शनिवार, 29 दिसंबर 2018

सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी वापसी के मायने




अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन ने अफ़ग़ानिस्तान में तैनात अपने हजारों सैनिकों को वापस बुलाने की योजना बनाई है। अमेरिकी मीडिया ने अधिकारियों के हवाले से रिपोर्टों में बताया है कि महीने भर में 7,000 सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से वापस चले जाएंगे। वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार जल्द ही ह्वाइट हाउस के चीफ ऑफ स्टाफ का पद छोड़ने जा रहे जॉन केली और ह्वाइट हाउस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन सहित ट्रम्प के वरिष्ठ कैबिनेट अधिकारियों के विरोध के बावजूद इस पर विचार किया जा रहा है। इसके एक दिन पहले ट्रम्प ने सीरिया से सैनिकों को हटाने की घोषणा की थी। उनके इस फैसले से असहमत रक्षामंत्री जेम्स मैटिस और एक अन्य उच्च अधिकारी ब्रेट मैकगर्क ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इधर शनिवार 29 दिसम्बर को ह्वाइट हाउस ने कहा है कि राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के बाबत कोई फैसला नहीं किया है। 

भारतीय नज़रिए से महत्वपूर्ण हैं बांग्लादेश के चुनाव


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इस साल नेपाल, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव में हुए चुनावों के बाद इस हफ्ते बांग्लादेश की संसद के चुनाव होने जा रहे हैं। मतदाता 30 दिसम्बर को 350 सदस्यों वाली 11वीं संसद के सदस्यों को चुनेंगे। इन सदस्यों में से 300 सीधे फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की पद्धति से चुने जाएंगे। 50 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं, जिनका चुनाव पार्टियों को प्राप्त वोटों के अनुपात में किया जाएगा। बांग्लादेश हमारे उन पड़ोसी देशों में से एक है, जिनके साथ हमारे रिश्ते पिछले एक दशक से अच्छे चल रहे हैं। इसकी बड़ी वजह शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार है।

अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। दूसरी तरफ भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। इस वजह से दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे।

मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

बांग्लादेश में संसदीय चुनाव


पड़ोसी देशों की राजनीति भारत के साथ उनके रिश्तों को काफी प्रभावित करती है। इस साल नेपाल, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और मालदीव के चुनावों के बाद इस हफ्ते बांग्लादेश की संसद के चुनाव होने जा रहे हैं। बांग्लादेश हमारे उन पड़ोसी देशों में से एक है, जिनके साथ हमारे रिश्ते पिछले एक दशक से अच्छे चल रहे हैं। इसकी बड़ी वजह शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार है। शेख हसीना को अपने देश में कट्टरपंथी समूहों का सामना करना पड़ता है, जो स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान-परस्त भी हैं। इसलिए भारत के साथ उनके हित जुड़ते हैं। इस वजह से उनपर भारत के पिट्ठू होने का आरोप भी लगता है।

अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। दूसरी तरफ भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। इस वजह से दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे।

शनिवार, 22 दिसंबर 2018

ओपेक ने तेल में गिरावट रोकी, पर कब तक?

दिसम्बर के पहले सप्ताह में ओपेक और उसके सहयोगी देशों के बीच हर रोज 12 लाख बैरल उत्पादन कम करने पर अंततः सहमति हो गई और इसके बाद तेल की कीमतों में गिरावट रुक गई है। शुक्रवार 7 दिसम्बर को इस समझौते की घोषणा हुई और उसी रोज तेल के वैश्विक बेंचमार्क ब्रेंट खनिज तेल की कीमतें 5.2 फीसदी बढ़कर 63.11 डॉलर प्रति बैरल हो गईं। ओपेक बैठक में यह फैसला होने के पहले गुरुवार की शाम और शुक्रवार की सुबह तक कीमतों में गिरावट का रुख था। पिछले अक्तूबर से अबतक वैश्विक तेल बाजार में कीमतों में 30 फीसदी की गिरावट आ चुकी है। गुरुवार की शाम तक नहीं लग रहा था कि उत्पादन कम करने पर सहमति हो पाएगी।

