बदलते वैश्विक-परिदृश्य में नई सरकार की चुनौतियाँ
अगले कुछ दिनों में देश की नई सरकार का गठन हो जाएगा। देश इक्कीसवीं
सदी के तीसरे दशक में प्रवेश करने वाला है। हमारे लोकतंत्र की विशेषता है कि उसमें
निरंतरता और परिवर्तन दोनों के रास्ते खुले हैं। विदेश-नीति ऐसा क्षेत्र है,
जिसमें निरंतरता और प्रवाह की जरूरत ज्यादा होती है। सन 1947 में स्वतंत्रता
प्राप्ति के काफी पहले हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व ने भावी विदेश-नीति के कुछ बुनियादी
सूत्रों को स्थिर किया था, जो किसी न किसी रूप में आज भी कायम हैं। इनमें सबसे
महत्वपूर्ण है असंलग्नता की नीति। हम किसी के पिछलग्गू देश नहीं हैं, और किसी से हमारा
स्थायी वैर भी नहीं है। अपने आकार, सांस्कृतिक वैभव और भौगोलिक महत्व के कारण हम
हमेशा दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में गिने गए।
सच यह है कि हम विदेश-नीति से जुड़े मसलों को
कॉज़्मेटिक्स या बाहरी दिखावे तक ही महत्व देते हैं। उसकी गहराई पर नहीं जाते। हाल
में हुए लोकसभा-चुनाव में पुलवामा से लेकर मसूद अज़हर का नाम कई बार लिया गया, पर
विदेश-नीति चुनाव का मुद्दा नहीं थी। इसकी बड़ी वजह यह है कि विदेश-नीति का आयाम हम
राष्ट्रीय-सुरक्षा के आगे नहीं देखते हैं। आर्थिक-विकास भी काफी हद तक विदेश-नीति
से जुड़ा है। गोकि हमारी अर्थ-व्यवस्था चीन की तरह निर्यातोन्मुखी नहीं है, फिर भी
बेरोजगारी, सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवहन, आवास, विज्ञान और तकनीक जैसे तमाम मसलों का
विदेश-नीति से रिश्ता है।
भारत जैसे देशों के सामने सवाल है कि आर्थिक
विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? पिछले
डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी।
ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? सन 2015 का सहस्राब्दी लक्ष्यों के
पूरा होने का साल था। उन्नीसवीं सदी के अंत में संयुक्त राष्ट्र के झंडे तले
दुनिया ने लोगों को दरिद्रता के अभिशाप से बाहर निकालने का संकल्प किया था। वह
संकल्प पूरा नहीं हो पाया। अब उसके लिए सन 2030 का लक्ष्य रखा गया है।
सन 2015 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा
की गई थी। भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है। उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति आर्थिक-विषमता
भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो
उसे रोका नहीं जा सकता। इसके लिए जनता और शासन के बीच सहमति होनी चाहिए। प्रो डीटन
भारत में ज्यां द्रेज, अभिजित बनर्जी और जिश्नु दास वगैरह के साथ
मिलकर गरीबी उन्मूलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण
और इनसे सम्बद्ध विषयों पर काम कर चुके हैं। देश के सामने दो लक्ष्यों को एकसाथ साधने की चुनौती है। तेज आर्थिक
विकास और उसके सहारे गरीबी का उन्मूलन, जो काम चीन ने किया। इसमें आर्थिक नीतियों
के साथ विदेश-नीति की भूमिका भी है।
नई सरकार की विदेश नीति को इन चार शीर्षकों में
रखकर परखना होगा:-
1.वैश्विक अंतर्विरोधों के बीच भारत की भूमिका।
2.दक्षिण एशिया में सहयोग का वातावरण।
3.उभरती शक्ति के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा से
जुड़े मसले।
