यों तो समूचा सोशल मीडिया दुधारी तलवार साबित
हुआ है, पर इन दिनों भारत में ट्विटर की चर्चा ज्यादा है। बुनियादी वजह राजनीतिक
है। लोकसभा चुनाव करीब हैं और हर रंगत की राजनीति अपने चरम पर है। पिछले लोकसभा
चुनाव के ठीक पहले सोशल मीडिया की भूमिका पहली बार बड़े स्तर पर उजागर हुई थी। सन
2013 के अप्रैल महीने में पहले राहुल गांधी के सीआईआई के भाषण और उसके बाद
नरेन्द्र मोदी की फिक्की-वार्ता के बाद अचानक अनेक ऐसे हैंडल सामने आए, जिनका
रुझान राजनीतिक था। इनमें से ज्यादातर मजाकिया हैंडल थे। उन्हीं दिनों एक रपट थी कि देश के
160 लोकसभा क्षेत्रों में फेसबुक के इतनी बड़ी संख्या में यूज़र हैं और वे
परिणामों पर असर डाल सकते हैं।
हालांकि हमारे पास कोई
रिपोर्ट या रिसर्च उपलब्ध नहीं है, पर कह सकते हैं कि अब ऐसे चुनाव क्षेत्रों की
संख्या 500 से ज्यादा है। हैंडलों की संख्या बढ़ती जा रही है और इनमें बड़ी संख्या
में बॉट यानी फर्जी हैं। इन बॉट की राजनीतिक भूमिका सबसे ज्यादा है। पर सबसे बड़ी
भूमिका इन कम्पनियों के संचालकों की है। यह परिदृश्य नियामक संस्थाओं के लिए कई
तरह की चुनौतियाँ लेकर आया है।
सूचना प्रौद्योगिकी
विभाग से सम्बद्ध संसदीय समिति ने ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी से कहा है कि वे 25 फरवरी को उसके सामने हाजिर हों। उन्हें समिति के सामने
11 फरवरी को आना था, पर वे आए नहीं। उनकी जगह ट्विटर के स्थानीय प्रतिनिधि आए थे,
जिन्हें संसदीय समिति ने बुलाया नहीं। संसदीय समिति की ओर से 1 फरवरी को भेजे गए
पत्र में साफ तौर पर कंपनी के प्रमुख को पेश होने को कहा गया था। साथ ही कहा गया
था कि वे अपने साथ अन्य प्रतिनिधियों को ला सकते हैं। इसके बाद संसदीय समिति को
सात फरवरी को ट्विटर के कानूनी, नीतिगत, विश्वास और सुरक्षा विभाग की वैश्विक प्रमुख
विजया गड्डे की ओर से एक पत्र मिला, जिसमें कहा गया था कि ट्विटर इंडिया के लिए
काम करने वाला कोई भी व्यक्ति भारत में सामग्री और खाते से जुड़े हमारे नियमों के
संबंध में कोई प्रभावी फैसला नहीं करता है।
नियमन की समस्या
यह घटनाक्रम ऐसे समय
में सामने आया है जब देश में लोगों की डेटा सुरक्षा और सोशल मीडिया मंचों के जरिए
चुनावों में हस्तक्षेप को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं। सवाल कई हैं। क्या ट्विटर देश
की सांविधानिक संस्थाओं की अवहेलना करना चाहता है? ट्विटर विदेशी संस्था है। क्या वह हमारे
नियमों को मानने पर बाध्य है? बाध्य नहीं है, तो वह हमारे बाजार में किस
अधिकार से विचरण कर सकता है वगैरह। इंटरनेट के विस्तार के साथ यह सवाल भी सामने आ
रहा है कि सोशल मीडिया के नियमन की क्या वैश्विक व्यवस्था-सम्भव है? क्या यह
वैश्विक-व्यवस्था देशों और समाजों के सापेक्ष होगी? अलग-अलग समाजों की
सांस्कृतिक-सामाजिक समझ अलग-अलग है। यह सब कैसे होगा?
