रविवार, 18 नवंबर 2018

श्रीलंका में उलझती दाँव-पेच की राजनीति


श्रीलंका में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद वहाँ की संसद ने महिंदा राजपक्षे के प्रति अपना अविश्वास जरूर व्यक्त कर दिया है, पर गतिरोध समाप्त हुआ नहीं लगता। सवाल है कि क्या राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना इस वोट को मान लेंगे? लगता नहीं। यानी कि केवल इतने से रानिल विक्रमासिंघे को सत्ता वापस मिलने वाली नहीं है। इसकी दो वजहें हैं। एक, देश की सांविधानिक व्यवस्थाएं अस्पष्ट हैं। सन 2015 के सांविधानिक सुधारों के बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि संसद और राष्ट्रपति के रिश्ते किस प्रकार तय होंगे। दूसरे, सुप्रीम कोर्ट ने संसद भंग करने के राष्ट्रपति के आदेश को स्थगित जरूर कर दिया, पर यह स्पष्ट नहीं किया कि आगे क्या होगा।

संसद अध्यक्ष ने सत्र बुलाया और राजपक्षे के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया। पर इससे प्रधानमंत्री की पुनर्स्थापना नहीं हो पाई। यानी कि अदालत को फिर से हस्तक्षेप करना होगा। पर यह भी साफ है कि महिंदा राजपक्षे के पास भी बहुमत नहीं है। संसद को भंग किया ही इसीलिए गया था। बुधवार को चली छोटी सी कार्यवाही में राजपक्षे ने उपस्थित होकर इस सत्र की वैधानिकता को स्वीकार किया, पर उसका बहिष्कार करके यह संकेत भी दिया कि वे आसानी से हार नहीं मानेंगे। राष्ट्रपति सिरीसेना और राजपक्षे दोनों को समझ में आता है कि संसद में वे अल्पमत में हैं, वरना वे संसद-सत्र के पाँच दिन पहले ही उसे भंग नहीं करते।


शुक्रवार 9 नवंबर को राष्ट्रपति की ओर से जो अधिसूचना जारी की गई थी, उसके अनुसार 225 सदस्यों की संसद के चुनाव 5 जनवरी को होंगे। अदालत ने संसद को भंग करने और फिर से चुनाव कराने के राष्ट्रपति के आदेश को 7 दिसम्बर तक के लिए स्थगित करके इसके सांविधानिक पक्ष को समझने के लिए कुछ समय और ले लिया है, पर अंतिम फैसला नहीं सुनाया है। गतिरोध को दूर करने की जिम्मेदारी अदालत की ही है। सम्भव है इन पंक्तियों के प्रकाशित होते समय तक कोई रास्ता निकल आए।

देश की अर्ध-संसदीय, अर्ध-अध्यक्षात्मक प्रणाली में अधिकार अस्पष्ट और असंतुलित हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था को परिपक्व होने में समय भी लग रहा है। ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट की इंटेलिजेंस यूनिट दुनिया के 167 देशों से प्राप्त जानकारी के आधार पर डेमोक्रेसी इंडेक्स तैयार करती है। इसके 2017 के इंडेक्स में श्रीलंका का स्थान 62वाँ है। दक्षिण एशिया के देशों में सबसे ऊपर भारत का 42वाँ स्थान है। दोनों को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र (फ्लॉड डेमोक्रेसी) की श्रेणी में रखा गया है। बांग्लादेश का स्थान 92 है और पाकिस्तान का 110। दोनों मिश्रित व्यवस्था (हाइब्रिड रेजीम) की श्रेणी में रखे गए हैं।

कभी दुश्मन, कभी दोस्त

हालांकि सिरीसेना और राजपक्षे अभी एक ही पार्टी में शामिल थे, पर 2015 के राष्ट्रपति पद के चुनाव में सिरीसेना ने युनाइटेड नेशनल पार्टी के रानिल विक्रमासिंघे की मदद से राजपक्षे को पराजित कर दिया था। पर राजपक्षे पूरी तरह परास्त नहीं हुए हैं। उनके समर्थकों ने पिछले साल नई पार्टी बनाई, जिसे इस साल फरवरी में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में सफलता मिली थी। अब उन्होंने औपचारिक रूप से अपनी नई पार्टी का वरण कर लिया है।