इन गिरती कीमतों को थामने और फिर उन्हें बढ़ाने की कोशिशों में दो रुकावटें थीं। एक तो यह माना जा रहा था कि रूस बहुत कम कटौती करेगा। दूसरी रुकावट ईरान की तरफ से थी। ईरान अपना उत्पादन कम करने को तैयार नहीं था। अमेरिकी पाबंदियों के कारण वह पहले से संकट में है। तेल का उत्पादन कम करने से उसकी अर्थव्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा है। अब ओपेक सदस्य देशों ने जो डील किया है, उसके अनुसार ईरान अपना तेल उत्पादन कम नहीं करेगा। ईरान के अलावा ओपेक ने लीबिया, नाइजीरिया और वेनेजुएला को भी छूट दी है। तेल उत्पादन में कटौती करने से इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी संकट में आ जाएंगी। जनवरी के महीने से ओपेक देश अक्तूबर के उत्पादन के बरक्स आठ लाख बैरल का उत्पादन कम करेंगे और गैर-ओपेक देश चार लाख बैरल का। इस फैसले की समीक्षा अप्रैल में की जाएगी।

क़तर ने ओपेक का दामन छोड़ा


तेल कीमतों के साथ तेल-उत्पादन की राजनीति में भी बदलाव नजर आ रहा है। एक तरफ ओपेक के साथ रूस के रिश्ते बन रहे हैं, वहीं पश्चिम एशिया की राजनीति के अंतर्विरोध ओपेक में भी नजर आने लगे हैं। रूस की भूमिका बढ़ने के साथ-साथ ओपेक के छोटे सदस्य देशों को लगता है कि उनकी आवाज दबने लगी है। दिसम्बर को पहले हफ्ते में जब वियना में ओपेक की बैठक होने वाली थी, उसके पहले क़तर के ऊर्जा मंत्री साद अल-काबी ने घोषणा की कि आगामी जनवरी में क़तर ओपेक को छोड़ देगा। उन्होंने कहा कि इसके पीछे कोई राजनीतिक कारण नहीं है। क़तर प्राकृतिक गैस की ओर अधिक ध्यान देना चाहता है। क़तर की अर्थव्यवस्था में तेल से ज्यादा गैस का महत्व है। इतनी ही नहीं रविवार 9 दिसम्बर को सऊदी अरब में हुई खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) की शिखर-बैठक में भी क़तर शामिल नहीं हुआ।

पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि इस अलहदगी के कारण स्पष्ट हैं। सऊदी अरब के साथ क़तर के रिश्तों में आया बिगाड़ इसके पीछे बड़ा कारण है। एक साल से ज्यादा लम्बे अरसे से सऊदी अरब ने क़तर की आर्थिक और डिप्लोमैटिक-नाकेबंदी कर रखी है। क़तर को लगता है कि ओपेक में सऊदी अरब और दूसरे खाड़ी देशों की भूमिका बहुत ज्यादा है। ओपेक ने क़तर के अलग होने के फ़ैसले पर अपने आधिकारिक बयान में कहा कि यह संगठन को राजनीतिक तौर पर कमज़ोर करने की कोशिश है। क़तर और सऊदी अरब दोनों के रिश्ते अमेरिका के साथ अच्छे हैं। यह भी सच है कि सऊदी नाकेबंदी के बावजूद इन्हीं रिश्तों के कारण क़तर ने खुद को बचा रखा है। खाशोज्जी-हत्याकांड और अब तेल-उत्पादन में गिरावट के कारण अमेरिकी प्रशासन का एक तबका सऊदी सरकार से नाराज है। हालांकि डोनाल्ड ट्रम्प के व्यक्तिगत रूप से सऊदी शाही परिवार से रिश्ते अच्छे हैं, पर कहना मुश्किल है कि घटनाक्रम किस तरफ जाएगा। 

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

यूरोप में फैला फ्रांस से निकला ‘पीली कुर्ती’ आंदोलन


तकरीबन एक महीने से फ्रांसीसी जनता बगावत पर उतारू है। पिछले 17 नवम्बर से राजधानी पेरिस सहित देश के शहरों में हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। इसमें 1500 से ऊपर गिरफ्तारियाँ हुईं हैं। कम से कम तीन मौतों की खबरें भी है। आंदोलनकारी जगह-जगह यातायात रोक रहे हैं। उन्होंने पुलिस पर हमले किए हैं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाया है। इस आंदोलन की शुरुआत इको टैक्स यानी पर्यावरण संरक्षण के लिए एक नए टैक्स के विरोध में हुई थी, पर इसने प्रशासन और अर्थव्यवस्था के प्रति एक व्यापक असहमति का रूप ले लिया है। केवल टैक्स इसका कारण होता तो यह आंदोलन टैक्स वापसी के बाद खत्म हो जाना चाहिए था। पर ऐसा हुआ नहीं है।

