जिस तरह भारत में
सांस्कृतिक सवालों पर आए दिन धार्मिक कट्टरता के सवाल उठते हैं तकरीबन उसी तरह
पाकिस्तान में भी उठते हैं। दक्षिण एशिया के समाज में तमाम उत्सव और समारोह ऐसे
हैं, जो धार्मिक दायरे में नहीं बँधे हैं। वसंत पंचमी या श्रीपंचमी ऐसा ही मौका है, जो ऋतुओं से जुड़ा है। इसे
भारत, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अपने-अपने तरीके से मनाया जाता है। पीला
या बसंती रंग इसकी पहचान है और इसे मनाने के अलग-अलग तरीके हैं। पंजाब में बसंत के
दिन पतंगे उड़ाने की परम्परा है। विभाजन के बाद भी यह परम्परा चली आ रही है, पर
पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान बसंत के उत्सव पर रोक लगी हुई है। वहाँ की पंजाब
सरकार ने पतंगबाजी से पैदा होने वाले खतरों को लेकर इसपर रोक लगा रखी है, पर काफी
लोग मानते हैं कि इस त्योहार की हिन्दू पहचान को लेकर सवालिया निशान खड़े हुए थे,
जो पाबंदी की असली वजह है।
भारत
में मुगल बादशाहों ने बसंत को सांस्कृतिक रूप से स्वीकार किया था और उसे बढ़ावा
दिया था। मुग़ल काल की मिनिएचर पेंटिंग में बसंत-उत्सव की झलक मिलती है। महाराजा रंजीत सिंह ने अपने दौर में बसंत के
दौरान दस दिन की छुट्टी घोषित कर रखी थी। उनके सैनिक इस दौरान पीले रंग के वस्त्र
पहनते थे। बँटवारे
के बाद पाकिस्तानी पंजाब में भी पतंग उड़ाने का रिवाज़ बना रहा। बल्कि हुआ यह कि अस्सी
के दशक में भारत के मुकाबले पाकिस्तानी समाज में पतंगबाजी ज्यादा लोकप्रियता हासिल
कर गई। इसकी एक वजह शायद पाकिस्तानी समाज के अंतर्विरोध थे। वह ज़ियाउल हक़ का दशक
भी था, जब साहित्य, कला और संस्कृति को धार्मिक-दृष्टि से देखना शुरू हुआ। मनोरंजन पर
पाबंदियाँ लगीं, जिसमें फ़िल्म और रंगमंच भी शामिल थे। सैनिक सरकार और पाबंदियों
के उस दौर में लोगों को मनोरंजन और तफरीह का एक रास्ता बसंत की शक्ल में नजर आया।
इसके केन्द्र में थी, पतंगबाजी।
सांस्कृतिक
उत्सव बना
गली
मोहल्लों में तो पतंगबाजी पहले से थी, कोठियों और बंगलों में भी इसे स्वीकार कर लिया
गया। लाहौर के भद्रलोक में पतंगबाजी लोकप्रिय हो गई। लाहौर में मियाँ सलाहुद्दीन
की हवेली तमाशे का एक केन्द्र बनी जहाँ हर साल विदेशी मेहमानों को ठहराया जाता और पतंगबाजी
दिखाई जाती। हालांकि पूरे पंजाब में पतंगबाजी होती, पर लाहौर का नाइट बसंत यानी
रात की पतंगबाजी काफी लोकप्रिय हो गई। शाम होते ही छतों पर बड़ी-बड़ी सर्च लाइटें
लगा दी जातीं, जिनसे आसमान चमकने लगता। छतों पर बड़े-बड़े लाउड-स्पीकर लगे होते जिनपर
गाने बजते रहते। होटलों की छत पर पतंगबाजी का इंतज़ाम रहता था।
पतंगें
बनाने के रोज़गार में लगे लोग बसंत के मौके पर काफी कमाई करने लगे। लोगों का इतने
जोशो-ख़रोश को देखते हुए पंजाब सरकार ने हर साल फ़रवरी में ‘जश्ने बहारां’ नाम से समारोह मनाना शुरू कर दिया। पर्यटन का अच्छा माध्यम यह
समारोह बना। भारत से भी साहित्यकार, पत्रकार, संगीतकार, गायक और फिल्मी हस्तियों
का आवागमन शुरू हो गया। इस त्योहार का लोकप्रियता का आलम यह था कि फौज के सिपाही
पीले कपड़े पहने नजर आने लगे। पीले कपड़े पहने गीत गाती झूले झूलती स्त्रियाँ नजर
आने लगीं।
दुर्घटनाएं
और कट्टरता
इस
रौनक में भी खलल तब पड़ा, जब पतंगों में इस्तेमाल होने वाले तीखे माँझे में लगे
रसायनों के कारण कुछ दुर्घटनाएं हुईं और कुछ बच्चों की मौत की खबरें आईं। सड़कों
पर तेजी से जाते मोटर साइकिल सवार पतंगों के धागे की लपेट में आकर दुर्घटना के
शिकार हुए। पंजाब सरकार ने सन 2007 में इस त्योहार पर रोक लगा दी। पर इस रोक के
कुछ साल पहले से इस उत्सव के धार्मिक पहलू को लेकर विरोध होने लगा था। मीडिया में
इस आशय की खबरें आईं कि यह उत्सव हकीकत राय की मृत्यु के विरोध में मनाया जाता है।
अठारहवीं सदी में किशोर हकीकत राय को इस्लाम का अपमान करने के आरोप में फाँसी दी