सोशल मीडिया से जुड़ी
समस्याएं कई हैं। इनमें एक है हेट स्पीच। हेट स्पीच यानी किसी सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, भाषा वगैरह के
प्रति दुर्भावना। खासतौर से राजनीतिक रुझान से उपजी दुर्भावना। इसके साथ जुड़े हैं
फेक न्यूज के सवाल। ये सवाल केवल भारत में ही नहीं उठे हैं। सभी देशों में ये
अलग-अलग संदर्भों में उठे हैं या उठाए जा रहे हैं। भारत में संसदीय समिति के सामने
मामला इन शिकायतों के आधार पर गया है कि ट्विटर इंडिया कुछ खास हैंडलों के प्रति
कड़ा रुख अख्तियार करता है और कुछ के प्रति नरमी। जब अदालतों के फैसलों तक पर विवाद हैं, तब ट्विटर
हैंडलों की टिप्पणियों और उनपर की गई कार्रवाइयों को लेकर सवाल खड़े होना
अस्वाभाविक नहीं है।
ट्विटर पर ही निशाना क्यों?
अभी यह स्पष्ट नहीं है
कि जैक डोरसी को बुलाकर संसदीय समिति क्या करना चाहती है। बेशक इसका एक तकनीकी
पहलू भी है। संसदीय समितियाँ विशेषज्ञों से बात करती रहती हैं। तब केवल ट्विटर को
ही क्यों? शायद इसके
पीछे राजनीतिक कारण हैं। ट्विटर फर्जी अकाउंटों की सफाई करता रहता है। उसे लेकर
शिकायतें भी सामने आई हैं। देश के कुछ दक्षिणपंथी संगठनों का आरोप है कि ट्विटर
उनके प्रति कुछ ज्यादा सख्त है। यूथ फॉर सोशल मीडिया डेमोक्रेसी नामक संगठन समिति
के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर से इस विषय में शिकायत की है। ट्विटर के दफ्तर के बाहर प्रदर्शन
भी हुए हैं। पिछले साल वॉट्सएप, ट्विटर और फेसबुक पर प्रकाशित तस्वीरों और
टिप्पणियों के कारण मॉब-लिंचिंग के कई मामले हुए थे। इसलिए सोशल मीडिया
प्लेटफॉर्मों से चर्चा करने में गलत कुछ नहीं है, पर ऐसी स्थिति में सभी
प्लेटफॉर्मों को बुलाना चाहिए।
बहरहाल साफ लगता है कि
जैक डोरसी से देश का सत्ता-प्रतिष्ठान खुश नहीं है। पिछले नवम्बर में जैक डोरसी
भारत यात्रा पर आए थे और उनकी कुछ तस्वीरें ट्विटर पर प्रकाशित हुईं थीं, जिन्हें
लेकर कुछ दक्षिणपंथी संगठन नाराज थे। एक तस्वीर में एक पोस्टर नजर आता है, जिसमें
कहा गया था ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को ध्वस्त करो।’ शायद इस तस्वीर ने
सबसे ज्यादा परेशान किया। जैक डोरसी को इस तस्वीर के कारण सबसे ज्यादा धिक्कारा
गया। हालांकि जैक डोरसी संसदीय समिति के बुलावे पर आए नहीं, पर वे भारतीय
सत्ता-प्रतिष्ठान की अवहेलना भी नहीं कर सकते। अनुमान है कि ट्विटर के कुल
उपयोगकर्ताओं का छठवाँ हिस्सा भारत से आता है। यह संख्या आने वाले वर्षों में और
बढ़ेगी। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। इसलिए जैक डोरसी के प्रकरण ने खासतौर से ध्यान
खींचा है।
धनुष से छूटा तीर
आधिकारिक रूप से ट्विटर ने हेट स्पीच,
गाली-गलौज और दुर्भावना से भरे संदेशों के खिलाफ कड़े नियम बना रखे हैं। पर जब
एकबार तीर निकल जाए तो क्या उसे रोका जा सकता है? ज्यादा से ज्यादा उस हैंडल पर पाबंदी लगाई जा सकती है। इस वजह से ट्विटर का