चीन-अमेरिका कारोबारी-जंग में फौरी विराम



ब्यूनस आयर्स में हुआ जी-20 शिखर सम्मेलन भविष्य के लिए कुछ महत्वपूर्ण छोड़कर गया है। सम्मेलन के हाशिए पर हुई वार्ताओं के कारण अमेरिका और चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध में फिलहाल कुछ समय के लिए विराम लगा है। दूसरी तरह अमेरिका वैश्वीकरण के रास्ते को छोड़कर अपने राष्ट्रीय हितों की ओर उन्मुख हुआ है। उसकी दिलचस्पी पर्यावरण संरक्षण, शरणार्थियों तथा रोजगार की तलाश में प्रवास पर निकलने वालों को अपने यहाँ जगह देने में नहीं है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का इस्तेमाल वह अपने लिए करने पर जोर दे रहा है।

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

खाड़ी-देशों से सुधर रहे हैं इस्रायल के रिश्ते


इस्रायल के चैनल-2 ने खबर दी है कि प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने बहरीन के साथ राजनयिक रिश्ते स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की है। उन्होंने यह बात कनाडा के राष्ट्रपति इदरीस डैबी की यरूशलम यात्रा के दौरान कही। एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा, हमने पाया है कि कुछ अरब देशों का इस्रायल के बारे में विचार बदल रहा है। नेतन्याहू अचानक 25 अक्तूबर को ओमान के दौरे पर गए और वहाँ उन्होंने राजधानी मस्कट के पास के शहर सीब के शाही महल में सुल्तान सैयद कबूस से मुलाकात की। पिछले 22 साल में किसी इस्रायली शासनाध्यक्ष का अरब देश में यह पहला दौरा था।

इस्रायल के केवल दो अरब देशों के साथ राजनयिक सम्बंध हैं। ये हैं मिस्र और जॉर्डन। अब नेतन्याहू ने इशारा किया है कि उनके रिश्ते खाड़ी के देशों के साथ सुधर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मैं कुछ और अरब देशों में जाऊँगा। जल्द ही बहरीन जाने वाला हूँ। इतना ही नहीं बहरीन ने इस्रायल के वित्तमंत्री एली कोहेन को अप्रैल में होने वाले एक सम्मेलन में शामिल होने का निमंत्रण दिया है। तीन दिन का यह सम्मेलन विश्व बैंक ने आयोजित किया है। बहरीन के साथ इस्रायल के राजनयिक सम्बंध स्थापित करने पर बात भी चल रही है।

अक्तूबर में नेतन्याहू के ओमान दौरे के कुछ दिन बाद नवम्बर में इस्रायली परिवहन और इंटेलिजेंस मंत्री यिसरायल काट्ज ने ओमान में एक परिवहन सम्मेलन में शिरकत की। पिछले कुछ दिनों में इस्रायल की तरफ से और कुछ अरब देशों की तरफ से लगातार ऐसे संकेत मिल रहे हैं, जिनसे लगता है कि इनके रिश्ते सुधरने जा रहे हैं। ओमान के साथ इस्रायल के राजनयिक रिश्ते नहीं हैं, पर नेतन्याहू का वहाँ जाना बता रहा है कि इस यात्रा के पीछे पहले से अंदरूनी तौर पर विचार-विमर्श किया गया है। ओमान इस इलाके में प्रभावशाली देश है। लगता है कि पृष्ठभूमि में कुछ चल रहा है।

रविवार, 2 दिसंबर 2018

पेट्रोलियम की गिरती कीमतें और वैश्विक-संवाद


यूरोप में ब्रेक्जिट-विमर्श अपने अंतिम दौर में है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध अब दूसरे दौर में प्रवेश करना चाहता है। भारत जैसे विकासशील देश इंतजार में कि उन्हें किस तरह से इसका लाभ मिले। इधर पेट्रोलियम की कीमतों में गिरावट का रुख अब भी जारी है। हर हफ्ते पाँच से सात फीसदी कीमतें कम हो रहीं है। पिछले साल अक्तूबर से अबतक कीमतें करीब एक तिहाई गिर चुकी हैं। पिछले हफ्ते अमेरिकी बेंचमार्क वेस्ट टेक्सास मध्यावधि वादा बाजार में रेट 50.42 डॉलर हो गए थे। तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक उत्पादन घटा रहा है और अमेरिका बढ़ा रहा है। ओपेक की कोशिश है कि कीमतें इतनी न गिर जाएं कि संभालना मुश्किल हो जाए।