गई थी। यह फाँसी बसंत पंचमी को दी गई थी।
कहना
मुश्किल है कि पंजाब में पतंगें उड़ाने की इस प्रथा का हकीकत राय की कहानी से कोई
सम्बन्ध है या नहीं, पर इसपर पाबंदी लगाने की माँग करने वालों ने इसे इस रूप में
भी उठाया। सन 2004 में अख़बार में नवा-ए-वक्त में छपे एक लेख का असर काफी हुआ। इसके
गैर-इस्लामिक पहलू को लेकर बातें बढ़ीं, पर 2007 में जब पंजाब सरकार ने इसपर पहली
बार पाबंदी लगाई तब आधार धार्मिक नहीं बताया गया, बल्कि कहा गया कि इसके खतरनाक
पक्ष के कारण इसे रोका गया है। पर धीरे-धीरे बात यह भी होने लगी कि बसंत पंचमी
हिन्दू त्योहार है।
पर्यटन
को धक्का
बहरहाल
इस त्योहार पर पाबंदी लगने के बाद पर्यटन और पतंगबाजी से जुड़े कारोबार को भारी
धक्का लगा। उसके बाद से हर साल माँग उठती रही है कि इसे फिर से शुरू किया जाए। सन
2017 में सम्भावना बनी थी कि यह शुरू हो सकता है, पर अंततः वह प्रयास विफल रहा। सन 2012 में लाहौर
से बीबीसी हिंदी संवाददाता हफ़ीज़ चाचड़ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार इसका
कारण पतंग की डोर से हुई मौतें बताती है लेकिन पाकिस्तानी समाज में बढ़ता कट्टरपंथ
इसकी बड़ी और एक मात्र वजह है।
लाहौर के प्रसिद्ध विश्लेषक हसन निसार ने कहा, ‘बसंत पर
प्रतिबंध लगाना ग़लत क़दम है, गाड़ियों की प्रतिदिन
दुर्घटनाएं होती हैं तो क्या आप गाड़ियों पर पाबंदी लगा देंगे।’ उन्होंने कहा, मैंने एक दिन नारंगी रंग का
कुर्ता पहना तो लोगों ने कहा कि यह तो हिंदुओं का रंग है। नारंगी तो गेंदे के फूल
का रंग है और मुझे बहुत पसंद है। रंग कभी हिंदू और मुसलमान हुआ है क्या? बसंत एक
त्योहार है इसका हिंदू और मुसलमानों से कोई लेना देना नहीं है।
नवम्बर 2009 में पंजाब असेम्बली ने एक बिल पास करके बसंत
के मौक़े पर 15 दिनों के लिए पतंग उड़ाने के सिलसिले में कुछ दिशा-निर्देश भी
बनाए, पर प्रतिबंध फिर भी नहीं हटा। यह मामला हाईकोर्ट तक गया। हाल में लाहौर
हाईकोर्ट में एक सुनवाई के दौरान पंजाब सरकार ने कहा कि हमारा इरादा इस साल बसंत
के मौके पर पतंगें उड़ाने का इजाजत देने का नहीं है। अलबत्ता हम भविष्य में ऐसी
किसी गतिविधि की अनुमति देने के पहले एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाएंगे। पंजाब सरकार
के विधि-अधिकारी ने जस्टिस शकीलुर रहमान खान की अदालत में कहा कि सरकार ने सन 2019
के साल इसकी इजाजत तो नहीं ही दी जा रही है। इस साल 10 फरवरी को बसंत पंचमी है।
विकल्पों पर विचार
पंजाब सरकार की रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार मानती
है कि इस त्योहार ने लाहौर और मुल्क के दूसरे इलाकों में सांस्कृतिक गतिविधि के
रूप में जगह बना ली है और इसके अलावा इस गतिविधि के आर्थिक पहलू भी हैं। इसके साथ
काफी बड़ी संख्या में लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी हुई है। इसलिए सरकार कई विकल्पों
पर विचार कर रही है। एक विकल्प है कि सभी हित-साधकों के साथ विचार-विमर्श करके एक
नया कानून बनाया जाए, जिसमें सुरक्षा और लोगों तथा सम्पत्ति की हिफाजत के लिए
नियामक-व्यवस्था हो। सरकार ने अतीत में जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए इसपर
पूरी तरह रोक लगाने का फैसला किया था। इसपर अदालत ने यह भी पूछा कि यदि इसपर बैन
है, तो उसका उल्लंघन करने वालों पर क्या कार्रवाई हुई। वस्तुतः रोक के बावजूद किसी
न किसी रूप में लोग पतंगें उड़ा लेते हैं।
सरकार पर भी एक तरफ जनमत का और दूसरी तरफ इसके विरोधियों
का दबाव है। पिछले साल 18 दिसम्बर को पंजाब सरकार ने घोषणा की थी कि 12 साल पुरानी
पाबंदियों को खत्म करके 2019 में बसंत उत्सव मनाया जाएगा। इस घोषणा के कारण मामला
अदालत गया था, जहाँ सरकार ने स्पष्ट किया कि हमारा ऐसा इरादा फिलहाल नहीं है।
कैसा यू-टर्न?
