अमेरिकी संसद के मध्यावधि चुनाव परिणाम अंदेशों
या अनुमानों के अनुरूप ही आए हैं। ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने इन परिणामों के
आधार पर अमेरिकी प्रशासन को ‘विभाजित देश की विभाजित सरकार’ बताया है। यों दोनों पक्षों ने इन परिणामों को अपनी विजय बताया है।
आंशिक रूप से दोनों को कुछ न कुछ मिला है। पर 2016 के परिणामों से तुलना करें, तो
कहा जा सकता है कि ट्रम्प सरकार के खिलाफ यह वोटर की नाराज टिप्पणी है। प्रतिनिधि
सदन में वोटर की आवाज अब साफ सुनाई पड़ेगी। ये परिणाम घटिया गवर्नेंस और वोटर की
राजनीतिक व्यवस्था के प्रति वितृष्णा की तरफ इशारा कर रहे हैं। ऐसे ही परिणामों की
भविष्यवाणी थी, जो सही साबित हुई।
अमेरिकी संसद के दो
सदन हैं। हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में 435 सदस्य होते हैं। और दूसरा है, सीनेट। इसमें
100 सदस्य होते हैं। सीनेट की चक्रीय
व्यवस्था के तहत इस बार 35 (33+2) सीटों पर चुनाव हुए। अभी तक दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत था,
पर अब प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेट्स का बहुमत हो गया है। पिछले आठ साल से
रिपब्लिकन पार्टी का इस सदन पर कब्जा था। अमेरिकी
व्यवस्था में मतगणना अपेक्षाकृत सुस्त होती है। अंतिम रूप से परिणाम इन पंक्तियों
के लिखे जाने तक उपलब्ध नहीं थे, पर प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी की
सदस्य संख्या 240 के करीब पहुँच गई है। वहीं रिपब्लिकन पार्टी का सीनेट में बहुमत पहले से
ज्यादा हो गया है। उनके पास अब 100 में से 54 सीटें होने की सम्भावना है।
अमेरिकी चुनावों में
भारत की दिलचस्पी हमेशा रहती है। इसकी वजह है भारतवंशियों की वहाँ की राजनीति में
बड़ी उपस्थिति। इसका परोक्ष रूप से असर भारत-अमेरिका रिश्तों पर भी पड़ता है। इन
दिनों भारतवंशी सांसदों को ‘समोसा कॉकस’ कहा जाने लगा है। डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए
चार भारतवंशी प्रतिनिधि सदन में पहुँच गए हैं। इनके अलावा एक दर्जन से ज्यादा
भारतवंशी देश के दूसरे स्थानीय चुनावों में जीते हैं। विस्तृत विवरण अभी आ ही रहे
हैं, पर इतना साफ है कि अमेरिकी राजनीति में भारत से जुड़े लोगों की भूमिका बढ़ती
जा रही है।
रिपब्लिकन वर्चस्व टूटा
सन 2016 के चुनाव के बाद से रिपब्लिकन पार्टी का
दोनों सदनों में बहुमत हो गया था। वे बिना रोक-टोक के अपनी सरकार चला रहे थे। अब
यह वर्चस्व टूटा है। जनवरी 2019 में जब यह नई सदस्यता प्रभावी होगी, तो उसका पहला
प्रभाव ह्वाइट हाउस पर दिखाई पड़ेगा। दूसरी ओर सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी के
बहुमत में इज़ाफा हुआ है। डेमोक्रेट्स ने गवर्नरों के चुनाव में भी कई प्रांतों
में कामयाबी हासिल की है।
अधिकारों के मामले में सीनेटर ज्यादा ताकतवर
होते हैं। प्रशासन के
कुछ उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए अधिकारियों की सीनेट में मंज़ूरी ज़रूरी होती है।
अदालतों के जजों की नियुक्ति भी सीनेट को मंज़ूर करना ज़रूरी होता है। महत्वपूर्ण
संधियों की पुष्टि सीनेट से करानी होती है। राष्ट्रपति अब जो नियुक्तियाँ करेंगे, उन्हें आसानी से स्वीकृति मिल