सऊदी अरब पर अमेरिकी दबाव है कि कीमतों को बढ़ने न दिया जाए। दूसरी तरफ वह रूस के साथ मिलकर कीमतों को गिरने से रोकना चाहता है। अंदेशा इस बात का है कि पेट्रोलियम की माँग घटेगी। यानी कि वैश्विक अर्थव्यवस्था फिर से मंदी तरफ बढ़ेगी। सऊदी अरब एक तरफ खाशोज्जी हत्याकांड के कारण विवादों से घिरा है, वहीं तेल की कीमतों और अपनी अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना के प्रयासों में उसे एक के बाद एक झटके लग रहे हैं।

शनिवार, 1 दिसंबर 2018

ब्रेक्जिट का अंतिम दौर, इधर कुआँ, उधर खाई


यूरोपीय संघ के सदस्यों ने रविवार 25 नवम्बर को ब्रेक्जिट समझौते को मंजूरी दे दी। करीब 20 महीने के विचार-विमर्श के बाद हुए इस समझौते को ईयू के 27 नेताओं ने इस संक्षिप्त बैठक में स्वीकार कर लिया। बेशक यह समझौता ईयू ने स्वीकार कर लिया है, पर ब्रिटिश संसद से इसकी पुष्टि अब सबसे बड़ा काम है। युनाइटेड किंगडम की संसद इस प्रस्ताव पर 5 दिसम्बर से विचार-विमर्श शुरू करेगी और 11 को वोट से फैसला करेगी। लेबर, लिबरल-डेमोक्रेटिक, स्कॉटिश नेशनल पार्टी (एसएनपी), डेमोक्रेटिक यूनियनिस्ट पार्टी (डीयूपी) और टेरेसा में की अपनी कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों ने पहले से घोषणा कर दी है कि हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे।

कंजर्वेटिव पार्टी के ऐसे सांसदों की संख्या ही 70-80 बताई जा रहा है। इनमें से काफी ऐसे हैं, जो टेरेसा में को प्रधानमंत्री पद से हटाना चाहते हैं। ऐसा है तो यह प्रस्ताव संसद से पास नहीं हो पाएगा। उधर ईयू के नेताओं ने आगाह कर दिया है कि यदि इसे संसद स्वीकार नहीं करेगी, तो हम किसी नए समझौते की पेशकश नहीं करेंगे। टेरेसा में ने भी कहा है कि कोई दूसरा समझौता नहीं। हालत यह है ईयू छोड़ने का समर्थन करने वाले भी नाराज हैं और जो ईयू में रहना चाहते हैं, उन्हें लग रहा है कि आखिरकार यह प्रस्ताव संसद से खारिज होगा, जो ब्रेक्जिट भी अंततः खारिज हो जाएगा। कुछ को लगता है कि बगैर समझौते के हटना अच्छा है, क्योंकि न तो पैसा देना पड़ेगा और न कोई जिम्मेदारी होगी। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि उस स्थिति में जो अराजकता पैदा होगी, उसके आर्थिक निहितार्थ हैं।

शनिवार, 24 नवंबर 2018

खाशोज्जी-हत्या में क्राउन प्रिंस पर संदेह का घेरा


पश्चिम एशिया में इसरायल के बाद सऊदी अरब ऐसा देश है, जिसे अमेरिका का सबसे करीबी माना जाता है। पर इधर पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या की जुड़ती कड़ियों के कारण कई तरह के असमंजस उसके सामने खड़े हो रहे हैं। पिछले हफ्ते सीआईए की एक रिपोर्ट में कहा गया कि इस हत्या की जानकारी सऊदी क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान को थी। ट्रम्प प्रशासन ने इस रिपोर्ट की अनदेखी कर दी है, पर मामला दब नहीं रहा है। सीनेट की विदेश सम्बंध समिति के अध्यक्ष बॉब कॉर्कर ने अपने ट्वीट में कहा है, इस हत्या के आरोप में क्राउन प्रिंस किसी को मौत की सज़ा दें, उसके पहले ट्रम्प प्रशासन को अपनी राय व्यक्त करनी चाहिए।

