सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खात्मे का एलान
अब सिर्फ औपचारिकता है। पूर्वी सीरिया का अलबाग़ूज़ क़स्बा आइसिस उर्फ आईएस या दाएश
का आख़िरी ठिकाना था, जिसपर अब पश्चिमी देशों की सेनाओं का कब्ज़ा हो
गया है या हो जाएगा। इस्लामिक स्टेट के सैनिकों और नेताओं ने या तो समर्पण कर दिया
है या भाग निकले हैं। बड़ी संख्या में लोग मारे गए हैं। एक तरफ सीरिया में
इस्लामिक स्टेट की पराजय की खबरें हैं, वहीं अफगानिस्तान और उत्तरी अफ्रीका में
उनके सक्रिय होने के समाचार भी है। चुनौती उस व्यवस्था को कायम करने की है जिसमें इस
गिरोह की वापसी फिर से न होने पाए।
अफ़ग़ानिस्तान में गुरुवार 7 मार्च को इस्लामी
एकता पार्टी के नेता अब्दुल अली मज़ारी की बरसी के मौक़े पर आयोजित एक सभा में
दाएश ने हमला किया। सभा में देश के मुख्य कार्याधिकारी अब्दुल्ला अब्दुल्ला सहित
कई राजनीतिक हस्तियां शामिल थीं। शोक सभा स्थल के पास सिलसिलेवार बम धमाकों के
कारण बरसी का कार्यक्रम अधूरा छोड़ दिया गया था। इसमें कम से कम 11 लोग मरे और 95
के घायल होने की खबरें हैं। ऐसी खबरें पश्चिम एशिया के कई इलाकों से मिल रहीं हैं।
मित्र देशों की असहमति
उधर पश्चिमी देशों में इस बात पर सहमति नहीं बन
पाई है कि पूर्वी सीरिया की सुरक्षा अब कैसे की जाएगी। अमेरिका ने अपने आठ मित्र
देशों से कहा था कि वे शुक्रवार 8 मार्च तक इस बात की जानकारी दे दें कि कितनी
जिम्मेदारी निभाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। इन देशों में ब्रिटेन, फ्रांस
और जर्मनी सबसे प्रमुख हैं। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दिसम्बर में कहा था कि
हमारी सेनाएं अब सीरिया से हट जाएंगी। इस घोषणा की अमेरिका के भीतर आलोचना हुई और
सेना की फौरी वापसी रुक गई। अब अमेरिका कोशिश कर रहा है कि मित्र देशों के साथ
मिलकर कोई व्यवस्था बने। इस व्यवस्था में यूरोप के मित्र देशों के अलावा कुर्दों
के नेतृत्व में गठित सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ (एसडीएफ) तथा तुर्की की भूमिका
होगी। इसमें भी अड़चन है। तुर्की की नजर में एसडीएफ भी आतंकवादी संगठन है।
अमेरिकी नेतृत्व में लड़ रही सेनाओं ने इस
इलाके में इस्लामिक स्टेट से जुड़े करीब 5,000 लोगों को अपनी हिरासत में लिया है।
इनके रखरखाव की जिम्मेदारी ऊपर से है। इन पकड़े गए लोगों में करीब 1,000 बाहरी हैं
और शेष सीरियाई या इराकी नागरिक हैं। पिछले एक महीने में एसडीएफ ने करीब 20,000
लोगों को बग़ूज़ से बाहर निकाला है। इनमें महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इनके रहने