जाएगी। दूसरी ओर प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेट बहुमत का मतलब है कि देश का वोटर
उनके साथ है, जो दो साल बाद राष्ट्रपति पद के चुनाव में महत्वपूर्ण साबित होगा।
प्रशासनिक टकराव बढ़ेगा
प्रतिनिधि सदन की संरचना में बड़ा बदलाव आने से
राष्ट्रपति और संसद के बीच टकराव होने का अंदेशा भी है। इससे देश के प्रशासन में
जो दिक्कतें खड़ी होंगी, वे सबके लिए दुखदायी होंगी। एक बात इन परिणामों से यह भी
सामने आई है कि देश के शहरी इलाके डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ हैं। शहरी इलाकों में
राष्ट्रपति ट्रम्प की नीतियों से असहमति है। वहीं रिपब्लिकन पार्टी को इंडियाना,
मिज़ूरी और नॉर्थ डकोटा के कम आबादी वाले देहाती इलाकों में ज्यादा समर्थन मिला
है।
अमेरिकी संसद का गठन इस प्रकार है कि जहाँ
प्रतिनिधि सदन में जनसंख्या के अनुपात में सदस्य आते हैं, वहीं सीनेट में भौगोलिक
अनुपात में। देश 435 चुनाव क्षेत्रों में विभाजित है, जो हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स
के लिए सदस्य भेजते हैं, जबकि हरेक राज्य दो-दो सदस्य सीनेट में भेजता है। इससे
होता यह है कि कई बार बहुत से राज्य किसी एक खास दल के पाले में होते हैं और कई
बार दूसरे दल के पाले में। दस साल पहले 50 में से 17 राज्यों में केवल एक-एक
रिपब्लिकन सीनेटर था। अब जनवरी 2019 में ऐसे राज्यों की संख्या केवल सात रह जाएगी।
सन 2016 के चुनाव में केवल छह डेमोक्रेटिक सीनेटर चुनकर आए थे।
डेमोक्रेटिक पार्टी न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया
में भले ही वोट बटोर ले, पर प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए उसे सीनेट में बेहतर
उपस्थिति चाहिए। इसी तरह रिपब्लिकन पार्टी के पास भले ही राष्ट्रपति पद और सीनेट
में बहुमत हो, बहुमत वोटर का समर्थन नहीं हो तो वह लोकतांत्रिक भावना के प्रतिकूल
रहेगा। सदनों में असंतुलन हो तो कई बार कर प्रस्तावों और बजट को पास कराने में
दिक्कतें होती हैं।
ट्रम्प की मुश्किलें
डेमोक्रेटिक पार्टी की
नेता नैंसी पलोसी ने, जो अब प्रतिनिधि सभा में स्पीकर का पद भी संभाल सकती हैं, कहा है कि अब
डेमोक्रेट्स ट्रम्प प्रशासन पर लगाम लगाएंगे। ऐसा बिल क्लिंटन के कार्यकाल में और पिछले साल ट्रम्प के कार्यकाल
में भी हो चुका है। देखना होगा कि अब डेमोक्रेट प्रतिनिधि सदन में अपनी श्रेष्ठता
का इस्तेमाल किस प्रकार करेंगे। इन नतीजों से ट्रम्प के लिए कुछ मुश्किलें भी खड़ी हो
सकती हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में
रूस की दखलंदाजी के मामले की जांच भी आगे बढ़ सकती है और ट्रम्प पर महाभियोग चलाने
का माहौल भी बन सकता है। प्रतिनिधि सभा की खुफिया समिति 2016 के चुनावों में रूसी हस्तक्षेप
की जाँच कर रही है। इसकी कमान ट्रम्प के धुर विरोधी एडम शिफ़ के पास है। उन्होंने कई
बार कहा है कि इस जाँच को तार्किक परिणति तक पहुँचाएंगे और राष्ट्रपति ट्रम्प के
विदेशी लेन-देन की भी गहराई से जाँच करेंगे।
ट्रम्प सरकार के दूसरे
सदस्यों पर भी नज़रें रहेंगी। गृहमंत्री रेयन ज़िंक पर शिकंजा कस सकता है। उन पर
