बहार-ए-अरब राउंड-2
सूडान और अल्जीरिया में एक साथ हुए सत्ता-परिवर्तनों ने सन 2011 के बहार-ए-अरब यानी अरब स्प्रिंग की याद ताजा कर दी। संयोग से दोनों जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने जबर्दस्त भूमिका निभाई है। पहले अल्जीरिया के अब्देल अजीज बूतेफ़्लीका की छुट्टी हुई और उसके बाद सूडान के उमर अल-बशीर का पतन हुआ। इन दोनों देशों के अलावा हाल में ट्यूनीशिया और मोरक्को में भी आंदोलनों ने फिर से सिर उठाया है। सन 2001 की बहार-ए-अरब के पीछे ट्यूनीशिया के एक नौजवान के आत्मदाह की भूमिका थी, जिसकी खबर सोशल मीडिया पर कानो-कान पूरे मगरिब और मशरिक में फैल गई थी। इसबार ट्रिगर पॉइंट कोई एक घटना नहीं है, पर लम्बे अरसे से सत्ता हथियाए लोगों के प्रति जनता की बेचैनी का इज़हार यह जरूर है। इस अभियान को भी सोशल-मीडिया की क्रांति कहा जा रहा है।
इस अभियान ने सूडान के तख्त पर 32 साल से जमे बैठे ताकतवर तानाशाह उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया है। इन्हीं अल-बशीर के नेतृत्व में सूडानी सेना ने इक्कीसवीं सदी के शुरू में दारफुर में भयावह नरमेध को अंजाम दिया था। उनकी उसी सेना को अब अपने मुखिया को गिरफ्तार करने पर मजबूर होना पड़ा। इलाके की युवा आबादी इन आंदोलनों की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सन 2011 के आंदोलनों ने इस इलाके के चार बड़े तानाशाहों का तख्ता पलटा था। तब पूरे इलाके में जनता के बीच अपनी व्यवस्था को लेकर बहस शुरू हुई थी, जिसकी तार्किक परिणति अब नजर आ रही है, गोकि यह भी एक चरण है। जनता की नाराजगी
अरब-स्प्रिंग का दूसरा दौर अब शुरू हो रहा है। शायद कुछ और तानाशाहों के प्रति लोगों का गुस्सा फूटेगा। सन 2011 की बगावत के वक्त पश्चिमी देशों की दिलचस्पी इस इलाके में बहुत ज्यादा थी, पर अब उनकी दिलचस्पी कम है। वे अपनी परेशानियों में घिरे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप यों भी अपने देश को दुनियादारी से अलग रखना चाहते हैं। पर यह भी सही है कि इस इलाके में अब भी अमेरिका का समर्थन तानाशाही शासकों के साथ है। इस इलाके में मिस्र, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को अमेरिका का समर्थन मिलता है। तीनों देशों की कोशिश है कि 2011 की तरह बगावतों की लहर फिर से शुरू न हो जाए।
मिस्र में पिछली बार लम्बे समय से चली आ रही निरंकुश व्यवस्था टूटी थी, पर उसकी जगह पर एक दूसरा ताकतवर निजाम वहाँ स्थापित हो गया है। इस सत्ता-प्रतिष्ठान को सऊदी समर्थन प्राप्त है। सन 2011 की बगावत ने हुस्नी मुबारक के 30 साल लम्बे कार्यकाल का अंत किया था, पर अब राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी तानाशाही के रास्ते पर हैं। उनका दूसरा कार्यकाल 2022 में खत्म होने वाला है, पर वे अपने कार्यकाल को 2034 तक बढ़ाने के लिए जनमत संग्रह कराने जा रहे हैं। इस जनमत संग्रह में सेना को ताकतवर बनाने और न्यायपालिका को भी अपने अधीन करने की योजना है। उनके कार्यकाल में भी विरोधियों का बुरी तरह दमन किया गया है। हजारों लोग जेलों में बंद हैं।
सूडान और अल्जीरिया