इतना ही नहीं सीनेटर एड मार्की ने ट्रम्प प्रशासन से माँग की है कि सऊदी अरब के साथ सिविल न्यूक्लियर सहयोग की वार्ता बंद करें और उसे नाभिकीय रिएक्टर बेचने की योजना पर रोक लगाएं। व्यक्तिगत रूप से ट्रम्प के सऊदी राजघराने से अच्छे रिश्ते हैं। अमेरिका ने सऊदी नीतियों की आलोचना नहीं की है, पर अमेरिका की संसद यमन में सऊदी सैनिक हस्तक्षेप और अब खाशोज्जी की हत्या के सवाल पर परोक्ष रूप से अपनी चिंता व्यक्त कर रही है।

टेरेसा मे के सामने ब्रेक्जिट की चुनौती


फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पिछले हफ्ते पहले विश्व युद्ध की 100वीं वर्षगाँठ पर हुए एक समारोह में कहा, राष्ट्रवाद दुनिया के लिए खतरा है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति एक-दूसरे के विरोधी हैं। उन्होंने कहा, यह कहना कि मेरे हित सबसे आगे हैं दूसरे भाड़ में जाएं, इंसानियत की मूल अवधारणा के खिलाफ है। यूरोप और पश्चिम एशिया से पहले विश्व युद्ध के बादल पूरी तरह कभी छँटे नहीं हैं। हमें मिलकर काम करना चाहिए। जलवायु परिवर्तन, गरीबी और असमानता के खिलाफ मिलकर लड़ाई लड़ें। मैक्रों सेंटरिस्ट और वृहत यूरोपवादी नेता हैं और वे जिस समारोह में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे, उसमें 60 देशों के राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे। इनमें डोनाल्ड ट्रम्प और व्लादिमीर पुतिन भी थे।

  राष्ट्रवाद, देशभक्ति और वैश्वीकरण के वात्याचक्र में दुनिया फिर घिरती जा रही है। मैक्रों के विचारों पर एक अलग बहस चल निकली है, पर पिछले हफ्ते ब्रिटेन से व्यवहारिक राजनीति से जुड़ी कुछ खबरें बाहर निकली हैं, जो इस बहस का हिस्सा बनेंगी या बन रहीं हैं। यह बहस है यूरोप के एकीकरण बनाम ब्रेक्जिट की। यूरोप का एकीकरण ब्रिटिश राजनीति में बहस का विषय है, खासतौर से सत्तारूढ़ गठबंधन की सबसे बड़ी कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर इस विषय को लेकर गहरे अंतर्विरोध है। दो साल पहले ब्रिटेन की जनता ने जनमत संग्रह में यूरोपीय यूनियन से अलग होने के पक्ष में फैसला किया था। इसे ब्रेक्जिट कहते हैं। अब जैसे-जैसे ब्रेक्जिट के दिन करीब आ रहे हैं, जटिलताएं बढ़ रही हैं। यूरोपीय यूनियन से अलग होने की शर्तों को लेकर विवाद है। 

पाकिस्तान का आर्थिक संकट और कट्टरपंथी आँधियाँ


पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब तौहीन-ए-रिसालत यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।

गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।'' 

रविवार, 18 नवंबर 2018

संरा के द्वार पर चीन के वीगरों का मामला


चीन के शिनजियांग प्रांत में रहने वाले वीगर मुसलमानों के (अंग्रेजी वर्तनी के कारण हिन्दी में काफी लोग इन्हें उइगुर भी लिख रहे हैं) दमन की खबरें आने के बाद संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने सख्त रुख अख्तियार किया है। पिछली 6 नवम्बर को जिनीवा में परिषद की एक समीक्षा बैठक में यह मामला उठाया गया। इस समीक्षा बैठक में अमेरिका, जापान और कनाडा समेत कुछ देशों के प्रतिनिधियों ने चीनी नीतियों की कड़ी आलोचना की। इसमें कहा गया कि चीन ने अपने विशेष कैम्पों में वीगर नागरिकों को कैद कर रखा है, उन्हें फौरन रिहा किया जाए।