4.अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत की भागीदारी।
वैश्विक अंतर्विरोध
अमेरिका-चीन टकराव, ईरान-सऊदी अरब के बीच युद्ध
का खतरा, दक्षिण चीन सागर में चीन के साथ पड़ोसी देशों का विवाद, यूक्रेन या
सीरिया को लेकर रूस-अमेरिका विवाद और वेनेजुएला में गृहयुद्ध का अंदेशा ऐसी तमाम
घटनाएं हैं, जिनसे हम चाहकर भी बच नहीं सकते। अमेरिका ने ईरान और रूस पर कुछ
पाबंदियाँ लगाईं हैं। पिछले साल 6 सितम्बर को नई दिल्ली में विदेशमंत्री सुषमा
स्वराज एवं रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण के साथ अमेरिका के विदेशमंत्री माइकल पॉम्पियो
एवं रक्षामंत्री जेम्स मैटिस ने दोनों देशों के बीच ‘टू प्लस टू’ वार्ता का शुभारंभ किया था। इस बातचीत
में रूस और ईरान की पाबंदियों का जिक्र हुआ था। पेट्रोलियम वाली पाबंदी का प्रभाव
भारत पर ही नहीं चीन और जापान पर भी पड़ रहा था। बहरहाल उस पाबंदी के लागू होने की
सीमा बढ़ा दी गई, पर वह अब लागू हो गई है।
इन पाबंदियों का रिश्ता भारत और अमेरिका के बीच
बढ़ते रिश्तों के साथ है। इस अंतर्विरोध को हम किस तरह संभालेंगे? यह नई सरकार की पहली चुनौती होगी। फिलहाल सरकार का दृष्टिकोण स्पष्ट
नहीं है। गत 14 मई को विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने ईरानी विदेशमंत्री के साथ एक
भेंट के दौरान कहा कि भारत सरकार इस समय कोई फैसला करने की स्थिति में नहीं है।
उन्होंने पाबंदियों के बाबत एक शब्द भी नहीं बोला। पर खबरें यह भी हैं कि भारतीय
कम्पनियों ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया है और वे वैकल्पिक माध्यमों से तेल
की खरीद की योजना बना रही हैं। लगता यही है कि भारत अमेरिकी पाबंदियों का पालन
करेगा। इसकी औपचारिकता का भार नई सरकार के कंधों पर है।
इन पाबंदियों का भारतीय हितों से लेना-देना
नहीं है। भारत करीब 12 लाख टन तेल हर महीने ईरान से खरीदता है। यह हमारे सकल तेल
आयात का करीब 10 फीसदी है। भारत जिन देशों से तेल खरीदता है उनमें ईरान तीसरा सबसे
बड़ा सप्लायर है। ईरानी तेल सस्ता भी होता है और उसके साथ अदायगी की अवधि कुछ
ज्यादा लम्बी होती है। ज्यादातर कीमत भारत यूरो या रुपयों में अदा करता है। इससे
डॉलर का आश्रय नहीं लेना पड़ता। कई बार रुपयों की जगह भारत चावल, औषधियों और अन्य सामग्री
के रूप में भी कीमत अदा कर देता है। अमेरिका के दबाव में ईरान ही नहीं वेनेजुएला
से भी तेल की खरीद बंद होने वाली है। ईरान के साथ पैदा हो रहे इस गतिरोध के कारण
चाबहार और फरज़ाद बी गैस फील्ड में भी भारत की भूमिका पर असर पड़ेगा। ईरान से होकर
यूरोप तक जाने वाली सड़क परियोजना उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर में भी भारत की हिस्सेदारी
है। यह भी प्रभावित होगी।
अमेरिका के इस दबाव को स्वीकार करने के बदले
भारत को क्या मिलेगा? बताते हैं कि अमेरिका के चीन के साथ
चल रहे व्यापार युद्ध का फायदा हमें मिलेगा। यह फायदा रक्षा के क्षेत्र में और
हथियारों की खरीद के रूप में ही हो सकता है। उधर रूस से भारत ने एस-400 एयर डिफेंस
सिस्टम खरीदने का समझौता किया है। अमेरिका इसे भी रोकना चाहता है। क्या हम ऐसा कर
पाएंगे? इस सवाल का जवाब हमें नई सरकार की शुरुआती
नीतियों से पता लगेगा। हाल में मसूद अज़हर का नाम वैश्विक आतंकवादियों की सूची में