हाल में सूडान और अल्जीरिया में जनता ने सत्ता-पलट किए हैं। इन जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूडान में राष्ट्रपति उमर अल-बशीर को और अल्जीरिया में राष्ट्रपति अब्देल अज़ीज़ बूतेफ़्लीका को हटना पड़ा। दोनों लम्बे अरसे से अपने-अपने देशों की सत्ता पर काबिज़ थे। आंदोलनकारियों ने खासतौर से फेसबुक का जमकर इस्तेमाल किया। सरकारी प्रचार तंत्र के जवाब में आंदोलनकारियों का फेसबुक लाइव कहीं ज्यादा प्रभावशाली साबित हुआ। जहाँ सूडान का सरकारी मीडिया घोषित कर रहा था कि आंदोलन बिखर गया है और खारतूम के सैनिक मुख्यालय के बाहर से आंदोलनकारी हट चुके हैं, वहीं सोशल मीडिया पर आंदोलनकारियों के लाइव-स्ट्रीम पर वीडियो साबित कर रहे थे कि आंदोलन जारी है। अपदस्थ राष्ट्रपति बशीर ने अपने एक प्रसारण में कहा कि इन फेसबुकियों के कहने से तो मैं हटूँगा नहीं। पर उन्हें अंततः हटना पड़ा।
सूडान सरकार ने सोशल मीडिया पर पाबंदियाँ लगाने की कोशिशें भी कीं, पर सफलता नहीं मिली। अमेरिकी अख़बार वॉलस्ट्रीट जरनल ने अपनी एक रिपोर्ट में लंदन के एक डिजिटल-अधिकार समूह नेटब्लॉक्स का हवाला दिया है। नेटब्लॉक्स ने हजारों सूडानी छात्र-वॉलंटियरों का मदद से ऐसे डेटा पॉइंट बनाए, जिनसे पता लगता था कि सरकार ने किस-किस इलाके में फेसबुक, वॉट्सएप और ट्विटर की सेवाएं बंद कीं। नेटब्लॉक्स के अनुसार इंटरनेट को पूरी तरह बंद करने के स्थान पर लोकप्रिय सेवाओं को आंशिक रूप से बंद किया गया। ऐसे मौके पर आंदोलनकारियों ने भी रास्ते निकाले। उन्होंने वर्च्युअल प्राइवेट नेटवर्क (वीपीएन) तैयार किए, जिनसे लगता था कि उन्होंने सूडान के बाहर किसी स्थान से लॉगिन किया है।
दुधारी तलवार
इन जनांदोलनों ने सोशल मीडिया की ताकत को साबित किया है, वहीं हाल के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो सोशल मीडिया के दोष भी सामने आए हैं। इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों ने दुधारी तलवार का काम किया है। बहार-ए-अरब से लेकर सूडान तक के आंदोलनों में बेशक उन्होंने सकारात्मक भूमिका अदा की है, वहीं सीरिया, फिलीपींस और म्यांमार में जातीय नफरत को बढ़ावा देने का काम भी किया है। अमेरिका और भारत के चुनावों में कई तरह की फेक न्यूज को बढ़ावा दिया है। इस मीडिया की सबसे बड़ी खराबी है, किसी मर्यादा रेखा का न होना। इसका दुरुपयोग भी आसानी से हो सकता है। पर यह भी सही है कि पिछले एक दशक में सोशल मीडिया ने हर तरह के मीडिया के सामने चुनौतियाँ खड़ी की हैं।
सूडान में करीब चार महीने तक चले सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद सेना ने राष्ट्रपति उमर अल-बशीर को गुरुवार 11 अप्रैल को पद से हटा दिया और उन्हें हिरासत में ले लिया। फिलहाल एक मिलिट्री कौंसिल ने सत्ता संभाली है, जिसने आंदोलनकारियों को भरोसा दिलाया है कि दो साल के भीतर देश में असैनिक लोकतंत्र की स्थापना कर दी जाएगी। देश के नए नेता लेफ्टिनेंट जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान ने शनिवार 13 अप्रैल को राजधानी खारतूम में आंदोलनकारी नेताओं से मुलाकात की और उन्हें भरोसा दिलाया कि सब कुछ जल्द ठीक हो जाएगा।
सैनिक शासन भी नहीं
सूडानी आंदोलनकारी चाहते हैं कि एक असैनिक अंतरिम सरकार बनाई जाए। मिलिट्री कौंसिल के प्रमुख ने तख़्तापलट के दो दिन बाद 'व्यवस्था परिवर्तन' की शपथ ली है। इसके बाद उन्होंने टेलीविजन पर अपने संबोधन के दौरान 'सरकारी संस्थाओं के पुनर्गठन' की भी घोषणा की। देश की सभी प्रांतीय सरकारों को भंग कर दिया गया है और मानवाधिकार के सम्मान का वचन दिया गया है। शुरू में रक्षामंत्री जनरल अवाद इब्न औफ मिलिट्री कौंसिल के प्रमुख बने, पर उन्होंने एक दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया। आंदोलनकारियों का कहना था कि वे भी पूर्व राष्ट्रपति उमर अल-बशीर के चट्टे-बट्टे हैं।
