बुधवार, 24 अप्रैल 2019

बेल्ट एंड रोड: चीनी महत्वाकांक्षा के अंतर्विरोधों की कहानी

चीन का ‘बेल्ट एंड रोड’ कार्यक्रम एकबार फिर से खबरों में आने वाला है। इस महीने बीजिंग में ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ की दूसरी बैठक होने वाली है। फोरम की पिछली बैठक मई 2017 में हुई थी। पिछले दो साल में इस कार्यक्रम को लेकर दुनियाभर में अच्छी खासी बहस हुई है। अमेरिका समेत अनेक देशों को इसे लेकर शिकायतें हैं, पर भारत न केवल खुलकर इस कार्यक्रम का विरोध किया है, बल्कि पिछली बैठक का बहिष्कार भी किया। चीन उसके पहले और उसके बाद भी भारत को इस कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण देता रहा है। हालांकि भारत ने आगामी शिखर सम्मेलन के बारे में कुछ कहा नहीं है, पर सम्भावना यही है कि इसबार भी उसमें शामिल होगा नहीं।

भारत को इस कार्यक्रम को लेकर दो तरह की आपत्तियाँ हैं। पहली और बुनियादी आपत्ति इस बात पर है कि इस कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा, चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपैक) जम्मू-कश्मीर के पाक अधिकृत इलाके से होकर गुजरता है। हम जिस इलाके को अपना मानते हैं, उससे होकर गुजरने वाली किसी परियोजना का हिस्सा कैसे बन सकते हैं? दूसरा बड़ी आपत्ति इस कार्यक्रम की फंडिंग की लेकर है। भारत मानता है कि यह कार्यक्रम अनेक छोटे देशों को चीन का जबर्दस्त कर्जदार बना देगा। भारत की इस राय से दुनिया के तमाम विशेषज्ञ सहमत हैं। यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी इस बात को लेकर चिंता प्रकट की जा रही है। हालांकि भारत वैश्विक-कनेक्टिविटी को बढ़ाने का समर्थक है, पर सम्प्रभुता का सवाल इस परियोजना में शामिल होने से पूरी तरह रोकता है।

भारत-जापान परियोजना

चीनी परियोजनाओं की देखादेखी दुनिया में कनेक्टिविटी बढ़ाने और इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने की परियोजनाएं बढ़ती जा रहीं हैं। भारत ने जापान के साथ मिलकर एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर (एएजीसी) पर काम शुरू भी किया है। इसके अलावा भारत उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर (एनएसटीसी) का भागीदार है। 7,200 किलोमीटर लम्बा यह कॉरिडोर भारत से ईरान, आर्मेनिया, रूस तथा मध्य एशिया के कई देशों से होकर गुजरेगा और यूरोप से जोड़ेगा। ईरान के चाबहार को अफगानिस्तान से जोड़ने की परियोजना पर भारत इन दिनों काम कर ही रहा है। इसे उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर से जोड़ने की बातें भी हो रहीं हैं। इसे अश्गाबात समझौते का नाम दिया गया है। समझौते के तहत भारत को फारस की खाड़ी से मध्य एशिया पहुँचने और माल के परिवहन करने की सुविधा हासिल होगी। इसके अलावा हाल में भारत ने हाल में रूस के साथ मिलकर संसाधनों के लिहाज से धनी आर्कटिक क्षेत्र के विकास की परियोजना में शामिल होने का फैसला भी किया है। इस कार्यक्रम को रूसी बन बेल्ट, वन रोड का नाम दिया जा रहा है।

पिछले साल वुहान शिखर सम्मेलन के बाद से भारत और चीन के रिश्तों में काफी गरमाहट आई है। ‘बेल्ट एंड रोड फोरम’ की तैयारी का कम देख रहे यांग जीची चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के महत्वपूर्ण सहायक हैं। वे हाल में भारत आए भी थे और उन्होंने भारत से इस कार्यक्रम में शामिल होने का अनुरोध किया था। पर सीपैक को देखते हुए भारत सरकार इस कार्यक्रम में शामिल होने का फैसला नहीं कर सकती। इस महीने होने वाले सम्मेलन में करीब 40 देशों के नेताओं के शामिल होने की आशा है, इनमें पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी होंगे। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, फिलीपींस के राष्ट्रपति रॉड्रीगो ड्यूटर्टे और कम्बोडिया के प्रधानमंत्री हुन सेन भी शामिल होंगे। हाल में चीन ने इटली को भी इस परियोजना के साथ जोड़ा है और उम्मीद है कि इटली के प्रधानमंत्री ज्यूसेप कोंते भी इस सम्मेलन में शामिल हो सकते हैं। यदि वे शामिल हुए, तो इससे चीन के साथ कारोबारी रिश्ते बनाने को लेकर यूरोपीय यूनियन के भीतर पैदा हो रहे मतभेदों को और बल मिलेगा।

