परम्पराओं को तोड़कर शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान का स्वागत करने के लिए
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हवाई अड्डे जाना हाल में सुर्खियों में था।
पर सऊदी अरब का ज़िक्र पिछले दिनों कुछ और बातों के लिए भी हुआ। सऊदी अरब का
आधुनिकीकरण, उसकी विदेश-नीति और अर्थ-व्यवस्था में बदलाव अब दुनिया की दिलचस्पी के
नए विषय हैं। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या का प्रसंग सामने आने के कारण कुछ समय
के लिए उसके आधुनिकीकरण की खबरें पीछे चली गईं थीं। हाल में एशिया के तीन
महत्वपूर्ण देशों में एमबीएस यानी क्राउन प्रिंस के दौरे के बाद सऊदी अरब फिर से खबरों
में है।
माना जा रहा है कि सऊदी अरब की दिलचस्पी एशिया के पुनर्जागरण में है और भविष्य के पूँजी निवेश और कारोबार के लिए
वह अपने नए साझीदारों को खोज रहा है। साथ ही वह अपने नए चेहरे को दुनिया के सामने
पेश करना चाहता है। नवीनतम समाचार यह है कि सऊदी अरब ने पहली बार एक महिला को
अमेरिका में राजदूत नियुक्त किया है। पत्रकार जमाल खाशोज्जी की हत्या के बाद
अमेरिका के साथ उसके रिश्तों में खलिश आ गई है, शायद उसे दुरुस्त करने और सऊदी अरब
को नई रोशनी में दुनिया के सामने पेश करने के इरादे से यह फैसला किया गया है। दिसम्बर
में अमेरिकी सीनेट ने खाशोज्जी की हत्या के सिलसिले में क्राउन प्रिंस की भर्त्सना
की थी।
महिला राजदूत
अमेरिका में सऊदी
अरब की नई राजदूत रीमा बिंत बंदार खुद शाही खानदान से हैं और वे एमबीएस के छोटे
भाई शाहज़ादे खालिद बिन सलमान बिन अब्दुलअज़ीज़ का स्थान लेंगी। वे बंदार बिन
सुल्तान अल सऊद की बेटी हैं, जो लम्बे अरसे तक अमेरिका में राजदूत रहे हैं। राजदूत
बदलने की एक बड़ी वजह यह भी है कि शाहज़ादे खालिद पर आरोप है कि उन्होंने ही
खाशोज्जी से कहा था कि वे इस्तानबूल स्थित कांसुलेट में जाकर अपने कागज़ात ले सकते
हैं। बहरहाल अब वे देश के उप-रक्षामंत्री का पद संभालने जा रहे हैं। रक्षामंत्री
का पद खुद एमबीएस के पास है। रीमा की पढ़ाई अमेरिका में हुई है। उनके पिता 20 साल
से ज्यादा समय तक अमेरिका में राजदूत रहे, इसलिए उन्हें हर तरह की पृष्ठभूमि का
पता है। उनके मार्फत सऊदी अरब अपने देश की स्त्रियों की नई छवि भी पेश करना चाहता
है।
खाशोज्जी प्रकरण ऐसे मौके पर खड़ा हुआ जब 33
वर्षीय क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) के नेतृत्व में सऊदी अरब
आधुनिकीकरण और उदारीकरण के दरवाज़े खोल रहा है। इस प्रकरण का पहला असर ‘फ्यूचर इन्वेस्टमेंट इनीशिएटिव’ नाम से वहां हुए
निवेश सम्मेलन में देखने को मिला, जहाँ दुनिया की तमाम नामी कम्पनियों ने जाने से
इनकार कर दिया। पश्चिम एशिया में सऊदी अरब एक तरह से अमेरिका के उपनिवेश की तरह
काम करता है। पेट्रोलियम के कारण सऊदी पूँजी और सऊदी बाजार अमेरिका को आकर्षित
करते हैं। इधर खाशोज्जी प्रकरण के अलावा पेट्रोलियम की गिरती कीमतों को रोकने के
प्रयासों के कारण भी अमेरिका के साथ सऊदी अरब के साथ रिश्तों में कुछ खटास आई है।
वहाबी विचारधारा
सऊदी अरब के रूपांतरण
का एक पहलू है वहाबी विचारधारा, जिसका प्रवर्तक और प्रसारक सऊदी अरब है। क्या अब
उस भूमिका में बदलाव आएगा? अठारहवीं सदी में मुहम्मद इब्न अब्द-उल-वहाब नाम के एक धार्मिक