हालांकि चीन ने इन आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया, पर मीडिया में जो खबरें मिल रहीं हैं उनसे लगता है कि इन आरोपों का जवाब देना उसके मुश्किल होता जाएगा। मानवाधिकार परिषद के भीतर यह धारणा पुष्ट होती जा रही है कि चीन का व्यवहार चिंताजनक है। मंगलवार 6 नवम्बर की बैठक के लिए चीन अपनी तरफ से तैयारी करके आया था। इसके लिए उसने अपने उप विदेशमंत्री को खासतौर से भेजा था। उनके साथ शिनजियांग प्रांत की राजधानी उरुमची के मेयर यासिम सादिक भी आए थे, जो वीगर मूल के हैं। सादिक ने कहा कि वीगर प्रशिक्षु इन कैम्पों में अपनी इच्छा से आए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि चीन  सरकार के प्रयासों के कारण पिछले 21 महीनों में इस इलाके में एक भी आतंकी हमला नहीं हुआ है। विश्व समुदाय मानता है कि आबादी के चुनींदा चीन-परस्त लोगों की बात पूरे समुदाय की राय नहीं हो सकती।

श्रीलंका में उलझती दाँव-पेच की राजनीति


श्रीलंका में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद वहाँ की संसद ने महिंदा राजपक्षे के प्रति अपना अविश्वास जरूर व्यक्त कर दिया है, पर गतिरोध समाप्त हुआ नहीं लगता। सवाल है कि क्या राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना इस वोट को मान लेंगे? लगता नहीं। यानी कि केवल इतने से रानिल विक्रमासिंघे को सत्ता वापस मिलने वाली नहीं है। इसकी दो वजहें हैं। एक, देश की सांविधानिक व्यवस्थाएं अस्पष्ट हैं। सन 2015 के सांविधानिक सुधारों के बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि संसद और राष्ट्रपति के रिश्ते किस प्रकार तय होंगे। दूसरे, सुप्रीम कोर्ट ने संसद भंग करने के राष्ट्रपति के आदेश को स्थगित जरूर कर दिया, पर यह स्पष्ट नहीं किया कि आगे क्या होगा।

संसद अध्यक्ष ने सत्र बुलाया और राजपक्षे के प्रति अविश्वास प्रस्ताव पास कर दिया। पर इससे प्रधानमंत्री की पुनर्स्थापना नहीं हो पाई। यानी कि अदालत को फिर से हस्तक्षेप करना होगा। पर यह भी साफ है कि महिंदा राजपक्षे के पास भी बहुमत नहीं है। संसद को भंग किया ही इसीलिए गया था। बुधवार को चली छोटी सी कार्यवाही में राजपक्षे ने उपस्थित होकर इस सत्र की वैधानिकता को स्वीकार किया, पर उसका बहिष्कार करके यह संकेत भी दिया कि वे आसानी से हार नहीं मानेंगे। राष्ट्रपति सिरीसेना और राजपक्षे दोनों को समझ में आता है कि संसद में वे अल्पमत में हैं, वरना वे संसद-सत्र के पाँच दिन पहले ही उसे भंग नहीं करते।

अमेरिकी वोटर की ट्रम्प को चेतावनी


अमेरिकी संसद के मध्यावधि चुनाव परिणाम अंदेशों या अनुमानों के अनुरूप ही आए हैं। ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने इन परिणामों के आधार पर अमेरिकी प्रशासन को विभाजित देश की विभाजित सरकार बताया है। यों दोनों पक्षों ने इन परिणामों को अपनी विजय बताया है। आंशिक रूप से दोनों को कुछ न कुछ मिला है। पर 2016 के परिणामों से तुलना करें, तो कहा जा सकता है कि ट्रम्प सरकार के खिलाफ यह वोटर की नाराज टिप्पणी है। प्रतिनिधि सदन में वोटर की आवाज अब साफ सुनाई पड़ेगी। ये परिणाम घटिया गवर्नेंस और वोटर की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति वितृष्णा की तरफ इशारा कर रहे हैं। ऐसे ही परिणामों की भविष्यवाणी थी, जो सही साबित हुई।

अमेरिकी संसद के दो सदन हैं। हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में 435 सदस्य होते हैं। और दूसरा है, सीनेट। इसमें 100 सदस्य होते हैं। सीनेट की चक्रीय व्यवस्था के तहत इस बार 35 (33+2) सीटों पर चुनाव हुए। अभी तक दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत था, पर अब प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेट्स का बहुमत हो गया है। पिछले आठ साल से रिपब्लिकन पार्टी का इस सदन पर कब्जा था। अमेरिकी व्यवस्था में मतगणना अपेक्षाकृत सुस्त होती है। अंतिम रूप से परिणाम इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उपलब्ध नहीं थे, पर प्रतिनिधि सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी की सदस्य संख्या 240 के करीब पहुँच गई है। वहीं रिपब्लिकन पार्टी का सीनेट में बहुमत पहले से ज्यादा हो गया है। उनके पास अब 100 में से 54 सीटें होने की सम्भावना है।