लैटिन अमेरिका में चीन

अमेरिका ने यह पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि हम इसमें शामिल नहीं होंगे, पर चीन अपना यह कार्यक्रम लेकर लैटिन अमेरिकी देशों के बीच चक जा पहुँचा है। चीन ने सड़कों, रेल लाइनों, बंदरगाहों, बिजलीघरों और औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ाने वाले ऐसे ही कार्यक्रमों को संचालित करने का कार्यक्रम बनाया है। जाहिर है कि उसका अमेरिकी हितों से टकराव भी होगा। पिछले डेढ़ सौ साल से अमेरिका इसे अपना ‘इलाका’ मानता रहा है। चीन अब इस इलाके के पनामा जैसे देशों से सम्पर्क स्थापित कर रहा है। पनामा भले ही छोटा सा देश है, पर अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को जोड़ने वाली नहर के कारण उसका कारोबारी और सामरिक महत्व बहुत ज्यादा है।

यह कार्यक्रम एक तरफ आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने और इससे जुड़े देशों में समृद्धि के द्वार खोलने का भरोसा जताता है, साथ ही इसके कारण वैश्विक शक्ति संतुलन के बदलने और चीनी प्रभाव क्षेत्र का दायरा बढ़ने का खतरा भी पैदा हुआ है। इसमें दो राय नहीं कि यह चीन की बढ़ती ताकत का प्रतीक भी है। पर अमेरिकी विशेषज्ञ इसकी तुलना ‘ट्रॉय के घोड़े’ से कर रहे हैं, जिसके भीतर बैठे खतरे को छोटे देश पढ़ नहीं पा रहे हैं।

बढ़ती चीनी पूँजी का सवाल

सन 2013 में चीनी राष्ट्रपति ने इस कार्यक्रम की घोषणा कजाकिस्तान की यात्रा के दौरान की थी। उन्होंने इस योजना का काका पेश करते हुए कहा था कि हम सड़क मार्ग और समुद्री मार्ग दोनों बनाना चाहते हैं। इसके तहत रेलवे, बंदरगाहों, बिजलीघरों, पाइपलाइनों, राजमार्गों तथा इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े तमाम काम करने का विचार है। इस नेटवर्क के बनने से चीनी करेंसी रनमिनबी का प्रसार बढ़ेगा। यों भी इस क्षेत्र में पूँजी निवेश बहुत कम है। एशिया विकास बैंक का अनुमान है कि यहाँ करीब 800 अरब डॉलर के सालाना पूँजी निवेश की कमी है। चीन इस कमी को पूरा करना चाहता है।

चीन की दिलचस्पी केवल पूँजी निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर में ही नहीं है। वह इस इलाके में 50 विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाना चाहता है। वस्तुतः यह कार्यक्रम इन देशों के आर्थिक विकास से ज्यादा चीनी अर्थव्यवस्था के विस्तार पर केन्द्रित है। इस विस्तार के कारण समुद्री व्यापार भी बढ़ेगा, जिसके लिए बंदरगाहों की जरूरत होगी। यह काम चीन से कर्जा लेकर इससे जुड़े देश करेंगे। साठ से ज्यादा देशों ने इसमें शामिल होने की इच्छा व्यक्त की है। इसमें पाकिस्तान का सीपैक सबसे बड़ा कार्यक्रम है, जिसपर 68 अरब डॉलर के निवेश का अनुमान है। सन 2013 से अबतक चीन इन परियोजनाओं पर 200 अरब डॉलर का निवेश कर चुका है।

अमेरिका पर पलटवार

मॉर्गन स्टैनली का अनुमान है कि सन 2027 तक चीन इस कार्यक्रम पर 1.2 से 1.3 ट्रिलियन डॉलर का निवेश करेगा। इससे चीन के लिए पूँजी निवेश के रास्ते खुलेंगे, निर्यात के लिए बाजार मिलेगा, चीनी आमदनी बढ़ेगी और उपभोग बढ़ेगा। उसकी अंतरराष्ट्रीय हैसियत बढ़ेगी। अमेरिका की दिलचस्पी एशिया में बढ़ रही है, इसलिए इसे चीनी पलट वार भी कह सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीनी महत्वाकांक्षा है। वह मध्य आय-वर्ग के देश के दायरे से निकल कर उच्च आय-वर्ग का देश बनना चाहता है।

चीन की इस योजना का शुरुआती चरण समस्याओं से घिरा हुआ भी है। श्रीलंका, मलेशिया और पाकिस्तान में भी कुछ परियोजनाएं इसलिए रुकी हैं, क्योंकि इन देशों को लग रहा है कि कर्जा चुकाना मुश्किल हो जाएगा। श्रीलंका तो हम्बनटोटा बंदरगाह बनाने के बाद खुद को ठगा महसूस कर रहा है। उस बंदरगाह पर इतना यातायात ही नहीं है कि लगी हुई पूँजी वापस आ सके। अभी तक विकासशील देशों को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से जो धन मिलता था, वह या तो अनुदान होता था या बहुत आसान शर्तों पर कर्ज। चीनी कर्ज उतना आसान नहीं है। फिर इस कर्ज के साथ चीनी कम्पनियों को काम देने की शर्तें भी होती हैं। चीनी व्यवस्था में पारदर्शिता नहीं है। दूसरे इससे चीनी अर्थव्यवस्था का ही फायदा होता है।