दर्ज कराने के लिए अमेरिका ने चीन पर दबाव बनाया था, जिसके बदले में वह भारत का
समर्थन चाहता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पिछले गणतंत्र दिवस में
मुख्य अतिथि के रूप में भारत आने के निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया। उसके पीछे एक
वजह रूस के साथ हुए भारत का रक्षा समझौता भी था। ये अंतर्विरोध अब बढ़ते जाएंगे।
दक्षिण एशिया में सहयोग
सबसे जरूरी काम है कि हम अपने पड़ोसियों के साथ
रिश्तों को बेहतर बनाएं। दक्षिण एशिया दुनिया के सबसे अविकसित इलाकों की श्रेणी
में आ गया है। सबसे बड़ी वजह है भारत और पाकिस्तान के खराब रिश्ते। हाल में लोकसभा
चुनाव इस खटास की पृष्ठभूमि में हुए। नई सरकार की जिम्मेदारी इन रिश्तों को रास्ते
पर लाने की है। यह जटिल काम है। हिंसा-आतंकवाद और दोस्ती साथ-साथ नहीं चलेंगे। पर रास्ता
भी होगा। इन दिनों अमेरिकी प्रशासन अफगानिस्तान में शांति समझौता कराने का प्रयास
कर रहा है। रूस और चीन भी इसमें सहयोग कर रहे हैं। यह प्रयास तबतक विफल रहेगा,
जबतक भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य नहीं होंगे।
सितम्बर 2016 में बीजेपी के कोझीकोड सम्मेलन
में नरेन्द्र मोदी ने पाकिस्तान को ललकारते हुए कहा था, ‘हिम्मत है तो गरीबी और बेरोजगारी से लड़ो, देखो कौन जीतता है।’ अच्छी बात कही, पर यह सवाल हमें अपने
आप से भी करना चाहिए कि दोनों देश मिलकर क्यों नहीं गरीबी से लड़ते हैं? हाल में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के संस्थागत सुधार-सलाहकार डॉ इशरत
हुसेन ने एक सेमिनार में कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच 37 अरब डॉलर का कारोबार
हो सकता है, जो दोनों देशों में समृद्धि और विकास का इंजन बन सकता है। उनका कहना
था कि दोनों देशों के बीच उत्पादक और उपभोक्ता के रिश्ते बन सकते हैं।
दक्षिण एशिया में अविश्वास और प्रतिगामी
तौर-तरीकों का बेहतर उदाहरण है सार्क की विफलता। इस साल जनवरी में दिल्ली में हुए दो दिन के रायसीना संवाद में भी यह सवाल
उठा था। रायसीना डायलॉग नई दिल्ली में आयोजित एक सालाना सम्मेलन है, जिसमें वैश्विक प्रश्नों पर विशेषज्ञ अपने विचार रखते हैं। यह संवाद
2016 से चल रहा है और चौथा संवाद 8 से 10 जनवरी 2019 हुआ था, जिसका उद्घाटन संबोधन नॉर्वे की प्रधानमंत्री एर्ना सोलबर्ग ने पेश
किया।
इस सम्मेलन में नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप
कुमार ग्यावली ने कहा, अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम
के बीच मुलाकात हो सकती है तो अन्य देशों के नेताओं के बीच यह क्यों नहीं हो सकती।
उनका इशारा भारत और पाकिस्तान पर था। उन्होंने कहा कि दक्षिण एशिया सहयोग संगठन
(सार्क) को पुष्ट किया जाना चाहिए। उन्होंने साथ में दो और संगठनों बिमस्टेक और
बीबीआईएन के नाम लिए। सन 2016 में पठानकोट और उड़ी की घटनाओं के बाद से भारत ने
दक्षेस से हाथ पूरी तरह खींच लिया है और क्षेत्रीय सहयोग के बिमस्टेक और बीबीआईएन
जैसे संगठनों में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है, जिनमें पाकिस्तान की भूमिका नहीं
है। यह सायास है और भारत ‘माइनस पाकिस्तान नीति’ पर चल रहा है। क्या यह नीति बदलेगी?