इस्तेमाल करने वाले ही नहीं, ट्विटर-संचालक भी परेशान हैं। सन 2015 में ट्विटर के
तत्कालीन सीईओ डिक कोस्टोलो का एक आंतरिक मीमो लीक हुआ था, जिसमें उन्होंने
स्वीकार किया था कि गाली-गलौज और ट्रॉलिंग के मामले में हम असहाय साबित हो रहे हैं
और यह आज से नहीं लम्बे अरसे से चल रहा है। इसके चार साल बाद आज हालात और ज्यादा
खराब हैं।
पिछले साल मार्च में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने
एक रिपोर्ट जारी की थी ‘टॉक्सिक ट्विटर’। करीब 16 महीने के शोध के बाद तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया था
कि महिलाओं, खासतौर से अश्वेत और जातीय तथा धार्मिक अल्पसंख्यक महिलाओं के प्रति
ट्विटर अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहा है। इसके बाद दिसम्बर 2018 में
एमनेस्टी ने एक और रिपोर्ट जारी की जिसमें कहा गया कि श्वेत महिलाओं की तुलना में
अश्वेत महिलाएं इसकी ज्यादा शिकार होती हैं। ट्विटर ने पिछले दिनों अपनी एक ट्रांसपेरेंसी
रिपोर्ट में कहा कि उसे नियमों का उल्लंघन करने वाले 62 लाख यूनीक अकाउंटों की शिकायतें
मिलीं। यह डेटा जनवरी से जून 2018 के बीच का है। इनमें से 28 लाख गाली-गलौज, 27
लाख हेट स्पीच और करीब 13 लाख मामले हिंसक धमकी के हैं।
कार्रवाई क्यों नहीं?
ट्विटर ने करीब छह लाख के खिलाफ कार्रवाई की है, उसकी अपनी परिभाषा से
देखा जा सकता है कि कितने कम अकाउंटों के खिलाफ कार्रवाई हो पाई है। ट्विटर ने यह
नहीं बताया कि शिकायतों और कार्रवाइयों में इतना बड़ा अंतर क्यों है। मोटे तौर पर मानें, तो उस दौरान करीब 27
करोड़ ट्विटर हैंडल चल रहे थे। लगता यह है कि
कार्रवाई होने लगे, तो बड़ी संख्या में हैंडल यों ही गायब हो जाएंगे। यह डेटा जहरीली
भाषा वगैरह से जुड़ा है। अभी इस प्लेटफॉर्म के राजनीतिक और कारोबारी इस्तेमाल के
बारे में बहुत से भेद सामने आए भी नहीं हैं।
यहाँ बात केवल ट्विटर की हो रही है। सोशल मीडिया के दूसरे
प्लेटफॉर्मों से जुड़े प्रसंगों को भी शामिल कर लेंगे, तो शायद बात करना मुश्किल
हो जाएगा। इस बात को तमाम पहलू हैं। जिस दौर में इन प्लेटफॉर्मों का उदय हुआ है,
उसके शुरूआती वर्षों में अनुमान नहीं था कि इनका विस्तार इतने बड़े स्तर पर हो
जाएगा। ज्यादातर शुरुआत सामान्य सम्पर्कों को स्थापित करने के लिए थी। स्कूल या
कॉलेज के छात्रों का शुरूआती संवाद आज दुनिया के सिर पर चढ़कर बोल रहा है।
इसकी एक बड़ी वजह इसके कारोबारी और राजनीतिक निहितार्थ हैं। पर इन
वजहों से ही इस बात की जरूरत पैदा हो रही है कि इसका नियमन कैसे हो? इसे छुट्टा छोड़ने से काम चलेगा नहीं और नियंत्रित करने के खतरे दूसरी तरह
के हैं। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे प्रभावशाली माध्यम बनकर उभरा है, तो
अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों के सम्पर्क का जरिया भी बना है। इस्लामिक स्टेट ने तो
इसे अपना भरती दफ्तर बना ही लिया था। बहरहाल एक अच्छे इरादे से शुरू हुआ काम