के लिए कैम्प बनाए गए हैं। बग़ूज़ शहर से बाहर निकाले गए नागरिकों को सुविधाएं दे पाने में
रेडक्रॉस के अधिकारी असमर्थ हैं। इन कैम्पों में करीब 45,000 लोग रह रहे हैं।
हजारों लोग रोजाना आ रहे हैं। इनमें से काफी लोग, बीमार, घायल, थके और घबराए हैं। यानी
कि इस क्षेत्र के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी में कई तरह के काम शामिल हैं।
अमेरिका के समर्थन में लड़ने आए यूरोप के मित्र
देशों ने सन 2015 में इस बात पर हामी भरी थी कि वापसी होगी, तो सबकी एकसाथ होगी।
यानी कि इलाके में स्थिरता आने तक सब वहाँ रहेंगे और स्थानीय फौजियों को ट्रेनिंग
वगैरह भी देंगे। कोई भी नहीं चाहता कि वहाँ इस्लामिक स्टेट फिर से पैर जमाए। वे यह
भी नहीं चाहते कि उनके हटने के बाद कुर्दों और तुर्कों के बीच लड़ाई शुरू हो जाए।
पश्चिम एशिया में अमेरिकी सेना के प्रमुख जनरल जोसफ वोटेल ने हाल में कहा है कि
इसीलिए कुछ समय तक पश्चिमी सेनाओं की जरूरत वहाँ होगी। मित्र देशों की सेनाओं की
अनुपस्थिति में स्थिति को काबू करने में दिक्कत होगी।
अमेरिकी योजना
ट्रम्प प्रशासन की योजना है कि अमेरिकी सेना
उत्तरी सीरिया के शहर मानबिज में मौजूद रहेंगी और तुर्की की फौज के साथ मिलकर
इलाके में गश्त लगाएंगी। एक दूसरा ग्रुप फ़ुरात (यूफ्रेटस) नदी के पूर्वी तट पर
तैनात रहेगा और उस इलाके को तुर्की और सीरिया के बीच सेफ ज़ोन बनाएगा। अमेरिकी
सेना स्थानीय लड़ाकों को ट्रेनिंग और सलाह देंगी ताकि वे अपने इलाके की रक्षा करते
रहें। एक तीसरा दल दक्षिणी शहर तांफ में तैनात रहेगा, जो
इस्लामिक स्टेट की फिर से सिर उठाने की कोशिशों को तो रोकेगा ही साथ ही इस इलाके
में ईरान के प्रभाव को बढ़ने से रोकेगा। पर यह दल ट्रेनिंग और सलाह देने का काम
नहीं करेगा।
दिसम्बर में राष्ट्रपति ट्रम्प ने 2000 से
ज्यादा सैनिकों की वापसी की घोषणा की थी। साथ ही कहा था कि यूरोपीय देश सीरिया के
पूर्वोत्तर के सेफ ज़ोन में उपस्थिति बनाए रखेंगे। इसपर इन देशों ने एतराज जताते
हुए कहा था कि हम भी अमेरिका का अनुसरण करते हुए सीरिया से कूच कर जाएंगे। तुर्की
और यूरोपियन देशों की शिकायतों के मद्देनजर अमेरिका ने फरवरी में कहा कि हमारी सेना
का एक हिस्सा फिर भी बना रहेगा। यह सेना स्थानीय लोगों को ट्रेनिंग वगैरह देगी और
ईरान के प्रभाव को बढ़ने से रोकेगी। यूरोपीय देशों को अमेरिकी वायुसेना के सहयोग, लॉजिस्टिक्स
वगैरह की जरूरत है। बहरहाल अभी तक केवल फ्रांस ने खुलकर कहा है कि हम अपनी फौज को
वहाँ रखने पर सहमत हैं, पर वह भी अमेरिकी योजना की विस्तृत जानकारी
चाहता है।
बग़दादी कहाँ है?