नेता ने सऊदी अरब में इस्लामिक आंदोलन शुरू किया, जिसका उद्देश्य ‘सच्चे इस्लाम’ की वापसी का था। यह
वहाबी आंदोलन भी सुन्नी विचार से प्रेरित था, पर इसने अपेक्षाकृत नरम इस्लाम को
अस्वीकार करके कट्टरता को स्थापित किया। शियों, तुर्क मूल के नरम सुन्नियों और
सूफियों पर हमले बोले गए। पाकिस्तान और भारत में भी अब इस विचार का प्रसार हो रहा
है। आरोप है कि इस विचार के प्रसार के लिए पैसा सऊदी अरब से आता है।
बहरहाल अब स्थितियाँ
बदल रहीं हैं। शाहज़ादे के नेतृत्व में
सऊदी राज-व्यवस्था ने पुरातनपंथी मौलवियों पर दबाव बनाया है, स्त्रियों की दशा में
सुधार किया है। अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने का प्रयास किया है, ताकि
खनिज तेल पर अवलंबन खत्म हो। इसी रोशनी में सऊदी शहज़ादे की नवीनतम विदेश-यात्राओं
को देखा जाना चाहिए। सरकार की विजन-2030 योजना एक आर्थिक-राजनीतिक कार्यक्रम का हिस्सा है। पिछले
साल प्रिंस बिन सलमान
अमेरिका की दो हफ्ते की यात्रा करके आए थे और उनके पास सुधार की लम्बी योजनाएं
हैं। क्राउन प्रिंस
मार्च 2015 में जब सत्ता में आए तब
से तेजी से सुधारक की छवि बनाने को बेताब हैं और उनके नेतृत्व में कई चीज़ें बदली भी हैं।
पूर्व की ओर निगाहें
प्रिंस बिन सलमान की इन यात्राओं के संदर्भ
में चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स में उनके विश्लेषक ली वेईजियान ने लिखा है कि
रियाद लम्बे अरसे तक पश्चिम पर आश्रित था। अब उसे लगता है कि केवल उसके भरोसे नहीं
रहा जा सकता। देश के पूर्ववर्ती बादशाह अब्दुल्ला बिन अब्दुलअज़ीज़ अल सऊद ने ‘लुक ईस्ट नीति’ का ख़ाका तैयार
किया था, जिसपर चलने का प्रयास नया प्रशासन कर रहा है। इस नीति का अर्थ यह नहीं है
कि सऊदी अरब पश्चिम के साथ अपने रिश्तों को तोड़ देगा, खासतौर से अमेरिका से।
बल्कि वह एक संतुलन बनाने का प्रयास करेगा। अब यह देश अपने निवेश को केवल एक जगह
केन्द्रित करने के बजाय कई जगह लगाएगा।
यह धारणा आज की वैश्विक राजनीति की दिशा से मेल खाती है। अभी तक छोटे
और मझोले देश अपनी रक्षा के लिए अमेरिका पर आश्रित थे। पर अब दुनिया बहु-ध्रुवीय
होती जा रही है। अख़बार ने यह भी लिखा है कि चीन और भारत महत्वपूर्ण तेल-आयातक देश
हैं। तेल-निर्यातक देश होने के नाते सऊदी अरब की दिलचस्पी स्थिर बाजार हासिल करने
में है। तेल आज भी उसकी आय का सबसे बड़ा ज़रिया है और चीन तथा भारत दो बड़े खरीदार
हैं। उसकी दिलचस्पी अपनी सुरक्षा और आर्थिक स्वावलंबन में है। रियाद की दिलचस्पी
केवल ईंधन तक सीमित नहीं है। दुनिया की अर्थ-व्यवस्था मंदी के दौर में है, इसलिए
तेल की माँग घट रही है। विजन-2030 का लक्ष्य आर्थिक-विकास के दूसरे क्षेत्रों को
तलाशना भी है।
पाकिस्तान पर वरद-हस्त
चीन की दिलचस्पी सीपैक में है, जो पाकिस्तान में उसके बड़े निवेश का
केन्द्र है। इसमें सऊदी अरब ने भी दिलचस्पी दिखाई है। अपनी पाकिस्तान यात्रा के
दौरान मोहम्मद बिन सलमान ने ग्वादर की रिफाइनरी में निवेश करने का एक समझौता किया
है। चीन के साथ कई प्रकार के समझौते अभी पाइपलाइन में हैं, पर उसके साथ चीन-ईरान
रिश्तों के पेच भी हैं। ये पेच भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में और
भारत-ईरान-पाकिस्तान-सऊदी अरब रिश्तों में भी हैं। ईरान और अमेरिका के रिश्तों में
कड़वाहट के कारण भी कई प्रकार की पेचीदगियाँ हैं।