शनिवार, 17 नवंबर 2018

हिन्द महासागर की बदलती राजनीति


दो पड़ोसी देशों के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने भारत का ध्यान खींचा है। एक है मालदीव और दूसरा श्रीलंका। शनिवार को मालदीव में नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए। दक्षिण एशिया की राजनयिक पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण परिघटना है। सन 2011 के बाद से किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष की पहली मालदीव यात्रा है। दक्षेस देशों में मालदीव अकेला है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी सायास नहीं गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस देश ने भारत के खिलाफ जो माहौल बना रखा था उसके कारण रिश्ते लगातार बिगड़ते ही जा रहे थे। तोहमत भारत पर थी कि वह एक नन्हे से देश को संभाल नहीं पा रहा है। यह सब चीन और पाकिस्तान की शह पर था।

दूसरा देश श्रीलंका है, जो इन दिनों राजनीतिक अराजकता के घेरे में है। यह अराजकता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। वहाँ राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को बर्खास्त करके महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया है। संसद ने हालांकि राजपक्षे को नामंजूर कर दिया है, पर वे अपने पद पर जमे हैं। राजपक्षे चीन-परस्त माने जाते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे, जो भारत के खिलाफ जाते थे।

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

अमेरिकी मध्यावधि चुनाव के मिश्रित नतीजे

अमरीकी मध्यावधि चुनाव LIVE: ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी सीनेट पर जीत की ओर तो डेमोक्रेटिक हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में. सीनेट में रिपब्लिकन पार्टी को बहुमत मिलने का मतलब है कि ट्रंप को कार्यकारी और न्यायिक नियुक्तियों में कोई चुनौती नहीं दे पाएगा. अब ये देखना होगा कि रिपब्लिकन पार्टी की जीत कितनी बड़ी होती है. हालांकि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में कहानी कुछ अलग है. यहां डेमोक्रेटिक पार्टी की जीत से ट्रंप की नीतियों को झटका लगेगा. डेमोक्रोटिक पार्टी इस जीत के ज़रिए ट्रंप को चुनौती देने और मज़बूती से सामने आएगी. डेमोक्रेटिक पार्टी को कई डिस्ट्रिक्ट में जीत मिली है. इनमें वर्जीनिया, इलिनोइस और फ्लोरिडा भी शामिल हैं. 

Republicans’ loss of control of the U.S. House of Representatives will leave the party with a more conservative congressional caucus that is even more bound to President Donald Trump and more united around his provocative rhetoric and hardline agenda.
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Democrats capture U.S. House majority in rebuke to Trump

WASHINGTON (Reuters) - Democrats rode a wave of dissatisfaction with President Donald Trump to win control of the U.S. House of Representatives on Tuesday, giving them the opportunity to block Trump’s agenda and open his administration to intense scrutiny. Democrats capture U.S. House majority in rebuke to Trump
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रविवार, 4 नवंबर 2018

भारत के गाल पर ट्रम्प की ‘डिप्लोमैटिक चपत’


मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अगले साल गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि के रूप में भारत आने के निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया है। एक अंग्रेजी अख़बार ने खबर दी है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल को इस आशय की चिट्ठी अमेरिकी प्रशासन ने लिखी है। खबरें यह भी हैं कि ट्रम्प ने रूस के साथ हुए भारत के रक्षा सौदे की वजह से इस निमंत्रण को अस्वीकार किया है।

इस खबर के आम होने से भारतीय डिप्लोमेसी को दो तरह से ठेस लगी है। पहली बात तो यह कि ऐसे निमंत्रण या तो रज़ामंदी के औपचारिक होने चाहिए या फिर उनका प्रचार तब करना चाहिए, जब स्वीकृति की संभावना हो। इस साल अप्रैल में ट्रम्प को औपचारिक निमंत्रण दिया गया था, तब अमेरिकी प्रशासन ने कहा था कि टू प्लस टू वार्ता के बाद तय करेंगे। टू प्लस टू वार्ता टलती रही और अंत में सितंबर में हुई। पर तबतक एस-400 और ईरान से तेल की खरीद का मामला उठ चुका था।