दोनों देशों के रिश्तों में कई प्रकार के अवरोध
हैं, पर उन्हें हटाने की कुछ जिम्मेदारी हमपर भी है। इसके लिए वैश्विक सहयोग की
जरूरत है, जो विदेश-नीति का काम है। कुछ साल पहले श्रीलंका में हुए सार्क चैम्बर
ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़ की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न
होने के कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं। अनुमान है
कि इस इलाके के देशों के बीच 65 अरब डॉलर का व्यापार हो सकता है। ये देश परम्परा
से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं।
भारत, पाकिस्तान,
भूटान, मालदीव, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका ने दिसम्बर
1985 में सार्क बनाया। म्यांमार यानी बर्मा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आसियान
में चला गया। अन्यथा यह पूरा क्षेत्र एक आर्थिक ज़ोन के रूप में बड़ी आसानी से काम
कर सकता है। इसकी सकल अर्थ-व्यवस्था को जोड़ा जाय तो यह दुनिया की तीसरे-चौथे
नम्बर की अर्थ-व्यवस्था साबित होगी। इसकी परम्परागत कनेक्टिविटी राजनीतिक कारणों
से खत्म हो गई है। भारत-पाकिस्तान रिश्ते बेहतर होने पर कनेक्टिविटी की परियोजनाओं
पर काम हो सकता है, जिसके बीच में स्वाभाविक रूप से भारत होगा। विभाजन के पहले से
मौजूद परम्परागत कनेक्टिविटी को ही बेहतर बनाना है। बाकी बातें अपने आप होती
जाएंगी।
उभरती शक्ति की राष्ट्रीय सुरक्षा
राष्ट्रीय रक्षा-नीति भी विदेश-नीति का एक
महत्वपूर्ण पहलू है। उभरती आर्थिक शक्ति को न केवल अपनी सीमा की रक्षा करनी होती
है, बल्कि अपने व्यापार मार्गों को भी सुरक्षित बनाना होता है। यह बात चीन के उभार
के साथ देखी जा सकती है। भारत के बदलते रक्षा-राजनय की भूमिका 14
साल पहले सन 2005 में हुए भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग समझौते से बन गई थी, जिसे अब
दस साल के लिए और बढ़ा दिया गया है। पर भारत-अमेरिका सामरिक सहयोग की शुरुआत सन
1992 से हो गई थी, जब दोनों देशों की नौसेनाओं ने ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ शुरू किया था। सोवियत
संघ के विघटन और शीतयुद्ध की समाप्ति के एक साल बाद। पर सन 1998 में भारत के एटमी
परीक्षण से रिश्ते बिगड़े। मालाबार युद्धाभ्यास भी बंद हो गया, पर 11 सितम्बर 2001
को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद दोनों देशों की विश्व-दृष्टि में
बदलाव आया।
सन 2002 से यह युद्ध अभ्यास फिर शुरू हुआ और भारत धीरे-धीरे अमेरिका
के महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दो
बार भारत की यात्रा पर आए। उनके पहले जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे गणतंत्र परेड
में मुख्य अतिथि थे। सन 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय
सामरिक संवाद चल रहा है। सन 2007 में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान,
ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच ‘क्वाड्रिलेटरल डायलॉग’ शुरू हुआ है। यह संवाद अभी परिभाषा के दौर में है। भारत इसमें शामिल
तो होना चाहता है, पर चीन पर दबाव बनाने के लिए नहीं। दूसरी तरफ चीनी नौसेना की
उपस्थिति हिंद महासागर में बढ़ने से भारतीय नौसेना के विस्तार की जरूरत भी बढ़ रही
है। चीन ने जिबूती में अपना सैनिक अड्डा बना लिया है। श्रीलंका और मालदीव में उसने
अपनी गतिविधियाँ बढ़ाई हैं। इन बातों के बरक्स भारतीय गतिविधियाँ भी बढ़ी हैं और बढ़ेंगी।
यह एक दूसरा अंतर्विरोध है, जो भारतीय विदेश-नीति को प्रभावित करेगा।
भारत और चीन के रिश्ते सहयोगी और प्रतिस्पर्धी दोनों तरह के हैं। प्रतिस्पर्धा
केवल सीमा विवाद तक सीमित नहीं है। चीन हमारा सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है, पर इस
कारोबार में भारी असंतुलन है। अमेरिका के कारोबारी युद्ध के बाद चीन का रुख हमारे
प्रति कुछ नरम हुआ है। वुहान वार्ता के बाद चीन ने भारतीय औषधियों तथा दूसरे माल
के लिए अपने दरवाजे खोले हैं।
चीनी उभार को लेकर अमेरिका और जापान चिंतित हैं। एशिया-प्रशांत
क्षेत्र (जिसे अब हिंद-प्रशांत क्षेत्र कहा जा रहा है) आने वाले समय में शीतयुद्ध
का केंद्र बने तो आश्चर्य नहीं होगा। सागर मार्गों की सुरक्षा एक पहलू है। दूसरा
पहलू है भविष्य की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना। दक्षिण चीन सागर में पेट्रोलियम की
प्रचुर संभावनाएं हैं। पर चीन और उसके पड़ोसी देशों के बीच सीमा को लेकर विवाद
हैं। वियतनाम ने भारत को इस इलाके में तेल खोज का काम सौंपा है। इस इलाके में