अपने कारोबारी हितों के लिए सरकारी स्थिति का फायदा उठाने
के आरोप हैं। नीति और राजनीति के नजरिए से ओबामाकेयर जैसे सामाजिक कल्याण के
कल्याण के कार्यक्रमों को खत्म करना संभव नहीं होगा। आप्रवासियों के खिलाफ ट्रम्प
की कड़ी नीतियों पर अंकुश लगेगा।
सिस्टम की साख
बेशक डेमोक्रेट्स सिरफिरे राष्ट्रपति
पर अंकुश लगा सकते हैं, पर पूरे सिस्टम की साख बचाने की जिम्मेदारी भी उनपर है। वे
बदले की भावना से काम करेंगे तो उसका राजनीतिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना होगा। सन
2010 में जब बराक ओबामा राष्ट्रपति थे और रिपब्लिकन पार्टी को प्रतिनिधि सदन में
बहुमत मिल गया था, तब उन्होंने डेमोक्रेट प्रस्तावों को ब्लॉक करना शुरू कर दिया
था। तब बराक ओबामा ने कहा कि प्रशासन के एक हिस्से का हर बात में अड़ंगा लगाना
अनुचित है। अब डेमोक्रेट सदस्यों को यह बात ध्यान में रखनी होगी। इस प्रकार की
प्रवृत्ति हम भारतीय संसद में भी देखते हैं। परिपक्व लोकतांत्रिक प्रणालियों की
सफलता, पुष्ट परम्पराओं पर निर्भर करती है।
देश में आप्रवासियों
की भीड़ को रोकने के लिए ट्रम्प ने मैक्सिको की सीमा पर दीवार बनाने का वादा किया
है। इस प्रोजेक्ट को संसद से पास कराना ज़रूरी होगा। प्रतिनिधि सभा में बहुमत नहीं
होने से ट्रम्प के लिए इस काम में मुश्किलें पैदा होंगी। वीज़ा लॉटरी को ख़त्म
करने, आप्रवासियों को उनके देश भेजने जैसे कुछ प्रस्ताव हैं
जिन्हें ट्रम्प प्रशासन ने लागू करने की कोशिशें की हैं। अब डेमोक्रेट्स के
ताक़तवर होने से इन प्रस्तावों के आगे बढ़ने की संभावना बहुत कम हो गई है।
सामान्यतः जिस देश में
बच्चे का जन्म होता है, उसे उस देश का नागरिक माना जाता है। अमेरिका में भी यह
कानून है। ट्रम्प इस कानून को बदलना चाहते हैं। अब इस कानून में बदलाव मुश्किल
होगा। ट्रम्प प्रशासन सार्वजनिक स्वास्थ्य के कार्यक्रम को भी खत्म कराना चाहता
है। ओबामाकेयर नाम के इस कार्यक्रम को रद्द करना मुश्किल हो जाएगा। रिपब्लिकन
पार्टी आयकर कम करने की मुहिम चला रही थी। डेमोक्रेट्स ने इस मुहिम का विरोध किया
था। लगता नहीं कि अब यह मुहिम पूरी हो पाएगी।
राजनीति की दिशा
इन मध्यावधि चुनाव
परिणामों को दोनों पार्टियों ने अपनी-अपनी जीत बताया जरूर है। इस राजनीतिक परिघटना
की दिशा को लेकर लंदन के अख़बार गार्डियन में विल हटन ने लिखा है कि
एंग्लो-अमेरिकन दक्षिणपंथियों का समय अब बहुत खुशनुमा नहीं है। हालांकि अमेरिकी
मध्यावधि परिणामों से अंदेशों का गर्द-गुबार छँट नहीं जाएगा पर संदेश यह है कि एक
नया प्रगतिशील अमेरिका जन्म लेता जा रहा है। ट्रम्प ने पूरी विजय की भविष्यवाणी की
थी, जो उन्हें नहीं मिली। यह भी सही है कि डेमोक्रेट्स को प्रतिनिधि सदन में उतनी
भारी जीत भी नहीं मिली, जिसकी उम्मीद थी। पर लगता यह भी है कि सन 2020 में ट्रम्प
की जीत के आसार कमजोर हुए हैं। इस बार के मध्यावधि चुनाव में 1966 के बाद पहली बार
इतनी बड़ी संख्या में अमेरिकी नागरिक वोट करने निकले। रिपब्लिकन के मुकाबले एक
करोड़ डेमोक्रेट्स वोट ज्यादा पड़े। हाल के वर्षों का यह सबसे शक्तिशाली ‘रिबाउंड’ है।
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