विक्रमासिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने पर भारत ने अपनी विलंबित प्रतिक्रिया में कहा था, उम्मीद है कि श्रीलंका में संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर होगा। संसद भंग होने के बाद भारतीय प्रतिक्रिया नहीं आई है। पिछले महीने राष्ट्रपति सिरीसेना ने कहा था कि भारत के खुफिया संगठन रॉ ने मेरी हत्या की साजिश की है। वे जल्द ही अपनी बात से पलट गए, पर भारत के प्रति उनका नजरिया प्रकट हो चुका था। इसके विपरीत अमेरिका ने राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाए जाते वक्त और अब संसद भंग किए जाने की तुरत आलोचना की है। दूसरी और चीन ने राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाए जाने पर बधाई दी थी। इससे श्रीलंका प्रशासन का चीन-झुकाव नजर आता था।

लगता है कि राष्ट्रपति ने जो जुआ खेला है, उसके दाँव-पेच में वे भी फँस गए हैं। सिरीसेना ने विक्रमासिंघे पर भ्रष्टाचार के अलावा हत्या की साजिश का आरोप भी लगाया था। पिछले महीने 26 अक्तूबर को उन्होंने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे और उनके मंत्रिमंडल को बर्ख़ास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को नया प्रधानमंत्री बना दिया था। उसके बाद विक्रमासिंघे ने पद छोड़ने से इनकार कर दिया था और कहा था कि उन्हें हटाना अवैध है। वे संसद में अपना बहुमत सिद्ध करने को तैयार हैं। सिरीसेना ने अपने गठबंधन सहयोगी का साथ छोड़कर पुराने प्रतिस्पर्धी का हाथ क्यों पकड़ा, इसे लेकर भी विशेषज्ञ एकमत हैं कि वे यह कदम राजनीतिक कारणों से उठाया गया है।

चुनाव का सहारा

इस सांविधानिक-संग्राम में संसद के अध्यक्ष कारू जयसूर्या भी विक्रमासिंघे का साथ दे रहे हैं। सिरीसेना-राजपक्षे खेमे को लगता है कि चुनाव हुए तो उन्हें बहुमत हासिल होगा। इस साल के शुरू में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में राजपक्षे के युनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस को बड़ी सफलता मिली थी। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे और राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना एक साथ थे और दोनों ने मिलकर महिंदा राजपक्षे को पराजित किया था, पर पिछले देश की आर्थिक स्थितियाँ बिगड़ती देखकर राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री से दूरी बढ़ानी शुरू कर दी।

सिरीसेना और विक्रमासिंघे के बीच मतभेदों के पीछे बड़े कारण देश की आर्थिक समस्याओं से जुड़े हैं। राष्ट्रपति को लगता है कि प्रधानमंत्री मनमर्जी से फैसले कर रहे हैं, जिनके दुष्परिणाम उनके मत्थे मढ़े जा रहे हैं। दोनों में सहमति नहीं बनती थी। दोनों एक-दूसरे से चर्चा तक नहीं करते थे। अर्थव्यवस्था की संवृद्धि दर 3.3 फीसदी हो गई है, जो 2016 में 4.4 फीसदी थी। इससे राजपक्षे को वापसी का मौका मिला है।

क्यों टूटी दोस्ती?

इस साल के शुरू में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में राजपक्षे की पार्टी को मिली भारी विजय बता रही है कि सरकार अलोकप्रिय हो रही है और राजपक्षे का उभार हो रहा है। सिरीसेना को समझ में आ गया कि विक्रमासिंघे के साथ देश को चलाना नामुमकिन है। पुराने सहयोगी महिंदा राजपक्षे विकल्प के रूप में उनके सामने थे। उन्होंने अपनी भावी राजनीति के लिहाज से राजपक्षे के साथ अपने रिश्तों को सुधारा। और अब वे 2019 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों को ध्यान में रखकर अपने फैसले कर रहे हैं।

श्रीलंका के पर्यवेक्षक बता रहे हैं कि पिछले कई महीनों से वे राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाने की जुगत में थे। इस साल अप्रैल में सिरीसेना और राजपक्षे ने मिलकर संसद में विक्रमासिंघे सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी रखा था। इस प्रस्ताव के पक्ष में 76, विरोध में 122 वोट पड़े। 26 सांसद अनुपस्थित रहे। विक्रमासिंघे को तमिलों और अल्पसंख्यक मुसलमान प्रतिनिधियों का समर्थन मिला था।

तीन साल पहले लगा था कि शायद श्रीलंका स्थिरता की दिशा में बढ़ेगा। यह अनुमान गलत साबित हुआ। वहीं राजपक्षे ने आम चुनावों के समर्थन में एक ट्वीट करते हुए लिखा है कि और बतौर नेता उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे श्रीलंका के भविष्य पर आम जनता को फ़ैसला करने का अवसर दें। आम चुनाव देश को स्थिरता की ओर ले जाएगा। अंततः चुनाव हुए भी तो कहना मुश्किल है कि जनता को यह तरीका पसंद आएगा या नहीं। 




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