बशीर पिछले 30 साल से सत्ता में थे। अल जजीरा के अनुसार आंदोलनकारियों के समूह ‘सूडानी प्रोफेशनल्स एसोसिएशन’ ने अपने आंदोलन को प्रतीक रूप में फिर भी जारी रखने का फैसला किया है और खारतूम के सेना मुख्यालय के बाहर उनका धरना जारी रहेगा। हालांकि सैनिक शासक ने जनता की तमाम बातें मानी हैं, पर आंदोलनकारियों के मन में अभी कई तरह के सवाल हैं। उन्हें लगता है कि दो साल का संधिकाल बहुत ज्यादा है।
सूडान में यह आंदोलन दिसम्बर के महीने में शुरू हुआ था। शुरूआती रोष खाद्य सामग्री की महंगाई को लेकर था। पर धीरे-धीरे इस आंदोलन के निशाने पर राष्ट्रपति बशर आ गए। राष्ट्रपति बशर ने सन 1989 में फौजी बगावत के माध्यम से सत्ता पर कब्जा किया था। बहरहाल पिछले चार महीने के आंदोलन को सैनिक बल की मदद से दबाने की कोशिश की गई, जिसने दर्जनों लोगों की मौत हुई। गत 6 अप्रैल के बाद शुरू हुए धरने के दौरान ही 38 लोग मरे हैं, जिनमें छह सैनिक भी हैं।
ट्यूनीशिया की याद
अफ्रीका के धुर उत्तर में सूडान के अलावा ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरक्को, लीबिया और मॉरितानिया प्रमुख देश हैं। सन 2011 की जैस्मिन या यास्मीन-क्रांति के कारण ट्यूनीशिया का नाम सामने आया था। यास्मीन इस देश का राष्ट्रीय फूल है। इसे हम चमेली के नाम से भी जानते हैं। एटलस पहाड़ियाँ और सहारा रेगिस्तान इस इलाके को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से शेष अफ्रीका से अलग करते हैं। अरब देशों के लिए यह इलाका मगरिब यानी पश्चिम है। सांस्कृतिक रूप से यह समृद्ध इलाका है। प्राचीन फिनीशियन शहर कार्थेज या कार्ताज़ यहीं है।
सन 2010 के दिसम्बर में ट्यूनीशिया के शहर सिदी बाऊज़ीद की एक सड़क पर मुहम्मद बुआज़ीज़ी नाम के एक बेरोज़गार ग्रेजुएट युवक ने अपने शरीर में आग लगा ली। वह सड़क पर फल और सब्जियाँ बेचने निकला था। पुलिस ने उसका माल ज़ब्त कर लिया, क्योंकि उसके पास सब्जी बेचने का परमिट नहीं था। एक अरसे से लोकतांत्रिक अधिकारों से महरूम लोगों का गुस्सा अचानक भड़क उठा। इसके दो-एक रोज़ बाद एक नौजवान बिजली के खम्भे पर चढ़ गया और देखते ही देखते करंट का शिकार हो गया।
अचानक ऐसी घटनाएं कई जगह हुईं। पूरे देश में सरकार विरोधी दंगे शुरू हो गए। जनता के गुस्से ने फौजी ताकत के सहारे राज कर रही सरकार को पटक कर रख दिया। राष्ट्रपति ज़ाइल आबेदीन बेन अली देश छोड़कर भाग गए। आंदोलन से स्तब्ध यूरोप और अमेरिका समझ नहीं पाए कि यह क्या हो गया। उस घटना ने समूचे अरब क्षेत्र में एक नए जनांदोलन को जन्म दिया, जिसे हम बहार-ए-अरब (अरब स्प्रिंग) के नाम से जानते हैं।
लोकतांत्रिक विकल्पों का अभाव
उत्तरी अफ्रीका के मगरिब और पश्चिम एशिया के मशरिक देशों के बीच अनेक असमानताएं है, पर कुछ समानताएं भी हैं। ईरान को अलग कर दें तो अरब राष्ट्रवाद इन्हें जोड़ता है। लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मिस्र, सीरिया, बहरीन, यमन से लेकर सऊदी अरब तक लोकतांत्रिक लहरें पहुँच रहीं हैं। पर इस इलाके में लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने के कारण असमंजस है।