यह सवाल भी उठ रहा है कि इस्लामिक स्टेट का
मुखिया अबू बक्र-अल-बग़दादी कहाँ है? दाएश के हथियार डालने वाले लड़ाकों को
भी हैरत है कि जिस वक्त उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, वह
गायब है। उसकी अनुपस्थिति के कारण दाएश के भीतर टकराव पैदा होने लगा है। माना जाता
है कि सीरिया में हार के बावजूद इस्लामिक स्टेट की फौज में 28,000 से 32,000 के
बीच सैनिक अब भी हैं। पिछले दिनों पकड़े गए एक फौजी ने माना कि बग़दादी कहीं छिपा
है और इस बात से हमारे लोग नाराज़ भी हैं।
सीरिया में पिटने के बाद दाएश-योद्धा अपने-अपने
घरों को वापस जा रहे हैं। इनके घर लीबिया, अफगानिस्तान, यमन
और मिस्र जैसे देशों में हैं, जहाँ टकराव किसी न किसी रूप में चल ही रहा है।
अफ्रीकी देशों में भी आइसिस का प्रभाव है। यह प्रभाव एकदम से खत्म नहीं हो जाएगा। इस्लामिक-संग्राम
की वैचारिक अपील इस इलाके में बदस्तूर है। पर बग़दादी और संगठन के नेतृत्व के
पदक्रम की अनुपस्थिति के कारण इसका प्रभाव कम जरूर होने लगा है।
एक अरसे से अफ़वाहें उड़ती रही हैं कि बग़दादी
मारा गया, पर वे ग़लत साबित होती हैं। अमेरिका ने उसपर
ढाई करोड़ डॉलर का इनाम रखा है। बताते हैं कि बग़दादी को डायबिटीज़ और हाई ब्लड
प्रेशर है। साथ ही वह हवाई हमलों में कई बार घायल हुआ है। इराकी खुफिया एजेंट उसके
पीछे लगे हैं, पर बताते हैं कि वह किसी एक जगह रुकता नहीं।
कभी सीरिया के किसी इलाके में होता है, तो कभी इराक में। वह युद्धक्षेत्र से
बचने की कोशिश करता है, पर अपने वफादारों से सम्पर्क बनाए रखता है और
कहता है कि लड़ाई जारी रखो। पर कुछ समय से वह सार्वजनिक रूप से कोई संदेश नहीं दे
रहा है। उसका आखिरी ऑडियो पिछले साल अगस्त में जारी हुआ था। वह भी करीब एक साल के
सन्नाटे के बाद।
क्यों उभरा आइसिस
इस्लामिक स्टेट का सितारा जब बुलंद था, तब
सीरिया और इराक के इलाके में करीब आठ करोड़ की आबादी उसके अधीन थी। बग़दादी ने जिस
ख़िलाफ़त यानी राज-व्यवस्था की संरचना तैयार की थी, उससे
प्रभावित होकर दुनिया भर से हजारों योद्धा उसकी फौज में शामिल होने लगे थे। उसकी
संरचना अलकायदा जैसे संगठनों से फर्क थी। सीरिया की पराजय से यह नहीं मान लेना
चाहिए कि इसकी गतिविधियों पर पूर्ण विराम लगेगा, पर
यह स्पष्ट नहीं है कि इसे कौन और कैसे चलाएगा। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि
आत्मघाती हमले अब भी हो रहे हैं। गत 17 जनवरी को सीरिया के मनबिज इलाके में ऐसा ही
एक हमला हुआ था, जिसमें चार अमेरिकी मारे गए थे।
इस किस्म के संगठनों को विचारधारा के सूत्र और