वियतनाम भी हमारे महत्वपूर्ण मित्र देश के रूप में उभरा है।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भागीदारी
भारत जी-20 का सदस्य है। ग्रुप ऑफ ट्वेंटी 19
देशों और यूरोपीय यूनियन का अंतरराष्ट्रीय फोरम है, जिसका उद्देश्य वैश्विक
वित्तीय स्थिरता को बनाए रखना है। यह सन 1999 में गठित हुआ था और सन 2008 के बाद
से इसका एजेंडा ज्यादा व्यापक हो गया है। जी-20 देशों की अर्थ-व्यवस्था दुनिया की
जीडीपी की 90 फीसदी के बराबर है और दुनिया का 80 फीसदी व्यापार इन्हीं देशों के
बीच होता है। एक समय तक जी-8 समूह वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के संचालक माने जाते थे,
पर अब जी-20 यह काम कर रहा है। बहरहाल भारत की इस संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका है,
जो अब और बढ़ेगी। साल 2022 में भारत जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी भी करने जा रहा है।
नवम्बर 2010 में बराक ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान कहा था कि
अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य
बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाए। एक अरसे से भारत की दावेदारी इसके लिए चल रही है।
भारत संयुक्त राष्ट्र के सबसे सक्रिय देशों में है। क्या हम अगले कुछ वर्षों में
संरा की स्थायी सीट हासिल कर सकते हैं? यह काम आसान नहीं है। अलबत्ता यदि हम सार्क को सक्रिय कर सकें तो यह
दावेदारी बढ़ सकती है। सार्क में चीन को भी शामिल करने की कोशिश कुछ देश कर रहे
हैं। भारत इसका समर्थक नहीं है, क्योंकि इससे हमारा महत्व कम हो जाएगा। पर हाल में
हम पाकिस्तान के साथ शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य बने हैं। चीन के साथ हम ब्रिक्स
में शामिल हैं।
लम्बे अरसे तक भारत पूर्व एशिया के देशों से
कटा रहा। आसियान की स्थापना सन 1967 में हुई थी, तब हम रूसी प्रभाव में थे और इसे
हमने अमेरिकी प्रभाव का संगठन माना था। इसे 42 साल हो गए हैं। बहरहाल पीवी नरसिंहराव
के समय में भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ की बुनियाद पड़ी और सन 1992 में भारत इसका
डायलॉग पार्टनर बना। दिसम्बर 2012 में भारत ने जब आसियान के साथ सहयोग के बीस साल
पूरे होने पर समारोह मनाया तब तक हम ईस्ट एशिया समिट में शामिल हो चुके थे और हर
साल आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में भी शामिल होते हैं। भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी का
प्रस्थान बिन्दु आसियान है।
अक्तूबर 2014 में चीन की पहल पर एशियन
इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के गठन की घोषणा की गई थी। भारत भी
इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। वस्तुतः विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय
मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक के समांतर यह बैंक एक नई संस्था के रूप में सामने
आया है। भारत को अपने आधार ढाँचे के विकास के लिए तकरीबन एक लाख करोड़ डॉलर (1
ट्रिलियन) की जरूरत है, जिसे विश्व बैंक और एडीबी पूरा नहीं कर सकते हैं। इस बैंक
से भारत के लिए नए विकल्प खुलेंगे। चीनी पूँजी के निवेश के लिए दूसरे देशों के
मुकाबले भारतीय अर्थ-व्यवस्था सुरक्षित और स्थिर साबित होगी।
इन सब बातों के बावजूद भारत अपनी भावी रक्षा
रणनीति के मद्देनज़र अमेरिका-जापान और ऑस्ट्रेलिया के सम्पर्क में बना रहेगा। अमेरिका ने भारत को नाभिकीय ऊर्जा से जुड़े चार अंतरराष्ट्रीय समूहों
में प्रवेश दिलाने का आश्वासन दिया था। ये हैं न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप, मिसाइल
टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41 देशों का वासेनार अरेंजमेंट और चौथा है ऑस्ट्रेलिया
ग्रुप। ये चारों समूह सामरिक तकनीकी विशेषज्ञता के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं।
एनएसजी की सदस्यता चीनी प्रतिरोध के कारण अभी तक नहीं मिल पाई है। हालांकि इस साल
भी उसके लिए कोशिश होगी, पर लगता नहीं कि सफलता मिलेगी।
सारे मसले सामरिक नहीं हैं। हमारी समस्या पूँजी निवेश की है और तकनीकी
महारत की। भारतवंशियों की मदद से और अपनी सॉफ्ट पावर (क्रिकेट, योग और संगीत) के
सहारे भारत ने विश्व-मंच पर रसूख बढ़ाया है। पर सूखे-रसूख का कोई अर्थ नहीं होता। देश
में खुशहाली होनी चाहिए। इस लिहाज से विदेश-नीति के लक्ष्य उससे कहीं ज्यादा बड़े हैं,
जितने समझे जा रहे हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन तीसरा शहादत दिवस - हवलदार हंगपन दादा और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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