पश्चिम एशिया में काफी हद तक सबसे सुगठित प्रशासनिक व्यवस्था ईरान में है। इसके बाद मिस्र और इराक हैं, जहाँ आधुनिकीकरण की स्थिति बेहतर है। जनाकांक्षाओं को आधुनिक प्रवृत्तियाँ हवा देती हैं, वहीं धार्मिक समूह भी इन आंदोलनों के पीछे हैं। सन 2011 की अरब स्प्रिंग के बाद ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और लीबिया में सत्ता परिवर्तन हुए, सीरिया में हाल में इस्लामिक स्टेट के कब्जे का अंत हुआ है, पर पूरे इलाके में बदलाव की लहर है।
लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने के कारण इस पूरे इलाके में अजब तरह का असमंजस देखने में आ रहा है। लीबिया में अमेरिकी हस्तक्षेप से कर्नल गद्दाफी का शासन खत्म हुआ, पर वहाँ असमंजस खत्म नहीं हुआ है। इन सारे देशों की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं है। इनकी समस्याओं के समाधान भी अलग तरीके के हैं। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग-विमर्श और नेट-सम्पर्क से विकसित ‘वर्च्युअल राजनीति’ व्यावहारिक ज़मीन पर उतनी ताकतवर साबित नहीं हुई, जितनी अपेक्षा थी।
खाड़ी देशों में भी बेचैनी
मगरिब के साथ खाड़ी देशों में भी हालात बिगड़ रहे हैं। 2011 के जनांदोलन ने यमन में 32 साल से राज कर रहे राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को हटने पर मजबूर कर दिया था। वहाँ विपक्ष भी अपेक्षाकृत संगठित था। वहाँ का लोकतांत्रिक इतिहास भी बेहतर है, पर वह लगातार अशांति और गृहयुद्धों का शिकार रहा है। अब पिछले कुछ वर्षों से हूती-विद्रोह के कारण वहाँ हिंसा की लहरें है। इसके पीछे सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता भी एक बड़ा कारण है।
पिछले साल के अंत में संरा के प्रयासों से यमन में शांति-स्थापना के लिए समझौता हो जरूर गया है, पर छिटपुट हिंसा अब भी जारी है। सन 2014 से यह देश हिंसा की चपेट में है, जिसके कारण लाखों लोग भुखमरी के शिकार हुए हैं। अनुमान है कि सऊदी अरब-नीत गठबंधन और हूती विद्रोहियों के बीच संघर्ष में 14 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और युद्ध के कारण पैदा हुए अकाल ने 50 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है।
व्यवस्था का सवाल
अप्रैल के पहले हफ्ते में अल्जीरिया के राष्ट्रपति अब्दुलअज़ीज़ बूतेफ़्लीका को भी जनता के दबाव में अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। उनके ख़िलाफ़ कई हफ्तों से देश भर में व्यापक प्रदर्शन हो रहे थे। बीस साल से सत्ता पर क़ाबिज़ बूतेफ़्लीका पहले ही कह चुके थे कि वे इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे और 28 अप्रैल को अपना कार्यकाल समाप्त होने पर पद छोड़ देंगे, पर प्रदर्शनकारियों का कहना था कि पद छोड़ने का वायदा काफ़ी नहीं है। वे तुरंत पद छोड़ें।
वस्तुतः सवाल केवल व्यक्तियों और तानाशाहों के नहीं हैं। व्यवस्था के हैं। अल्जीरिया में प्रदर्शनकारियों ने देश के राजनीतिक ढांचे में मूलभूत बदलाव की मांग की है। देश की सेना के जनता के दबाव में बूतेफ़्लीका को हटाकर संसद के उच्च सदन के सभापति अब्देलकदर बेंसलाह को 90 दिन के लिए अंतरिम राष्ट्रपति घोषित किया है। नए राष्ट्रपति ने 4 जुलाई को राष्ट्रपति पद का चुनाव कराने की घोषणा की है। अल्जीरिया की सत्ता में सेना अहम भूमिका निभाती है। अब इसमें भी बदलाव की मांग की जा रही है। सत्ताधारी नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने सुधारों के मुद्दे पर राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया है। बहरहाल आंदोलनकारी अब भी संतुष्ट नहीं हैं और हरेक शुक्रवार को वे प्रदर्शन कर रहे हैं।