चमत्कारिक नेतृत्व जोड़कर रखते हैं। इनके आधार पर ही जनता के बड़े वर्ग का ऐसे
संगठनों को समर्थन मिलता है। जर्मन चांसलर अंगेला मर्केल का कहना है कि इस्लामिक
स्टेट को इस इलाके से खदेड़ देने का मतलब यह न निकाला जाए कि उसका खात्मा हो गया
है। वह एक नई लड़ाकू सेना के रूप में पुनर्गठित हो रहा है और यह बात खतरनाक है।
लेबनॉन के राजनीतिक विश्लेषक असद बचारा ने टाइम पत्रिका से कहा है कि आइसिस एक
विचारधारा है, केवल सैनिक संरचना मात्र नहीं। जमीन के किसी हिस्से पर कब्जा कर
लेने मात्र से यह विचारधारा खत्म नहीं हो जाएगी। हमें उन कारणों पर विचार करना
चाहिए, जिनकी वजह से इसका उदय हुआ।
सामाजिक दोष
इस हिंसक उभार के पीछे सरकारों और राजनीतिक
नेतृत्व का विफल होना भी शामिल है। इतना यकीनन कहा जा सकता है कि इस समूह की हिंसक
विचारधारा दो दिन में काफूर नहीं हो जाएगी। सम्भव यह भी है कि इस विचार को कोई नया
नेतृत्व मिले और वह किसी नई रणनीति के साथ सामने आए। इस विचार के समांतर
आधुनिकीकरण, उदारवाद और इंसान-परस्त अवधारणाओं का इस इलाके
में प्रवेश भी जरूरी है। न्यूयॉर्क के थिंकटैंक सूफान सेंटर का कहना है कि प्रभावशाली,
न्यायपूर्ण गवर्नेंस और समावेशी समाज-व्यवस्था ही ऐसे आंदोलनों को खड़ा होने से
रोक सकती है, पर यह काम दो दिन में तो पूरा होने से रहा। वह तभी सम्भव है, जब
इलाके की बड़ी राज-व्यवस्थाएं इसमें शामिल हों।
ऐसा फिलहाल सम्भव नहीं, क्योंकि वैश्विक मतैक्य
नहीं है। इस इलाके में सक्रिय ताकतों का आपस में टकराव है। अमेरिकी रणनीति ईरान के
खिलाफ है। साथ ही सऊदी अरब और इसरायल दोनों अमेरिका के साथ हैं। दूसरी तरफ चीन और रूस
पश्चिम के विपरीत पाले में हैं और लगता नहीं कि भविष्य में वे पश्चिमी पाले में आएंगे।
उधर बशर अल-असद की सीरिया सरकार को ईरान का समर्थन
बदस्तूर जारी रहेगा और उस सरकार की इस्लामिक स्टेट के साथ लड़ाई भी चलती रहेगी।
ईरान का आरोप है कि इस्लामिक स्टेट को खड़ा ही अमेरिका ने किया है।
इस दौरान सीरिया की बशर अल-असद सरकार ने अपनी
स्थिति मजबूत कर ली है, जो अमेरिका की इच्छा कभी नहीं रही होगी। कुछ
साल पहले तक अमेरिका इस सरकार को इस इलाके की सबसे बड़ी समस्या मानता था। पर
इस्लामिक स्टेट के उदय का बाद सीरिया की समस्या पीछे चली गई। अब कुर्दों की समस्या
के विकट होने का खतरा पैदा हो गया है। कुर्द आबादी ईरान, इराक़, सीरिया
और तुर्की में बसी हुई है। तुर्की के कुर्द अलग देश के लिए लड़ रहे हैं और तुर्की
उन्हें आतंकवादी कहता है। तुर्की को लगता है कि यदि सीरिया के कुर्द मज़बूत हो गए
तो तुर्की के भीतर कुर्द आंदोलन भी मज़बूत होगा।
कैसा होगा बफर ज़ोन?
