थे। करीब एक
सदी पुरानी इस संस्था का उपयोग अंतर्विरोधी कबायली गुटों
और जातीय समूहों के बीच सहमति बनाने के लिए किया जाता है। 2001 में तालिबान शासन
के पतन के बाद भी इस परिषद का उपयोग किया गया था। लोया जिरगा की बैठक अंतिम बार
2013 में हुई थी।
लोया जिरगा मूलतः सलाह और राय देने वाली प्रक्रिया है। इसमें आमराय
बनती है। हालांकि इसका महत्व देश की संसद से भी ज्यादा है, पर निर्भर करता है कि
इसमें प्रतिनिधित्व किस प्रकार का है। अफ़ग़ानिस्तान की सांविधानिक व्यवस्था में
भी लोया जिरगा का उल्लेख है। सन 2013 के लोया जिरगा में अमेरिका के साथ किए गए
द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते को स्वीकृति दी गई थी। सन 2004 में बने वर्तमान अफ़ग़ान
संविधान में लोया जिरगा का उल्लेख है। यह एक प्रकार से जनमत संग्रह का प्रतीक है
और इसे असाधारण स्थितियों में ही बुलाया जाता है।
यह सैकड़ों साल पुरानी व्यवस्था है, पर सौ साल पहले बादशाह अमानुल्ला
(1919-29) ने आधुनिक युग में इसकी शुरूआत की। उन्होंने अपने शासन के संचालन के लिए
लोया जिरगा का सहारा लिया। इसका मतलब है कि वे तमाम महत्वपूर्ण सवालों पर जनता की
राय लेते रहते थे। वर्तमान संविधान के अनुसार इसमें संसद के दोनों सदनों के
सदस्यों के अलावा सभी प्रांतों और जिलों के प्रतिनिधि सदनों के सभापतियों की
भागीदारी होती है।
सन 2001 के बाद की व्यवस्था में अबतक पाँच बार लोया जिरगा के अधिवेशन
हो चुके हैं। यह छठा अधिवेशन है। पहला अधिवेशन 2002 में हुआ था, जिसमें 1600
प्रतिनिधि शामिल हुए थे। तबतक देश का वर्तमान संविधान बना नहीं था। दिसम्बर 2003
के अंत और जनवरी 2004 के शुरुआती दिनों में बुलाए गए लोया जिरगा में देश के
वर्तमान संविधान को स्वीकृति दी गई थी। इसके बाद जून 2010 में इसका एक अधिवेशन हुआ
था। नवम्बर 2011 में एक परम्परागत लोया जिरगा भी हुआ। इसके बाद नवम्बर 2013 में
इसका एक अधिवेशन हुआ।
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