श्रीलंका और मलेशिया का अनुभव

श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने चीन से अपने कर्जे पर फिर से बात करने की पेशकश की, तो चीन ने कहा कि अपने बंदरगाह को हमें पट्टे पर दे दो। अनुमान है कि सन 2018 में श्रीलंका पर 13 अरब डॉलर का कर्ता था, जबकि सरकार का सालाना राजस्व ही कुल 14 अरब डॉलर का है। मलेशिया में पिछले साल महातिर बिन मोहम्मद फिर से प्रधानमंत्री बनकर आए, तो उन्होंने चीनी कर्ज की कीमत को लेकर चर्चा शुरू की। उन्होंने करीब 22 अरब डॉलर की परियोजनाओं को रद्द कर दिया। मालदीव में सत्ता परिवर्तन के बाद वहाँ की सरकार भी अब यही कर रही है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की कहानी भी अब दुनिया के सामने आ रही है। सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट ने चेतावनी दी है कि चीन के इस कार्यक्रम में शामिल आठ देशों की अर्थ-व्यवस्थाएं संकट की और बढ़ रहीं हैं। इनमें पाँच देशों की सीमाएं चीन से मिलती हैं। इनके अलावा जिबूती और मालदीव जैसे देश भी संकट में हैं।

भारत शुरू से ही इस कार्यक्रम के विरोध में है। हम इसे ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ यानी भारत को घेरने के कार्यक्रम का हिस्सा मानते हैं। दूसरे यह पाकिस्तान के कब्जे में हमारी जमीन के ऊपर से गुजरता है। तीसरे हम इसे ‘उपनिवेशवाद’ का नया रूप मानते हैं। भारत ने इसके विकल्प में जिन कार्यक्रमों को हाथ में लिया है, उनके पीछे ब्याज कमाने की इच्छा नहीं है। भारत ने अफगानिस्तान में करीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है। यह सब सहायता के रूप में है। भारत ने चीन के साथ मिलकर काम भी का है। भारत एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) के संस्थापक सदस्यों में शामिल है। भारत की तरह जापान की नीति भी संतुलन बनाकर चलने की है। दोनों मिलकर म्यांमार से पूर्वी अफ्रीका को जोड़ने वाले एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर पर काम कर रहे हैं। हालांकि रूस भी चीन की इस पहल के साथ है, पर लगता है कि समय के साथ उसकी रणनीति में बदलाव आ रहा है। रूस की दिलचस्पी यूरोप के साथ समन्वय करने की है, पर अमेरिका के साथ उसके रिश्ते खराब होते जा रहे हैं।





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क्या है न्यू सिल्क रोड?

सन 2013 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने पूर्वी शिया को यूरोप से जोड़ने वाली परियोजना की घोषणा की थी, जिसे बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) कहा गया था। इस कार्यक्रम के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से करीब 150 देशों ने जुड़ने की इच्छा व्यक्त की है। सांकेतिक रूप से इसे ‘न्यू सिल्क रोड’ भी कहा गया। ‘सिल्क रोड’ या ‘रेशम मार्ग’ प्राचीन और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था जिसके माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे। इन मार्गों में सबसे ज्यादा प्रचलित हिस्सा उत्तरी रेशम मार्ग था जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप तक जाता था। इसकी एक शाखा भारत की ओर आती थी। तकरीबन साढ़े छह हजार किलोमीटर लम्बे इस रास्ते का नाम चीन के रेशम के नाम पर पड़ा जिसका व्यापार इस मार्ग की मुख्य विशेषता थी। इसके मार्फत मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में चीन के हान राजवंश काल में पहुँचना शुरू हुआ।

सिल्क रोड के माध्यम से व्यापार के अलावा, ज्ञान, धर्म, संस्कृति, भाषाओं, विचारधाराओं, भिक्षुओं, तीर्थयात्रियों, सैनिकों, यायावरों और बीमारियों का प्रसार भी हुआ। एक तरह से यह तत्कालीन वैश्वीकरण का रास्ता था। प्रकारांतर से ईसाई क्रुसेडों और मंगोलों के हमलों के कारण मध्य एशिया का व्यापार प्रभावित हुआ। आधुनिक दौर में यह इलाका रूस पर निर्भर था। पर रूसी आर्थिक संकट के कारण इस इलाके के व्यापार पर और ज्यादा खराब प्रभाव पड़ा। ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) प्राचीन सिल्क रोड का 21वीं सदी का संस्करण है। ओबीओआर का मक़सद है व्यापार के लिए समुद्री और ज़मीनी, दोनों तरह के रास्तों का विकास करना ताकि चीन को बाहरी दुनिया से जोड़ा जा सके।

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