यह यात्रा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि सऊदी अरब इन रिश्तों को नए
अर्थ देने को उत्सुक है। खासतौर से उसने इसरायल के साथ अपने रिश्ते सुधारे हैं, जो
कुछ साल पहले तक सम्भव नहीं था। चीन में उन्होंने शिनजियांग क्षेत्र के वीगर
बागियों के खिलाफ सरकारी दमन नीति का परोक्ष रूप से समर्थन करके यह भी स्पष्ट कर
दिया कि इस्लाम की वैश्विक रणनीति का वह लम्बे समय तक भागीदार नहीं रहेगा। सऊदी
अरब की यह नीति तुर्की की रणनीति के ठीक विपरीत है। गत 10 फरवरी को तुर्की के
राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दोवान ने वीगरों के कैम्पों को शर्मनाक बताया था। इसकी वजह
शायद यह भी है कि तुर्की की सरकार पर जनमत का दबाव रहता है, पर सऊदी अरब में उस
किस्म का दबाव नहीं है।
भारत-पाक संदर्भ
मोहम्मद बिन सलमान का पाकिस्तान में जबर्दस्त स्वागत हुआ। उनके विमान
ने जैसे ही पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश किया, पाकिस्तानी वायुसेना के जेट विमानों
ने उनकी अगवानी की, देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान नवाज़ा गया और मीडिया ने
जबर्दस्त कवरेज दी। प्रधानमंत्री इमरान खान ने उनके साथ एक समझौते पर दस्तखत किए,
जिसके अनुसार सऊदी अरब ने पाकिस्तान में 20 अरब डॉलर के निवेश का आश्वासन दिया है।
इसके पहले सऊदी अरब ने पाकिस्तान को 6 अरब डॉलर का एक पैकेज पहले से दिया है, जो
उसके विदेशी मुद्रा संकट और कर्जों के निपटारे में मददगार होगा। एमबीएस की यात्रा
के दिन पाकिस्तान में सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया था। सऊदी अरब ने इस सदाशयता
का सम्मान करते हुए अपने देश में कैद 2000 पाकिस्तानी कैदियों की रिहाई का फैसला
किया।
क्राउन प्रिंस की इस यात्रा को सऊदी अरब की नई राजनयिक पहल मान सकते
हैं। यह एशिया के उदय की कहानी से जुड़ा एक अध्याय है। ध्यान देने वाली बात है कि
खाशोज्जी हत्याकांड पर पश्चिमी देशों में काफी शोर मचा था, पर चीन, पाकिस्तान और
भारत ने इसपर कोई कड़वी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। सऊदी अरब को भारत और
पाकिस्तान के रिश्तों की कड़वाहट का भी अंदाज है। सामान्यतः वह भारत की
संवेदनशीलता की काफी हद तक अनदेखी भी करता रहा है, पर हाल के वर्षों में भारत के
साथ उसके रिश्तों में नाटकीय बदलाव आया है।
पिछले दिनों सऊदी अरब की यात्रा के दौरान नरेन्द्र मोदी को देश के
सर्वोच्च नागरिक सम्मान से अलंकृत किया गया। पिछले साल भारत से इसरायल की सीधी
विमान सेवा सऊदी अरब के सहयोग से ही शुरू हो पाई। दोनों देशों की सेनाओं के बीच
समन्वय और सहयोग की खबरें भी हैं। यह दर्शाने के लिए कि हम भारत के साथ अपने
रिश्तों को पाकिस्तान के नजरिए से नहीं देखते, सऊदी शहज़ादे की यह यात्रा
पाकिस्तान की यात्रा के फौरन बाद शुरू नहीं हुई, बल्कि वे पहले वापस अपने देश गए
और फिर वहाँ से भारत आए।
पुलवामा प्रसंग
संयोग से यह यात्रा पुलवामा हमले के फौरन बाद हुई थी, इसलिए माहौल में
तुर्शी थी, फिर भी भारत में उनका अच्छा स्वागत हुआ। सऊदी अरब के लिए दोनों देशों
के बीच संतुलन साधना काफी मुश्किल काम है, पर उसे निभाने की बखूबी कोशिश की गई है।
सऊदी विदेश मंत्री अदल अल-जुबैर ने अपने इंटरव्यू में कहा कि हम दक्षिण पूर्व