खौफनाक बनता जा रहा है।
ट्विटर-क्रांति
ट्विटर का राजनीतिक इस्तेमाल किस तरह हो सकता
है, शायद इसके संस्थापकों ने सोचा नहीं था। संयोग से सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म
दुनिया में उस वक्त विकसित हुए हैं, जब लोकतांत्रिक आंदोलनों की बाढ़ आ रही है। हाल
में फ्रांस के ‘पीली-कुर्ती आंदोलन’ के दौरान सोशल मीडिया की भूमिका भी उजागर हुई।
अप्रैल 2009 में मोल्दोवा के संसदीय चुनाव के दौरान एक जनांदोलन खड़ा
हो गया था, जिसमें ट्विटर के मार्फत लोग जुड़े थे। तब पहली बार ‘ट्विटर-क्रांति’ शब्द का जन्म हुआ
था। उसी साल ऑस्ट्रिया के छात्र आंदोलन में और गज़ा पट्टी में इसरायली सेना के साथ
फलस्तीनियों के संघर्षों में, 2010 में वेनेजुएला की बोलीवारियन-क्रांति में, 2011
के अमेरिका के ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन में, 2011 में मिस्र और दूसरे अरब देशों
में बहारे-अरब नाम के आंदोलन में और उसके बाद से हरेक आंदोलन में इस मीडिया की
भूमिका रही है।
जनवरी 2016 में एक अमेरिकी महिला ने ट्विटर पर इस बात के लिए मुकदमा
दायर किया था कि इस्लामिक स्टेट को उसने अपना प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने दिया,
जिसने 2015 में अम्मान में हमला किया था। उस हमले में उस महिला के पति की मृत्यु
हो गई थी। उसकी राजनीतिक भूमिका को लेकर भी सवाल हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में उसकी भूमिका को लेकर सवाल हैं।
कम्पनी ने एक जाँच में स्वीकार किया कि 2016 की डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी ईमेल लीक प्रकरण में उसके सिस्टम ने लाखों
ट्वीट की पहचान करके उन्हें दबा दिया था। पिछले दिनों चला
विश्व-व्यापी ‘मी-टू’ आंदोलन भी ट्विटर की देन है। अलबत्ता रोचक यह भी है कि अभिनेत्री
रोज़ मैकगोवान का अकाउंट 12 घंटे के लिए इसलिए स्थगित हुआ, क्योंकि उसने हार्वे
वांइंसटाइन के बारे में बार-बार ट्वीट किया। मैकगोवान के एक ट्वीट में किसी का
निजी फोन नम्बर दिया गया था।
सूचना के दरवाजों का खुलना
ट्विटर को ईरान, चीन और उत्तरी कोरिया में पूरी तरह बैन किया गया है।
इसके अलावा उसे मिस्र, इराक, तुर्की और वेनेजुएला में कई बार ब्लॉक किया गया है।
सन 2016 में उसने इसरायल सरकार के सुझाव पर कुछ ट्वीट हटाए। उसके पास ट्वीट हटाने
की ज्यादातर शिकायतें तुर्की, रूस, फ्रांस और जर्मनी से आई हैं।
व्यावहारिक सत्य यह है कि सूचना के द्वार खुलने के बाद उसके
निहितार्थों का पता फौरन नहीं लगता। दूसरा सत्य यह है कि जब सूचनाएं सामने आएंगी,
तो हर तरह की सामने आएंगी। केवल एक तरह की या एक के पक्ष ही सूचनाएं दुनिया में
नहीं हैं। अलबत्ता इस सूचना-प्रवाह को किसी एक के पक्ष में मोड़ने वाली तकनीकों और
साधनों का आविष्कार भी होगा और हो रहा है। पर इस बात के भी दोनों पहलू हैं।
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