अमेरिकी संसद ने ईरान, उत्तर कोरिया और रूस पर पाबंदियाँ लगाने के लिए सन 2017 में ‘काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट (काट्सा)’ पास किया था। इसका उद्देश्य यूरोप में रूस के बढ़ते प्रभाव को रोकना भी है। इसकी धारा 231 के तहत अमेरिकी राष्ट्रपति के पास किसी भी देश पर 12 किस्म की पाबंदियाँ लगाने का अधिकार है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति के पास इन पाबंदियों से छूट देने के अधिकार हैं, पर ट्रम्प सरकार के तौर-तरीके समझ में आते नहीं हैं। निमंत्रण को अस्वीकार करके उसने भारत के नाम कड़ा संदेश भेजा है।

निमंत्रण के अस्वीकार से पैदा हुई नकारात्मकता ही काफी है। दूसरे, भारत अब जिस राष्ट्र-प्रमुख को भी निमंत्रण देगा, वह यही मानकर चलेगा कि ट्रम्प के इनकार की वजह से हम सेकंड चॉइस हैं। अमेरिका-प्रेम को लेकर भारत में काफी प्रचार होता रहा है। बेशक हमें अमेरिका की आला दर्जे की तकनीक चाहिए, पर हमारे भी राष्ट्रीय हित हैं।

ट्वेंटी-ट्वेंटी का सेमीफाइनल उर्फ ट्रम्प की पहली परीक्षा

इस हफ्ते 6 नवंबर को अमेरिकी संसद के मध्यावधि चुनाव हो रहे हैं। ट्रम्प की जीत के बाद से अमेरिका में जिस तरह का ध्रुवीकरण हुआ है, उसे देखते हुए ये चुनाव खासे महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी संसद के दो सदन हैं। हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव्स में 435 सदस्य होते हैं। और दूसरा है, सीनेट। इसमें 100 सदस्य होते हैं। सीनेट की चक्रीय व्यवस्था के तहत इस बार 35 (33+2) सीटों पर चुनाव होंगे। दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत है।

मध्यावधि चुनावों के बाद भी रिपब्लिकन-बहुमत बरकरार रहा, तो ट्रम्प की तूती बोलेगी। ऐसा नहीं हुआ और दोनों या किसी भी एक सदन में डेमोक्रेटिक पार्टी का बहुमत हो गया, तो ट्रम्प के उलटी गिनती शुरू हो जाएगी। नीति और राजनीति के नजरिए से ओबामाकेयर जैसे सामाजिक कल्याण के कल्याण के कार्यक्रमों को खत्म करना संभव नहीं होगा। आप्रवासियों के खिलाफ ट्रम्प की कड़ी नीतियों पर अंकुश लगेगा। हालांकि वोट उम्मीदवारों की योग्यता और स्थानीय मुद्दों पर भी पड़ते हैं, पर ट्रम्प की कार्यशैली पर भी यह जनमत होगा।

शनिवार, 3 नवंबर 2018

श्रीलंका में तख्ता-पलट और भारतीय दुविधा


श्रीलंका में शुक्रवार 26 अक्तूबर को अचानक हुए राजनीतिक घटनाक्रम से भारत में विस्मय जरूर है, पर ऐसा होने का अंदेशा पहले से था। पिछले कुछ महीनों से संकेत मिल रहे थे कि वहाँ के शिखर नेतृत्व में विचार-साम्य नहीं है। सम्भवतः दोनों नेताओं ने भारतीय नेतृत्व से इस विषय पर चर्चा भी की होगी। बहरहाल अचानक वहाँ के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करके चौंकाया जरूर है। अमेरिका और युरोपियन यूनियन ने प्रधानमंत्री को इस तरीके से बर्खास्त किए जाने पर फौरन चिंता तत्काल व्यक्त की और कहा कि जो भी हो, संविधान के दायरे में होना चाहिए। वहीं भारत ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में कुछ देर की। शुक्रवार की घटना पर रविवार को भारतीय प्रतिक्रिया सामने आई।

रानिल विक्रमासिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने पर भारत ने आशा व्यक्त की है कि श्रीलंका में संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर होगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, 'श्रीलंका में हाल ही में बदल रहे राजनीतिक हलचल पर भारत पूरे ध्यान से नजर रख रहा है। एक लोकतंत्र और पड़ोसी मित्र देश होने के नाते हम आशा करते हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान होगा।' भारत को ऐसे मामलों में काफी सोचना पड़ता है। खासतौर से हिंद महासागर के पड़ोसी देशों के संदर्भ में। पहले से ही आरोप हैं कि उसके अपने पड़ोसी देशों से रिश्ते अच्छे नहीं हैं।
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