सूडान और अल्जीरिया में एक साथ हुए सत्ता-परिवर्तनों ने सन 2011 के बहार-ए-अरब यानी अरब स्प्रिंग की याद ताजा कर दी। संयोग से दोनों जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने जबर्दस्त भूमिका निभाई है। पहले अल्जीरिया के अब्देल अजीज बूतेफ़्लीका की छुट्टी हुई और उसके बाद सूडान के उमर अल-बशीर का पतन हुआ। इन दोनों देशों के अलावा हाल में ट्यूनीशिया और मोरक्को में भी आंदोलनों ने फिर से सिर उठाया है। सन 2001 की बहार-ए-अरब के पीछे ट्यूनीशिया के एक नौजवान के आत्मदाह की भूमिका थी, जिसकी खबर सोशल मीडिया पर कानो-कान पूरे मगरिब और मशरिक में फैल गई थी। इसबार ट्रिगर पॉइंट कोई एक घटना नहीं है, पर लम्बे अरसे से सत्ता हथियाए लोगों के प्रति जनता की बेचैनी का इज़हार यह जरूर है। इस अभियान को भी सोशल-मीडिया की क्रांति कहा जा रहा है।
इस अभियान ने सूडान के तख्त पर 32 साल से जमे बैठे ताकतवर तानाशाह उमर अल-बशीर को गद्दी छोड़ने को मजबूर कर दिया है। इन्हीं अल-बशीर के नेतृत्व में सूडानी सेना ने इक्कीसवीं सदी के शुरू में दारफुर में भयावह नरमेध को अंजाम दिया था। उनकी उसी सेना को अब अपने मुखिया को गिरफ्तार करने पर मजबूर होना पड़ा। इलाके की युवा आबादी इन आंदोलनों की अगली कतार में खड़ी है और सेना पर लगातार दबाव बना रही है कि वह भी रास्ते से हटे। सन 2011 के आंदोलनों ने इस इलाके के चार बड़े तानाशाहों का तख्ता पलटा था। तब पूरे इलाके में जनता के बीच अपनी व्यवस्था को लेकर बहस शुरू हुई थी, जिसकी तार्किक परिणति अब नजर आ रही है, गोकि यह भी एक चरण है। जनता की नाराजगी
अरब-स्प्रिंग का दूसरा दौर अब शुरू हो रहा है। शायद कुछ और तानाशाहों के प्रति लोगों का गुस्सा फूटेगा। सन 2011 की बगावत के वक्त पश्चिमी देशों की दिलचस्पी इस इलाके में बहुत ज्यादा थी, पर अब उनकी दिलचस्पी कम है। वे अपनी परेशानियों में घिरे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप यों भी अपने देश को दुनियादारी से अलग रखना चाहते हैं। पर यह भी सही है कि इस इलाके में अब भी अमेरिका का समर्थन तानाशाही शासकों के साथ है। इस इलाके में मिस्र, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को अमेरिका का समर्थन मिलता है। तीनों देशों की कोशिश है कि 2011 की तरह बगावतों की लहर फिर से शुरू न हो जाए।
मिस्र में पिछली बार लम्बे समय से चली आ रही निरंकुश व्यवस्था टूटी थी, पर उसकी जगह पर एक दूसरा ताकतवर निजाम वहाँ स्थापित हो गया है। इस सत्ता-प्रतिष्ठान को सऊदी समर्थन प्राप्त है। सन 2011 की बगावत ने हुस्नी मुबारक के 30 साल लम्बे कार्यकाल का अंत किया था, पर अब राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी तानाशाही के रास्ते पर हैं। उनका दूसरा कार्यकाल 2022 में खत्म होने वाला है, पर वे अपने कार्यकाल को 2034 तक बढ़ाने के लिए जनमत संग्रह कराने जा रहे हैं। इस जनमत संग्रह में सेना को ताकतवर बनाने और न्यायपालिका को भी अपने अधीन करने की योजना है। उनके कार्यकाल में भी विरोधियों का बुरी तरह दमन किया गया है। हजारों लोग जेलों में बंद हैं।
सूडान और अल्जीरिया