पंजाब सरकार के इस यू-टर्न पर देश के प्रगतिशील अख़बार
डॉन ने अपने सम्पादकीय में लिखा कि यह बात अविश्वसनीय है कि एक सरकार खतरनाक माँझे
के उत्पादन को रोक पाने में असमर्थ है। हमें लगता है कि इसपर रोक इसलिए है,
क्योंकि समाज का एक अनुदार वर्ग लोगों के मनोरंजन को और सरकारी राजस्व के साधनों
में वृद्धि को स्वीकार नहीं कर पा रहा है। बेशक लोगों की सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण
है, पर ओछे विचारों के कारण बसंत के स्वागत को रोका नहीं जाना चाहिए। हाल में आठ
सदस्यों की एक कमेटी इस मसले पर विचार के लिए बनाई गई, जिसका निष्कर्ष था कि लाहौर
का नगर प्रशासन इस उत्सव की चुनौतियों का सामना करने को तैयार नहीं है। इस किस्म
के फैसलों पर हमें पुनर्विचार करना चाहिए।
सच यह है कि सुरक्षा
के मसले महत्वपूर्ण होने के बावजूद वास्तविक मसला यह नहीं है, यह एक फैसले को
रोकने की आड़ है। 19 जनवरी के डॉन में माजिद शेख ने अपने आलेख में कहा है कि शुरू
में कहा गया था कि यह हिन्दू उत्सव है। विद्वानों ने साबित किया कि ऐसी बात नहीं
है, क्योंकि दुनियाभर में अलग-अलग धर्म बसंत का अपने-अपने तरीके से बसंत का उत्सव
मनाते हैं। यह लोगों का उत्सव है। ब्रिटिश म्यूजियम में एक पेंटिंग है, जिसमें
महमूद गज़नी लाहौर में को दिखाया गया है, जिसमें आकाश पर पतंगें उड़ती नजर आती
हैं। हजारों साल से माघ की पंचमी पर इस इलाके के लोग उत्सव मनाते रहे हैं। इसके
पीछे अच्छी फसल की कामना है और बदलते मौसम का स्वागत भी। लोग ताजा साग और मक्की की
रोटी का आनन्द लेते हैं। नाचते हैं, गाते हैं।
सरकारी पाबंदी की कई
वजहें हैं। एक है, पतंगी धागे में लिपटने के कारण मोटर साइकिलों की दुर्घटनाएं।
ध्यान दें कि लाहौर में मोटर साइकिलों की तादाद बहुत ज्यादा है। यहाँ 43 लाख मोटर
साइकिलें हैं। सात व्यक्तियों के प्रत्येक परिवार के पास औसतन 1.7 मोटर साइकिलें
हैं। ट्रैफिक नियंत्रण सरकारी जिम्मेदारी है। सरकार अपने काम करने में विफल है, तो
इसकी जिम्मेदारी जनता पर क्यों डाली जाए। दूसरे बच्चे तो क्रिकेट खेलते हुए भी
घायल होते हैं। क्या उसे भी रोकेंगे? सच यह है कि सड़क पार करने की कोशिश में मरने वालों की तादाद पतंगी माँझे
से मरने वालों के मुकाबले ज्यादा है। पहले ऐसा नहीं होता था, क्योंकि तब इतनी मोटर
साइकिलें नहीं थीं। आप ऐसा भी तो कर सकते हैं कि उत्सव के दौरान कुछ खास इलाकों
में मोटर साइकिलों के आवागमन पर रोक लगा दें। एक दिन के लिए हेल्मेट पहनने की
जरूरत को अनिवार्य कर दें। अच्छी बात यह है कि पाकिस्तानी समाज भी जीवंत और जागरूक
है। वहाँ भी इस सवाल पर चर्चा है। वैसे ही जैसे हमारे समाज में कट्टरपंथ और
समझदारी के बीच बहस है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कवि प्रदीप और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंऐसे उत्सवों के सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व को नज़रअंदाज़ कर जन-मन के उल्लास को प्रतिबंधित कर दिया जाने पर जीवन की सरसता समाप्त,परिणाम कुंठाओं उदय का और वैचारिक प्रदूषण.
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