एशिया में तनाव खत्म करने में मददगार बनेंगे और हम किसी भी किस्म के आतंकवाद के
विरोधी हैं।
सऊदी अरब के साथ भारत के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं। इस वक्त करीब
तीस लाख भारतीय सऊदी अरब में काम कर रहे हैं। सऊदी अरब ने पाकिस्तान में 20 अरब
डॉलर के निवेश का समझौता किया है, पर भारत में 100 अरब डॉलर के निवेश का आश्वासन
दिया है। भारत की अर्थ-व्यवस्था में तेजी को देखते हुए सऊदी अरब को पश्चिमी देशों
के मुकाबले भारत जैसे देश बेहतर नजर आते हैं।
सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों इस्लामिक देश हैं और सऊदी अरब पाकिस्तान
के करीब रहा है। वह इस्लामिक देशों का नेता भी रहा है, पर अब इस्लामिक देशों में
भी उसका नेतृत्व कमजोर हो रहा है। सीरिया, कतर और यमन में उसका सामना इस्लामिक
देशों के साथ ही है। अरब राष्ट्रवाद का तीखापन भी अब कम होता जा रहा है। सऊदी अरब
के अलावा यूएई भी अपने दृष्टिकोण में बदलाव ला रहे हैं। भारत के साथ दोनों के
रिश्तों में काफी तेजी से परिवर्तन आया है।
ओआईसी का नज़रिया
सबसे बड़ा बदलाव इस्लामिक देशों के सहयोग संगठन (ओआईसी) में है। ओआईसी
ने भारत के मामलों में हस्तक्षेप करना अब काफी कम कर दिया है। ओआईसी के विदेश मंत्रियों के उद्घाटन सत्र में इस
साल भारत को आमंत्रित किया गया है। विदेश मंत्रियों की परिषद का यह 46वां सत्र 1
और 2 मार्च को अबू धाबी में होगा। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस सत्र में
‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ के तौर पर शरीक होंगी। भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस न्योते को भारत
में 18.50 करोड़ मुसलमानों की मौजूदगी और इस्लामी जगत में भारत के योगदान को
मान्यता देने वाला एक स्वागत योग्य कदम बताया है। भारत की दिलचस्पी हमेशा ओआईसी की गतिविधियों
में शामिल होने की रही है। दुनिया में दूसरे या तीसरे नम्बर की मुस्लिम आबादी भारत
में रहती है, पर पाकिस्तान के दबाव में भारत को पर्यवेक्षक तक बनाने की कोशिशें
विफल हुई हैं।
सन 1969 में जब ओआईसी
की पहली बैठक रबात में हो रही थी, सऊदी अरब के तत्कालीन साह फैज़ल के प्रयास से
भारत को भी निमंत्रण दिया गया था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के
नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधिमंडल इस बैठक में शामिल होने के लिए रवाना हो भी गया
था, पर रोम पहुँचने पर इस प्रतिनिधिमंडल से कहा गया कि वे वापस लौट जाएं, क्योंकि
पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान ने धमकी दी है कि यदि भारत इसमें शामिल हुआ, तो
हम इस सम्मेलन का बहिष्कार करेंगे। मोरक्को स्थित तत्कालीन राजदूत की एक टीम रबात
पहुँच भी गई थी, उसे बाहर कर दिया गया।
इसके बाद कई बार
कोशिशें हुईं, पर सफलता नहीं मिली। सन 2002 में कतर ने पेशकश की कि भारत को विदेश
मंत्रियों के सम्मेलन में ऑब्ज़र्वर के रूप में बुलाया जाए, पर पाकिस्तान ने इसे
ब्लॉक कर दिया। पाकिस्तान की पहल पर इस
संगठन में कई बार कश्मीर के मसले को उठाया गया और भारतीय नीतियों की आलोचना की
जाती रही है। हाल में तुर्की, सऊदी अरब, यूएई और बांग्लादेश की पहल पर भारत को फिर
से निमंत्रण दिया गया है। वक्त बताएगा कि यह बदलाव की निशानी है या हवा-हवाई।
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