हाल में सूडान और अल्जीरिया में जनता ने सत्ता-पलट किए हैं। इन जनांदोलनों में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सूडान में राष्ट्रपति उमर अल-बशीर को और अल्जीरिया में राष्ट्रपति अब्देल अज़ीज़ बूतेफ़्लीका को हटना पड़ा। दोनों लम्बे अरसे से अपने-अपने देशों की सत्ता पर काबिज़ थे। आंदोलनकारियों ने खासतौर से फेसबुक का जमकर इस्तेमाल किया। सरकारी प्रचार तंत्र के जवाब में आंदोलनकारियों का फेसबुक लाइव कहीं ज्यादा प्रभावशाली साबित हुआ। जहाँ सूडान का सरकारी मीडिया घोषित कर रहा था कि आंदोलन बिखर गया है और खारतूम के सैनिक मुख्यालय के बाहर से आंदोलनकारी हट चुके हैं, वहीं सोशल मीडिया पर आंदोलनकारियों के लाइव-स्ट्रीम पर वीडियो साबित कर रहे थे कि आंदोलन जारी है। अपदस्थ राष्ट्रपति बशीर ने अपने एक प्रसारण में कहा कि इन फेसबुकियों के कहने से तो मैं हटूँगा नहीं। पर उन्हें अंततः हटना पड़ा।
सूडान सरकार ने सोशल मीडिया पर पाबंदियाँ लगाने की कोशिशें भी कीं, पर सफलता नहीं मिली। अमेरिकी अख़बार वॉलस्ट्रीट जरनल ने अपनी एक रिपोर्ट में लंदन के एक डिजिटल-अधिकार समूह नेटब्लॉक्स का हवाला दिया है। नेटब्लॉक्स ने हजारों सूडानी छात्र-वॉलंटियरों का मदद से ऐसे डेटा पॉइंट बनाए, जिनसे पता लगता था कि सरकार ने किस-किस इलाके में फेसबुक, वॉट्सएप और ट्विटर की सेवाएं बंद कीं। नेटब्लॉक्स के अनुसार इंटरनेट को पूरी तरह बंद करने के स्थान पर लोकप्रिय सेवाओं को आंशिक रूप से बंद किया गया। ऐसे मौके पर आंदोलनकारियों ने भी रास्ते निकाले। उन्होंने वर्च्युअल प्राइवेट नेटवर्क (वीपीएन) तैयार किए, जिनसे लगता था कि उन्होंने सूडान के बाहर किसी स्थान से लॉगिन किया है।
दुधारी तलवार
इन जनांदोलनों ने सोशल मीडिया की ताकत को साबित किया है, वहीं हाल के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो सोशल मीडिया के दोष भी सामने आए हैं। इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों ने दुधारी तलवार का काम किया है। बहार-ए-अरब से लेकर सूडान तक के आंदोलनों में बेशक उन्होंने सकारात्मक भूमिका अदा की है, वहीं सीरिया, फिलीपींस और म्यांमार में जातीय नफरत को बढ़ावा देने का काम भी किया है। अमेरिका और भारत के चुनावों में कई तरह की फेक न्यूज को बढ़ावा दिया है। इस मीडिया की सबसे बड़ी खराबी है, किसी मर्यादा रेखा का न होना। इसका दुरुपयोग भी आसानी से हो सकता है। पर यह भी सही है कि पिछले एक दशक में सोशल मीडिया ने हर तरह के मीडिया के सामने चुनौतियाँ खड़ी की हैं।
सूडान में करीब चार महीने तक चले सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद सेना ने राष्ट्रपति उमर अल-बशीर को गुरुवार 11 अप्रैल को पद से हटा दिया और उन्हें हिरासत में ले लिया। फिलहाल एक मिलिट्री कौंसिल ने सत्ता संभाली है, जिसने आंदोलनकारियों को भरोसा दिलाया है कि दो साल के भीतर देश में असैनिक लोकतंत्र की स्थापना कर दी जाएगी। देश के नए नेता लेफ्टिनेंट जनरल अब्देल फ़तह अल-बुरहान ने शनिवार 13 अप्रैल को राजधानी खारतूम में आंदोलनकारी नेताओं से मुलाकात की और उन्हें भरोसा दिलाया कि सब कुछ जल्द ठीक हो जाएगा।
सैनिक शासन भी नहीं
सूडानी आंदोलनकारी चाहते हैं कि एक असैनिक अंतरिम सरकार बनाई जाए। मिलिट्री कौंसिल के प्रमुख ने तख़्तापलट के दो दिन बाद 'व्यवस्था परिवर्तन' की शपथ ली है। इसके बाद उन्होंने टेलीविजन पर अपने संबोधन के दौरान 'सरकारी संस्थाओं के पुनर्गठन' की भी घोषणा की। देश की सभी प्रांतीय सरकारों को भंग कर दिया गया है और मानवाधिकार के सम्मान का वचन दिया गया है। शुरू में रक्षामंत्री जनरल अवाद इब्न औफ मिलिट्री कौंसिल के प्रमुख बने, पर उन्होंने एक दिन बाद ही इस्तीफा दे दिया। आंदोलनकारियों का कहना था कि वे भी पूर्व राष्ट्रपति उमर अल-बशीर के चट्टे-बट्टे हैं।