ट्रम्प ने बीस किलोमीटर चौड़े जिस बफर ज़ोन को बनाने
का ज़िक्र किया है, वह कैसे बनेगा, कौन
इसका खर्चा देगा और इसकी कानूनी स्थिति क्या होगी, यह
स्पष्ट नहीं है। तुर्की पीकेके और वाईपीजी (पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट) जैसे कुर्द
समूहों को आतंकवादी संगठन मानता है। सीरिया के क़रीब तीस फ़ीसदी हिस्से पर वाईपीजी
के नेतृत्व वाले गठबंधन सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ोर्सेज़ का नियंत्रण है। अमेरिका इस
गठबंधन की मदद कर रहा था।
अमेरिका चाहता है कि इन कुर्दों को सीरिया और
तुर्की दोनों के ख़िलाफ़ प्रयोग करे। सीरिया इस लड़ाई में सफल रहा और उसने विद्रोही
संगठनों को काबू में कर लिया। उधर तुर्की ने एलान किया है कि वह कुर्दों की शक्ति
क्षीण करने लिए उन पर सीरिया के भीतर भी हमला कर सकता है। तुर्क राष्ट्रपति रजब
तैयब एर्दोगान की योजना सीरिया के भीतर फ़ुरात नदी के पूर्वी इलाक़े में कुर्दों
की शक्ति को पूरी तरह तबाह करने की है। पर अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने कहा है कि
सीरिया से अमेरिकी सेना इसी शर्त पर
निकलेगी कि जब तुर्की वादा करेगा कि वह कुर्दों की रक्षा करेगा।
तुर्की में कुर्दों का अलगाववादी आंदोलन दशकों
से चला आ रहा है। सीरिया का संकट शुरू हुआ तो दुनिया भर से लड़ाके (आतंकवादी)
तुर्की आते और वहां से सीरिया और इराक़ में घुसने लगे। सीरिया सरकार के खिलाफ
लड़ने वाले आतंकियों को अमेरिका,
फ़्रांस, ब्रिटेन
से हथियार मिलते थे वहीं दाएश का मुक़ाबला करने के नाम पर कुर्दों को भी हथियार
दिए गए। उधर सीरिया की बशर अल-असद सरकार ने तीन लाख से अधिक कुर्दों की नागरिकता
की समस्या को हल किया। उन्हें कोई भी देश अपना नागरिक मानने के लिए तैयार नहीं था।
बदले हुए हालात में इन कुर्दों का इस्तेमाल अमेरिका ने किया, पर वे दमिश्क सरकार
के सम्पर्क में भी हैं।
अरब जनांदोलन
सन 2011 में जब अरब देशों में जनांदोलन खड़े हो
रहे थे, तभी सीरिया के शासक बशर अल-असद के खिलाफ भी बगावत
शुरू हुई। बशर अल-असद ने 2000 में अपने पिता हाफेज़ अल-असद की जगह ली थी। अरब
देशों में सत्ता के ख़िलाफ़ शुरू हुई बगावत से प्रेरित होकर मार्च 2011 में सीरिया
के दक्षिणी शहर दाराआ में भी लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन शुरू हुआ था, जिसने
गृहयुद्ध का रूप ले लिया। उन्हीं दिनों इराक में इस्लामिक स्टेट उभार शुरू हुआ, जिसने
उत्तरी और पूर्वी सीरिया के काफी हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस लड़ाई में ईरान, लेबनान, इराक़, अफ़गानिस्तान
और यमन से हज़ारों की संख्या में शिया लड़ाके सीरिया की सेना की तरफ़ से लड़ने के
लिए पहुंचे।
असद सरकार की मौजूदगी रूस के लिए ज़रूरी है।
वजह ये है कि मध्य पूर्व में सीरिया ही एक मुल्क है जिसकी वजह से इस क्षेत्र में
रूस अपनी मौजूदगी दर्ज करा सकता है। अमेरिका ने इस्लामिक स्टेट के नाम पर
हस्तक्षेप किया था, पर लड़ाई असद सरकार के खिलाफ भी थी। सीरिया ने
रूस से मदद माँगी और सितम्बर 2015 में रूस भी असद के पक्ष में इस लड़ाई में कूद
पड़ा। रूसी सेना ने आईएस और सीरिया के बागियों, दोनों
के खिलाफ मोर्चे खोले। रूस के प्रवेश से लड़ाई पूरी तरह से इस्लामिक स्टेट के
खिलाफ हो गई और असद को हटाने की माँग पीछे चली गई। इस लड़ाई के बाद पश्चिम एशिया
में रूस की भूमिका बढ़ेगी। रूस के ईरान और तुर्की के साथ रिश्तों में भी बेहतरी
हुई है। इस इलाके में ही नहीं अफ़ग़ानिस्तान में भी रूस की भूमिका बढ़ी है।
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