बशीर पिछले 30 साल से सत्ता में थे। अल जजीरा के अनुसार आंदोलनकारियों के समूह ‘सूडानी प्रोफेशनल्स एसोसिएशन’ ने अपने आंदोलन को प्रतीक रूप में फिर भी जारी रखने का फैसला किया है और खारतूम के सेना मुख्यालय के बाहर उनका धरना जारी रहेगा। हालांकि सैनिक शासक ने जनता की तमाम बातें मानी हैं, पर आंदोलनकारियों के मन में अभी कई तरह के सवाल हैं। उन्हें लगता है कि दो साल का संधिकाल बहुत ज्यादा है।
सूडान में यह आंदोलन दिसम्बर के महीने में शुरू हुआ था। शुरूआती रोष खाद्य सामग्री की महंगाई को लेकर था। पर धीरे-धीरे इस आंदोलन के निशाने पर राष्ट्रपति बशर आ गए। राष्ट्रपति बशर ने सन 1989 में फौजी बगावत के माध्यम से सत्ता पर कब्जा किया था। बहरहाल पिछले चार महीने के आंदोलन को सैनिक बल की मदद से दबाने की कोशिश की गई, जिसने दर्जनों लोगों की मौत हुई। गत 6 अप्रैल के बाद शुरू हुए धरने के दौरान ही 38 लोग मरे हैं, जिनमें छह सैनिक भी हैं।
ट्यूनीशिया की याद
अफ्रीका के धुर उत्तर में सूडान के अलावा ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मोरक्को, लीबिया और मॉरितानिया प्रमुख देश हैं। सन 2011 की जैस्मिन या यास्मीन-क्रांति के कारण ट्यूनीशिया का नाम सामने आया था। यास्मीन इस देश का राष्ट्रीय फूल है। इसे हम चमेली के नाम से भी जानते हैं। एटलस पहाड़ियाँ और सहारा रेगिस्तान इस इलाके को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से शेष अफ्रीका से अलग करते हैं। अरब देशों के लिए यह इलाका मगरिब यानी पश्चिम है। सांस्कृतिक रूप से यह समृद्ध इलाका है। प्राचीन फिनीशियन शहर कार्थेज या कार्ताज़ यहीं है।
सन 2010 के दिसम्बर में ट्यूनीशिया के शहर सिदी बाऊज़ीद की एक सड़क पर मुहम्मद बुआज़ीज़ी नाम के एक बेरोज़गार ग्रेजुएट युवक ने अपने शरीर में आग लगा ली। वह सड़क पर फल और सब्जियाँ बेचने निकला था। पुलिस ने उसका माल ज़ब्त कर लिया, क्योंकि उसके पास सब्जी बेचने का परमिट नहीं था। एक अरसे से लोकतांत्रिक अधिकारों से महरूम लोगों का गुस्सा अचानक भड़क उठा। इसके दो-एक रोज़ बाद एक नौजवान बिजली के खम्भे पर चढ़ गया और देखते ही देखते करंट का शिकार हो गया।
अचानक ऐसी घटनाएं कई जगह हुईं। पूरे देश में सरकार विरोधी दंगे शुरू हो गए। जनता के गुस्से ने फौजी ताकत के सहारे राज कर रही सरकार को पटक कर रख दिया। राष्ट्रपति ज़ाइल आबेदीन बेन अली देश छोड़कर भाग गए। आंदोलन से स्तब्ध यूरोप और अमेरिका समझ नहीं पाए कि यह क्या हो गया। उस घटना ने समूचे अरब क्षेत्र में एक नए जनांदोलन को जन्म दिया, जिसे हम बहार-ए-अरब (अरब स्प्रिंग) के नाम से जानते हैं।
लोकतांत्रिक विकल्पों का अभाव
उत्तरी अफ्रीका के मगरिब और पश्चिम एशिया के मशरिक देशों के बीच अनेक असमानताएं है, पर कुछ समानताएं भी हैं। ईरान को अलग कर दें तो अरब राष्ट्रवाद इन्हें जोड़ता है। लीबिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, मिस्र, सीरिया, बहरीन, यमन से लेकर सऊदी अरब तक लोकतांत्रिक लहरें पहुँच रहीं हैं। पर इस इलाके में लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने के कारण असमंजस है।
पश्चिम एशिया में काफी हद तक सबसे सुगठित प्रशासनिक व्यवस्था ईरान में है। इसके बाद मिस्र और इराक हैं, जहाँ आधुनिकीकरण की स्थिति बेहतर है। जनाकांक्षाओं को आधुनिक प्रवृत्तियाँ हवा देती हैं, वहीं धार्मिक समूह भी इन आंदोलनों के पीछे हैं। सन 2011 की अरब स्प्रिंग के बाद ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और लीबिया में सत्ता परिवर्तन हुए, सीरिया में हाल में इस्लामिक स्टेट के कब्जे का अंत हुआ है, पर पूरे इलाके में बदलाव की लहर है।
लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने के कारण इस पूरे इलाके में अजब तरह का असमंजस देखने में आ रहा है। लीबिया में अमेरिकी हस्तक्षेप से कर्नल गद्दाफी का शासन खत्म हुआ, पर वहाँ असमंजस खत्म नहीं हुआ है। इन सारे देशों की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं है। इनकी समस्याओं के समाधान भी अलग तरीके के हैं। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग-विमर्श और नेट-सम्पर्क से विकसित ‘वर्च्युअल राजनीति’ व्यावहारिक ज़मीन पर उतनी ताकतवर साबित नहीं हुई, जितनी अपेक्षा थी।
खाड़ी देशों में भी बेचैनी
मगरिब के साथ खाड़ी देशों में भी हालात बिगड़ रहे हैं। 2011 के जनांदोलन ने यमन में 32 साल से राज कर रहे राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को हटने पर मजबूर कर दिया था। वहाँ विपक्ष भी अपेक्षाकृत संगठित था। वहाँ का लोकतांत्रिक इतिहास भी बेहतर है, पर वह लगातार अशांति और गृहयुद्धों का शिकार रहा है। अब पिछले कुछ वर्षों से हूती-विद्रोह के कारण वहाँ हिंसा की लहरें है। इसके पीछे सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता भी एक बड़ा कारण है।
पिछले साल के अंत में संरा के प्रयासों से यमन में शांति-स्थापना के लिए समझौता हो जरूर गया है, पर छिटपुट हिंसा अब भी जारी है। सन 2014 से यह देश हिंसा की चपेट में है, जिसके कारण लाखों लोग भुखमरी के शिकार हुए हैं। अनुमान है कि सऊदी अरब-नीत गठबंधन और हूती विद्रोहियों के बीच संघर्ष में 14 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और युद्ध के कारण पैदा हुए अकाल ने 50 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है।
व्यवस्था का सवाल
अप्रैल के पहले हफ्ते में अल्जीरिया के राष्ट्रपति अब्दुलअज़ीज़ बूतेफ़्लीका को भी जनता के दबाव में अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। उनके ख़िलाफ़ कई हफ्तों से देश भर में व्यापक प्रदर्शन हो रहे थे। बीस साल से सत्ता पर क़ाबिज़ बूतेफ़्लीका पहले ही कह चुके थे कि वे इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे और 28 अप्रैल को अपना कार्यकाल समाप्त होने पर पद छोड़ देंगे, पर प्रदर्शनकारियों का कहना था कि पद छोड़ने का वायदा काफ़ी नहीं है। वे तुरंत पद छोड़ें।
वस्तुतः सवाल केवल व्यक्तियों और तानाशाहों के नहीं हैं। व्यवस्था के हैं। अल्जीरिया में प्रदर्शनकारियों ने देश के राजनीतिक ढांचे में मूलभूत बदलाव की मांग की है। देश की सेना के जनता के दबाव में बूतेफ़्लीका को हटाकर संसद के उच्च सदन के सभापति अब्देलकदर बेंसलाह को 90 दिन के लिए अंतरिम राष्ट्रपति घोषित किया है। नए राष्ट्रपति ने 4 जुलाई को राष्ट्रपति पद का चुनाव कराने की घोषणा की है। अल्जीरिया की सत्ता में सेना अहम भूमिका निभाती है। अब इसमें भी बदलाव की मांग की जा रही है। सत्ताधारी नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने सुधारों के मुद्दे पर राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाने का निर्णय लिया है। बहरहाल आंदोलनकारी अब भी संतुष्ट नहीं हैं और हरेक शुक्रवार को वे प्रदर्शन कर रहे हैं।
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